भारतीय ज्ञान परम्परा और राष्ट्रीय शिक्षा नीति

 – डॉ० रविन्द्र नाथ तिवारी

भारतीय ज्ञान परंपरा अद्वितीय ज्ञान और प्रज्ञा का प्रतीक है जिसमें ज्ञान और विज्ञान, लौकिक और पारलौकिक, कर्म और धर्म तथा भोग और त्याग का अद्भुत समन्वय है। ऋग्वेद के समय से ही शिक्षा प्रणाली जीवन के नैतिक, भौतिक, आध्यात्मिक और बौद्धिक मूल्यों पर केंद्रित होकर विनम्रता, सत्यता, अनुशासन, आत्मनिर्भरता और सभी के लिए सम्मान जैसे मूल्यों पर जोर देती थी। वेदों में विद्या को मनुष्यता की श्रेष्ठता का आधार स्वीकार किया गया था (ऋग्वेद, 10/71/7)। छात्रों को मानव, प्राणियों एवं प्रकृति के मध्य संतुलन को बनाए रखना सिखाया जाता था। शिक्षण और सीखने के लिए वेद और उपनिषद् के सिद्धांतों का अनुपालन जिससे व्यक्ति स्वयं, परिवार और समाज के प्रति कर्तव्यों को पूरा कर सके, इस प्रकार जीवन के सभी पक्ष इस प्रणाली में सम्मिलित थे।

शिक्षा प्रणाली  ने सीखने और शारीरिक विकास दोनों पर ध्यान केंद्रित किया। कर्म वही है जो बंधनों से मुक्त करे और विद्या वही है जो मुक्ति का मार्ग दिखाए। इसके अतिरिक्त जो भी कर्म हैं वह सब निपुणता देने वाले मात्र हैं (विष्णु पुराण, 1/9/41)। शिक्षा के इस संकल्प को भारतीय परंपरा में अंगीकृत कर तदनुरूप ही विश्वविद्यालयों और गुरुकुलों में शिक्षा दी जाती थी। घर, मंदिर, पाठशाला तथा गुरुकुल में संस्कार युक्त स्वदेशी शिक्षा दी जाती थी। उच्च ज्ञान के लिए छात्र विहार और विश्वविद्यालयों में जाते थे तथा शिक्षण अधिकतर मौखिक था, छात्रों को कक्षा में जो विषय पढ़ाया जाता था उसको वो याद कर मनन करते थे।

प्राचीन काल की शिक्षा प्रणाली ज्ञान, परंपराएं और प्रथाएं मानवता को प्रोत्साहित करती थीं। पुराण में ज्ञान को अप्रतिम माना गया है (ब्रह्माण्ड पुराण, 1/4/15)। भारत के तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, बल्लभी, उज्जयिनी, काशी आदि विश्व प्रसिद्ध शिक्षा एवं शोध के प्रमुख केन्द्र थे तथा यहां कई देशों के शिक्षार्थी  ज्ञानार्जन के लिए आते थे। वैदिक काल में महिलाओं की शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रसिद्धि थी जिसमें मैत्रेयी, ऋतम्भरा, अपाला, गार्गी और लोपामुद्रा आदि जैसे नाम प्रमुख थे। बोधायन, कात्यायन, आर्यभट्ट, चरक,  कणाद, वाराहमिहिर, नागार्जुन, अगस्त्य, भर्तृहरि, शंकराचार्य, स्वामी विवेकानंद जैसे अनेकानेक महापुरुषों ने भारत भूमि पर जन्म लेकर अपनी मेधा से विश्व में भारतीय ज्ञान परंपरा के समिद्ध हेतु अतुल्य योगदान दिया है।

गुरुकुल शिक्षा के प्रमुख आधार स्तम्भ थे। शिक्षार्थी अठारह विद्याओं – छः वेदांग, चार वेद (ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्वेद), चार उपवेद (आयुर्वेद, धनुर्वेद, गन्धर्व वेद, शिल्पवेद), मीमांसा, न्याय, पुराण तथा धर्मशास्त्र का अर्जन गुरु के निर्देशन में ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अनुष्ठानपूर्वक अभ्यास कर सम्पादन करते थे जिससे आजीविका निर्वहन में कोई परेशानी नहीं होती थी तथा प्रौढ़ावस्था तक आते-आते अपने विषय के निपुण ज्ञाता बन जाते थे। त्याग, वृत्तिसम्पन्न तथा धन की तृष्णा से परे आचार्य ही भारतीय शिक्षा पद्धति में शिक्षक माना गया है। शिक्षा को व्यवसाय और धनार्जन का साधन नहीं माना जाता था। वायु पुराण (77/128) में उल्लेख है कि गुरु रूपी तीर्थ से सिद्धि प्राप्त होती है तथा वह सभी तीर्थों से श्रेष्ठ है। प्राचीन भारतीय सनातन ज्ञान परंपरा अति समृद्धि थी तथा इसका उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को समाहित करते हुए व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व को विकसित करना था। जब सारा विश्व अज्ञान रूपी अंधकार में भटकता था तब सम्पूर्ण भारत के मनीषी उच्चतम ज्ञान का प्रसार करके मानव को पशुता से मुक्त कर, श्रेष्ठ संस्कारों से युक्त कर संपूर्ण  मानव बनाते थे।

प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान और विचार की समृद्ध परंपरा के आलोक में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 तैयार की गई है। ज्ञान, प्रज्ञा और सत्य की खोज को भारतीय विचार परंपरा और दर्शन में सदा सर्वोच्च लक्ष्य माना जाता था। प्राचीन भारत में शिक्षा का लक्ष्य सांसारिक जीवन अथवा स्कूल के बाद के जीवन की तैयारी के रूप में ज्ञान अर्जन नहीं बल्कि पूर्ण आत्म ज्ञान और मुक्ति के रूप में माना गया था। भारत द्वारा 2015 में अपनाए गए सतत् विकास एजेंडा 2030 के लक्ष्य चार में परिलक्षित वैश्विक शिक्षा विकास योजना के अनुसार विश्व में 2030 तक सभी के लिए समावेशी और समान गुणवत्तायुक्त शिक्षा सुनिश्चित करने और जीवन पर्यंत शिक्षा के अवसरों को बढ़ावा दिए जाने का लक्ष्य है। इस हेतु संपूर्ण शिक्षा प्रणाली को समर्थन और अधिगम को बढ़ावा देने के लिए पुनर्गठित करने की आवश्यकता होगी ताकि सतत् विकास के लिए 2030 एजेंडा के सभी महत्वपूर्ण लक्ष्य प्राप्त किया जा सके।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के अनुसार 2040 तक भारत के लिए एक ऐसी शिक्षा प्रणाली का लक्ष्य होगा जो कि किसी से पीछे नहीं है। ऐसी शिक्षा व्यवस्था जहां किसी भी सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से संबिंधत शिक्षार्थियों को समान रूप से सर्वोच्च गुणवत्ता की शिक्षा उपलब्ध हो सकेगी। यह 21वीं सदी की पहली शिक्षा नीति है जिसका लक्ष्य हमारे देश के विकास के लिए अनिवार्य आवश्यकताओं को पूरा करना है तथा भारत की परंपरा और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार को बरकरार रखते हुए, 21वीं सदी की शिक्षा के लिए आकांक्षात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करना है।

अनुसंधान एवं ज्ञान के परिदृश्य में पूरा विश्व तेजी से परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। मानविकी और कला की मांग बढ़ेगी क्योंकि भारत एक विकसित देश बनने के साथ-साथ दुनिया की तीन सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक बनने के साथ-साथ आत्मनिर्भरता की ओर अग्रसर है। वर्तमान में सीखने के परिणामों और जो आवश्यक है उनके मध्य की खाई को, प्रारंभिक बाल्यावस्था से देखभाल और उच्चतर शिक्षा के माध्यम से शिक्षा में उच्चतम गुणवत्ता, इक्विटी और सिस्टम में अखंडता लाने वाले प्रमुख सुधारों के जरिए पूर्ण किया जा सकता है।

शिक्षा व्यवस्था में किए जा रहे बुनियादी बदलाव के केंद्र में निश्चित तौर पर शिक्षक होने चाहिए। यह नीति निश्चित तौर पर प्रत्येक स्तर पर शिक्षकों को समाज के सर्वाधिक सम्माननीय और श्रेष्ठ सदस्य के रूप में पुनः स्थान देने में सहायक होगी। शिक्षा ही नागरिकों को हमारी अगली पीढ़ी को सही मायने में आकार देती हैं। इस नीति द्वारा शिक्षकों को सक्षम बनाने के लिए हर संभव कदम उठाए जाने की योजना है जिससे कि वे अपने कार्य को प्रभावी रूप से कर सकें। हर स्तर पर शिक्षण के पेशे में सबसे होनहार लोगों का चयन करने की योजना है। जिसके लिए उनकी आजीविका, सम्मान, मान मर्यादा और स्वायत्तता सुनिश्चित हो सकेगी। साथ ही तंत्र में गुणवत्ता नियंत्रण और जवाबदेही के बुनियादी प्रक्रियाएं भी स्थापित होनी हैं। इस नीति का उद्देश्य ऐसे अच्छे इंसानों का विकास करना है जिनमें करुणा और सहानुभूति, साहस और लचीलापन, वैज्ञानिक चिंतन और रचनात्मकता, कल्पना शक्ति, नैतिक मूल्य का समावेश हो तथा संविधान द्वारा परिकल्पित समावेशी और बहुलतावादी समाज के निर्माण में बेहतर तरीके से योगदान कर सकें।

भारतीय भाषाओं को महत्व देते हुए अभियांत्रिकी, चिकित्सा और व्यवसायिक पाठ्यक्रमों सहित लगभग सभी पाठ्यक्रमों में भारतीय भाषा का विकल्प रखा गया है। शिक्षकों और अभिभावकों को हर बच्चे की विशिष्ट क्षमताओं की स्वीकृति, पहचान और उनके विकास हेतु संवेदनशील बनाने की योजना इस शिक्षा नीति के माध्यम से करने का प्रयास किया गया है। अकादमिक और अन्य क्षमताओं में सर्वांगीण विकास पर पूरा ध्यान देने का उल्लेख है। बुनियादी साक्षरता और संख्या ज्ञान को सर्वाधिक प्राथमिकता दी गई है जिससे कि सभी बच्चे कक्षा तीन तक साक्षरता और संख्या ज्ञान विषयों को सीखने के मूलभूत कौशलों को प्राप्त कर सकेंगे। रटकर परीक्षा पास करने वाली पद्धति को इस शिक्षा नीति में नकारा गया है और अवधारणात्मक समझ पर जोर देने वाली शिक्षा को विकसित करने की योजना बनाने का प्रयास किया गया है जिससे तार्किक निर्णय लेने और नवाचार को प्रोत्साहित करने के लिए रचनात्मक और तार्किक सोच वाली शिक्षा विकसित किया जा सके।

सहानुभूति, दूसरों के लिए सम्मान, शिष्टाचार, लोकतांत्रिक भावना, सेवा की भावना, सार्वजनिक संपत्ति के लिए सम्मान, वैज्ञानिक चिंतन, स्वतंत्रता, जिम्मेदारी, बहुलतावाद, समानता और न्याय को विद्यार्थियों में बनाये रखने के लिए नैतिकता, मानवीय और संवैधानिक मूल्य पर आधारित बनाने की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में निहित योजना बहुत ही प्रभावशाली होगी। अध्ययन, अध्यापन के कार्य में भाषा की शक्ति को प्रोत्साहित किया जाएगा। छात्रों के सतत् मूल्यांकन पर काफी जोर दिया गया है और साथ ही साथ तकनीकी के यथासंभव उपयोग का भी उल्लेख है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि सभी छात्र शिक्षा प्रणाली में सफलता हासिल कर सकें, पूर्ण समता और समावेशन निर्णय की आधारशिला रखी जाएगी।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में आमूलचूल परिवर्तन  की बात कही गयी है जिसमें बहुविषयक विश्वविद्यालयों की स्थापना तथा अन्तर्विषयक शोध प्रमुख हैं। उच्चतर शिक्षा में तीन प्रकार के संस्थान होंगे – शोध गहन विश्वविद्यालय, शिक्षण गहन विश्वविद्यालय एवं स्वायत्त डिग्री देने वाला महाविद्यालय। इसके अतिरिक्त विद्यार्थियों के अनुभव में वृद्धि के लिए पाठ्यचयन, राष्ट्रीय अनुसंधान फाउन्डेशन की स्थापना, शैक्षणिक और प्रशासनिक स्वायत्तता वाले उच्चतर शिक्षा के सभी एकल नियामक द्वारा लचीला लेकिन स्थायित्व प्रदान करने वाले विनियमन का गठन इत्यादि। डिग्री कार्यक्रमों में महत्वपूर्ण बदलाव किये जायेंगे जिसमें एक वर्ष पूर्ण करने पर सर्टिफिकेट, दो वर्ष पर डिप्लोमा एवं तीन वर्ष पर डिग्री की उपाधि दी जायेगी। चार वर्ष के स्नातक पाठ्यक्रम पूर्ण करने पर एक वर्ष के पश्चात स्नातकोत्तर की डिग्री दी जायेगी। अकादमिक क्रेडिट बैंक की स्थापना अति महत्वपूर्ण कदम है। वर्ष 2035 तक उच्चतर शिक्षा में सकल नामांकन अनुपात 50 प्रतिशत करने का लक्ष्य है। सभी उच्चतर शिक्षा संस्थान 2030 तक बहुविषयक संस्थान बनाने की योजना तथा 2040 तक सभी वर्तमान उच्चतर शिक्षण संस्थान का उद्देश्य अपने आपको बहुविषयक संस्थान के रूप में स्थापित करना होगा।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति का लक्ष्य प्रत्येक विद्यार्थी को ज्ञान केन्द्रित भारतीय मूल्यों से विकसित गुणवत्तापूर्ण उच्चतर शिक्षा उपलब्ध कराना है। यह भारत को वैश्विक ज्ञान की महाशक्ति बनाकर एक जीवंत और न्याय संगत समाज में बदलने के लिए प्रत्यक्ष रूप से सहयोग करेगी। इस नीति में परिकल्पित है कि हमारे संस्थानों की पाठ्यचर्या और शिक्षा विधि छात्रों में अपने मौलिक दायित्व और संवैधानिक मूल्यों को देश के साथ जुड़ाव और बदलते विश्व में नागरिक की भूमिका और उत्तरदायित्व की जागरूकता उत्पन्न करेगी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति भारतीय ज्ञान परम्पराओं का सम्पोषित विकास कर सम्बल प्रदान करते हुए भारत केन्द्रित तथा समाज पोषित होकर भारत को परम वैभव राष्ट्र तथा जगतगुरु बनाने में महती भूमिका का निर्वहन करेगी।

(लेखक शासकीय आदर्श विज्ञान महाविद्यालय, रीवा (म.प्र.) में भू-विज्ञान विभागाध्यक्ष है।)

और पढ़ें : मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा और राष्ट्रीय शिक्षा नीति

3 thoughts on “भारतीय ज्ञान परम्परा और राष्ट्रीय शिक्षा नीति

  1. शिक्षा की ऐसी नीति बनाने के लिए देश को ऐसे ही शिक्षक की जरूरत हैं। सर्

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