– दिलीप वसंत बेतकेकर
‘मुझे कौन सिखाएगा?’ कोई भी नहीं! और कोई भी!
मुझे कौन सिखाएगा इस प्रश्न के लिए दोनों ही उत्तर सही हैं, किन्तु ये कैसा हो सकता है? दोनों उत्तर कैसे सही हो सकते हैं? ऐसा प्रश्न तो उठा न मन में हम यहां वही समझेंगे!
मुझे कोई भी नहीं सिखा सकता, परन्तु यदि मैं निश्चय करता हूं तो मुझे कोई भी सिखा सकेगा। भगवान दत्तात्रेय के चौबीस गुरु थे उनमें केवल मानव ही नहीं अपितु प्राणी भी थे। प्रत्यक्ष भगवान दत्तात्रेय को भी अन्यों से सीख लेनी पड़ी तो हमारे जैसे सामान्य मानव की क्या स्थिति होगी!
जिसकी सीखने की चाहत हो उसे कहीं से भी, किसी प्रकार से भी किसी के द्वारा भी सीख मिल सकती है। जिसको सीखने की इच्छा ही नहीं उसे कोई भी किसी प्रकार से नहीं सिखा सकता।
No one can teach him who does not wish to learn यह सच है। मेरा बर्तन ही मैं उल्टा पकड़ता हूँ तो कोई कितना भी उसे भरने का प्रयास करें, सफल नहीं होगा। वास्तव में दुनिया में कोई एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को सिखा नहीं सकता। मैं बच्चों को पढ़ाता हूँ, सिखा सकता हूं’ ऐसा जो समझता है वह एक मुर्ख है, ऐसा स्वामी विवेकानन्द कहते हैं। इस संदर्भ में उनका एक अन्य विचार भी महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं- No one was ever really taught by others. Each one of us has to teach himself. अन्य कोई भी हमें सिखा नहीं सकता, सभी को स्वयं ही सीखना होगा, स्वयं को स्वयं की सीख!
सीखने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को सहायता करने वाले व्यक्ति और साधन सामग्री पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हो जाती है। विवेकानंद स्वामी द्वारा प्रतिपादन यह विचार अन्य व्यक्तियों द्वारा भी प्रस्तुत किया गया है। लगभग सभी महान व्यक्ति भी इस विचार के समर्थक हैं।
शिक्षा, शिक्षक और विद्यार्थी इनके संबंध महर्षि घोष का मौलिक है। उनके अनुसार ‘कुछ भी सिखाना सम्भव नहीं है यह शिक्षा का प्रथम सिद्धांत है। शिक्षक सिखाता नहीं अपितु वह केवल सहायता करने वाला, मार्गदर्शक है। सुझाव देना शिक्षक का काम है। वह विद्यार्थी को प्रशिक्षित नहीं करता, अपितु ज्ञान संपादन करने हेतु साधन सामग्री उपलब्ध कराता है और उनका उचित उपयोग करना बताता है। इस हेतु प्रोत्साहित करता है। वह ज्ञान नहीं देता परन्तु ज्ञानार्जन का मार्ग दर्शाता है!’
गैलीलियो के अनुसार- You cannot teach a person anything. You can only help him find it within himself. अलबर्ट आइंस्टीन के अनुसार- मैं किसी को कुछ नहीं सिखाता, मैं केवल ऐसा वातावरण, ऐसी परिस्थिति निर्मित करता हूँ जिससे वह स्वयं सीख पाए।
एक सुंदर चीनी कहावत है- Teacher opens the door, but you must enter by yourself.
अपनी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में यदि कोई इस प्रकार कहने सुझाने के प्रयास करें तो हंगामा मच जाता है। सर्वसाधारण की धारणा यही रहती है कि शिक्षक इधर-उधर से सामग्री एकत्र करें और विद्यार्थी के दिमाग में ठूंस देवें! इस वलय से बाहर आने का विचार नहीं करता! शिक्षक के कॉपी की सामग्री विद्यार्थी की कॉपी में उतारना ही शिक्षण कहलाता है आजकल!
इक्कीसवीं सदी में हम इस गलत धारणा के वलय से बाहर नहीं निकल पाए तो भविष्य अंधकारमय होगा। जीवन एक मृतप्राय मानव देह जैसा होगा। लेखक आलविन टॉफ्लर इक्कीसवीं सदी का अशिक्षित कौन के संदर्भ में प्रस्तुत करते है- The illiterate of the 21st century will not be those, who cannot read and write, but those who cannot learn, unlearn or relearn.
ज्ञान की निरंतर वृद्धि हो रही है। हम जो सीख रहे हैं वह तो कब का गया है। इसीलिए वृद्धि गत ज्ञान से जुड़ाव हेतु हमे सीखना कैसे? यही सीखना होगा। डॉ. अरुण निगवेकर लिखते हैं- आज की युवा पीढ़ी को तो सीखना कैसे यही सीखना पड़ेगा, तभी निरंतर वृद्धि होने वाले ज्ञान को आत्मसात कर उसका उपयोग कर सकेंगे। मेरी स्वयं की इच्छा कुछ सीखने की होगी, मन तैयार होगा, तो इस हेतु मार्गदर्शकों की कमी नहीं होगी।
“कैसे सीखना ये जिसको समझा उसे सारा समझा” यह हेनरी ब्रूक एडम्स का विधान सार्थक है।
सीखने की मनःपूर्वक इच्छा रखने वाला व्यक्ति, और कैसे सीखें ये जानने वाला व्यक्ति आसपास के लोगों द्वारा, पुस्तकों द्वारा, कम्प्यूटर द्वारा, प्रयोगशालाओं द्वारा, साथी मित्र से, दूरस्थ ऐसे तज्ञों द्वारा भी ज्ञान प्राप्त कर सकता है। परन्तु जिसे सीखने की इच्छा ही नहीं उसे कोई भी सहायता नहीं कर सकता!
अब आप भली भांति समझ सकते हैं कि पूर्व में कथित विधान मुझे कोई भी नहीं सिखा सकता और मैं किसी से भी सीख सकता हूँ- सही है अथवा नहीं!!
आप स्वयं ही निश्चित करें!!
(लेखक शिक्षाविद, स्वतंत्र लेखक, चिन्तक व विचारक है।)
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