– दिलीप वसंत बेतकेकर
देखने में यह आता है कि सब लोग अपना घर तो साफ करते हैं पर कचरा इकठ्ठा करके बाहर कहीं भी फेक देते हैं, रास्ते में भी फेकने में जरा भी नहीं झिझकते! सार्वजनिक जगह, रास्ते, कितने भी गंदे क्यों न हो जाएं परन्तु अपना घर साफ सुथरा रहे यही मानसिकता होती है।
ऐसा क्यों होता है?
कारण यह होता है कि घर ‘मेरा’ है और रास्ता तो ‘सार्वजनिक’…अर्थात सभी जनों का!
अनेक विद्यालय-महाविद्यालयों की कक्षाओं में, दीवारों पर चप्पल-जूते आदि के दाग धब्बे देखने को मिलते हैं। सार्वजनिक स्थानों पर गंदे चित्र, दीवारों पर पान की पिचकारी, पर्यटन स्थलों पर, ऐतिहासिक धरोहरों पर, नाम उकेरे हुए अपने देश में सभी स्थानों में दिखाई देते हैं। शाला-महाविद्यालयों में टेबिल बेंचों पर लड़के-लड़कियों के नाम लिखना, गंदे संदेश लिखना, ये तो आम बात है। कहीं कहीं दिल और उसमें तीर आदि चित्र में दिखाई देते हैं। ऐसी चित्रकला कहीं अपने घरों में, दीवारों में अथवा फर्नीचरों पर देखने को मिलती है क्या? नहीं ना? तो क्या कारण होगा इस बात का? वहीं ना! कि ये घर मेरा स्वयं का है, टेबल कुर्सी अपनी! शाला महाविद्यालय की ये वस्तुएं तो मेरी अपनी नहीं है ना? वे सभी की हैं।
जब किसी वस्तु पर मेरे होने की भावना रहती है तब उस प्रत्येक वस्तु को सावधानी पूर्वक संभाला जाता है। उस वस्तु को प्रेम से, अपनत्व से, सावधानीपूर्वक प्रयोग किया जाता है। जब ‘मेरी है यह’ वस्तु ऐसी भावना का अभाव हो तब उस वस्तु का प्रयोग बेफिक्र रीति से किया जाता है। खिलौने मेरे, टीवी मेरी, सायकल मेरी, मोबाइल मेरा, कपड़े मेरे ऐसी धारणा होने से उनसे अपनत्व रहता है। अध्ययन के विषय में क्या होता है। सामान्यतः अध्ययन / अभ्यास मेरा ऐसी भावना नहीं रहती।
विद्यालय में ‘पढ़ाई करो पढ़ाई करो’ ऐसी रट कौन लगाता है? शिक्षक! घर पहुंचने पर अध्ययन करने के लिए बार बार कौन याद दिलाता है? सुबह उठकर पढ़ाई करो ऐसा कौन कहता है?
अर्थात पालक……….. मां-पिता, बड़े बुजुर्ग ही ना! कुछ बच्चों को माता-पिता, बड़े-बुजुर्गो का इस प्रकार पढ़ाई के लिए टोकना पसंद नहीं आता! यदि माता-पिता, पालक, शिक्षक ने पढ़ाई करो कहना छोड दिया तो कितने विद्यार्थी पढ़ाई मन से करेंगे और कितनी?
भगवान को साक्षी मानकर, सच्चे दिल से, कुछ प्रश्नों के उत्तर तो आप स्वयं ही जांच लें! माता-पिता-शिक्षक ने पढ़ाई के लिए यदि नहीं टोका तो मैं क्या करूंगा? मुझे स्वयं के दिल से पढ़ाई करने की इच्छा नहीं होती क्या?
अभ्यास करना मेरा कर्तव्य है क्या? अध्ययन के प्रति ममत्व अनुभव करते हैं क्या? अध्ययन में आनंद आता है अथवा झंझट अनुभव करते हैं?
माता-पिता कभी घर पर छोटे मोटे कार्य करने के लिए कहते हैं। शाला में शिक्षक भी कभी कक्षा में अन्य कार्य के लिए कहते हैं। यह करते हुए ये कार्य तो माता-पिता अथवा शिक्षक का है ऐसी भावना रहती है ना? माता-पिता की आज्ञानुसार पढ़ाई करने को कहने पर अनचाहे ही पढ़ाई करते हैं। परन्तु उक्त कार्य….. अध्ययन…… मेरा नहीं अनुभव होता। वह कार्य पालक शिक्षक का होता है। वह कार्य डर से अथवा दबाव में आकर दिया जाता है। उसमें मेरा ऐसी भावना, विचार, प्रवृत्ति नहीं दिखती! स्वाभाविकतः वह किसी अन्य द्वारा अपने ऊपर लादा गया बोझ लगता है। और सब तो मेरा परंतु अभ्यास मेरा क्यों नहीं?
जो बोझ सा लगे उस कार्य में कभी आनंद, संतोष एवं शांति नहीं मिलती।
जो होगा मेरा, नहीं लागे भारा
महात्मा गांधी को एक बार एक छोटी सी बालिका अपने छोटे भाई को गोद में लिए जाते हुए दिखी, गांधी जी ने उस बालिका से पूछा – “तुम्हे भाई को गोद में लेने से कष्ट नहीं हो रहा? इतना बोझ कैसे उठा लेती हो तुम?
उस समय बालिका का उत्तर अच्छों अच्छों को हतप्रभ कर देने वाला था, नसीहत देने वाला था – “वह मेरा भाई है, बोझ नहीं” बालिका ने कहा- हुआ मेरा, गया भारा
बिल्कुल सही है।
एक बार मनःपूर्वक ‘अभ्यास’ ‘मेरा’ हो जाए तब बाद की सभी चिंताए, समस्याएं, कष्ट, तनाव सभी दूर समाप्त! दूसरे किसी का समझकर अभ्यास करें तो उसमें आनंद, उत्साह, मजा नहीं रहता। किसी के कहने पर कार्य करने से वह चिड़चिड़ापन, बेमन से होता है। इस प्रकार किया हुआ अभ्यास भी आनंद दायी, प्रभावी, परिणाम कारी नहीं होगा! इसीलिए अध्ययन की ओर देखने की दृष्टि को बदलना होगा। दृष्टि बदलने पर सृष्टि बदलती है।
जो बालक अभ्यास ‘मेरा’ समझकर मन में पक्का निश्चय कर के अभ्यास करते हैं, उन्हें उसके प्रति आसक्ति, प्रेम निर्मित होता है। तब वह अधिक समय तक अध्ययन कर सकते हैं। अभ्यास में आलस नहीं आता, झंझट नहीं अनुभव होता। फिर कोई भी बाधा उन्हें रोक नहीं सकती।
हो गया अध्ययन मेरा, आने लगा मजा! चलो यही आनंद, मजा हम सभी अनुभव करे!!
(लेखक शिक्षाविद, स्वतंत्र लेखक, चिन्तक व विचारक है।)
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