स्वभाषा अर्थात् भारतीय भाषाओं के प्रति अपना स्वाभिमान जगाएँ

                                                                                                                        – डॉ. विकास दवे

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मालवी बोली में एक प्रसिद्ध कहावत है जिसका भाव है- “जो व्यक्ति अपनी माँ को माँ नहीं कह सकता वह पड़ोसन को मौसी कब कहेगा।” आज के युग में अंग्रेजी के पक्षधरों पर क्या यह कहावत पूरी-पूरी लागू नहीं होती? अपनी मातृभाषा हिन्दी के पक्ष में बहुत-सी सैद्धान्तिक बातें करने की तुलना में कुछ छोटे-छोटे उदाहरण हम आपस में बांटें तो यह विषय स्वतः अपना महत्व प्रतिपादित करता चला जाएगा।

भारत का एकमात्र साहित्यिक नोबल पुरस्कार गीतांजली पर श्री रविन्द्रनाथ टैगोर को प्राप्त हुआ है। आप जानते हैं न यह रचना मूलतः बांग्ला में लिखित है।

प्रख्यात साहित्यकार टी.एस. इलियट को उनकी जिस रचना पर नोबल पुरस्कार प्राप्त हुआ वह ‘वेस्टलेंड’ शीर्षक की कविता शांति विषय पर थी जिसकी अंतिम पंक्ति थी- “ॐ शांतिः शांतिः शांतिः”

16 जुलाई 1945 को अमेरिका ने विश्व का प्रथम परमाणु परीक्षण किया। वहां के परमाणु विज्ञान के जनक डॉ. जूलियस रॉबर्ट ओपेनहीमर ने अलमोगार्डो में पत्रकारों से चर्चा करते हुए परीक्षण के दृश्य को एक वाक्य में यह कहकर दर्शाया- “सूर्य कोटि समप्रभः।”

जॉर्जबुश ने कहा था – “हिन्दी अमेरिका की सुरक्षा से जुड़ी भाषा है। अमेरिका में इसकी अनिवार्यता हो गई है। यदि अमेरिकी नहीं चेते तो भारत के नौजवान अमेरिका की नौकरियों पर कब्जा कर लेंगे। स्थिति को समझ लो।”

क्या आप जानते हैं अंग्रेजी भाषा की मातृभूमि ब्रिटेन की लिंग्विस्टीक डेवलपमेंट अथॉरिटी के चेयरमेन कोई अंग्रेज नहीं केरल के प्राध्यापक नागप्पा हैं। उन्होंने वैश्विक भाषाई सम्मेलन के मंच से कहा था- “आप अपने सामने पृथ्वी का ग्लोब लाकर बैठें। उसे चाहे पूर्व से घुमाएँ या पश्चिम से, आप देखेंगे कि दुनिया के 110 देशों के विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई और सिखाई जा रही है। अब हिन्दी के राज्य में सूरज कभी नहीं डूबता।”

12 जुलाई 2007 को हिन्दू पुजारी राजन जेड को यू.एस. सीनेट का नवीन सत्र प्रारंभ करने के लिए बुलाया गया। जानते हैं उन्हें वैदिक मन्त्रों के पाठ के लिए बुलाया गया था।

चीन के पूर्व प्रधानमंत्री वेन जीआबाओ जब भारत यात्रा पर आए तो चीन के शासकीय पत्र ने आव्हान किया –

“ॐ सहनाववतु सहनो भुनक्तु सहवीर्यं करवावहै।”

6 सितम्बर 2003 को दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति थबो मबेकी ने डर्बन विश्वविद्यालय में आयोजित प्रेरणा व्याख्यान का प्रारंभ करते हुए कहा-

“संगच्छध्वं, संवदतध्वं संवोमनासी जानताम्

सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष में रहने का विश्व रिकॉर्ड बनाकर लौटी। पत्रकारों ने पूछा वे अंतरिक्ष में स्थिर मन कैसे रख पाईं? सुनीता ने कहा – “मैं अपने साथ गणेश जी की मूर्ति, श्रीमद्भगवद्गीता और अपने पिताजी के हाथ का लिखा एक हिन्दी का पत्र साथ ले गई थी। यही मुझे आत्मविश्वास देते थे।”

जनगणना के नवीन आंकड़े आपको चौंकाएं उससे पहले विगत पर दृष्टिपात करिए – 2001 में अंग्रेजी मातृभाषा केवल 0.02 प्रतिशत लोगों की थी अर्थात् 10 हजार में से मात्र 2 व्यक्ति। मजे की बात यह कि 1991 की जनगणना का आंकड़ा भी यही था। 1991 में भारत का एक भी राज्य ऐसा नहीं था जहां एक प्रतिशत लोग अंग्रेजी को मातृभाषा बताएं। वर्ष 2006 के एक शैक्षिक सर्वेक्षण में बताया गया था देश में 6 प्रतिशत बच्चे अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई कर रहे हैं।

चिन्ता की बात यह रही कि 2003 और 2006 के मध्य मात्र 3 वर्षों में भारतीय भाषा माध्यम के विद्यार्थी 24 प्रतिशत बढ़े जबकि अंग्रेजी माध्यम में यह वृद्धि थी 74 प्रतिशत।

नेशनल रीडरशीप सर्वे स्टडी 2006 के अनुसार 22.5 करोड़ पाठकों में से मात्र 2 करोड़  पाठक अंग्रेजी अखबार के हैं। देश के प्रथम दस बड़े अखबारों की सूची में मात्र एक अंग्रेजी अखबार है। शेष 9 भारतीय भाषाओं के हैं।

टेलीविजन के इस युग में अंग्रेजी के सभी चैनलों की कुल दर्शक संख्या हिन्दी के एक चेनल के दर्शकों से कम बैठती है।

पश्चिमी अमेरिका राज्य में एक जाति संस्कृत से मिलती जुलती भाषा में अपने विवाह संस्कार करती है। इण्डोनेशिया, मलेशिया और सिंगापुर की भाषाओं पर संस्कृत और हिन्दी का बड़ा प्रभाव है।

क्या आपको पता है महर्षि अरविन्द द्वारा स्थापित ‘विश्व संस्कृत प्रतिष्ठान’ का कार्य मूलतः फ्रासिसी शिष्या श्रीमाँ ही संभालती रही। बाद में काशी नरेश श्री विभूतिनारायण सिंह जब अध्यक्ष बने तब गुलाम दस्तगीर उपाध्यक्ष थे जो सदैव संस्कृत में ही बोलते थे।

स्वभाषा अर्थात् भारतीय भाषाओं के प्रति हमारा गैर स्वाभिमानी भाव कई अवसरों पर प्रकट होता रहा है। केन्द्र सरकार द्वारा आयोजित कालिदास जयंती के कार्यक्रम में हमारे मंत्रियों और अधिकारियों ने अंग्रेजी में उद्बोधन दिए। उसी कार्यक्रम में तत्कालीन अफगानिस्तान के राजदूत ने धाराप्रवाह संस्कृत में उद्बोधन दिया। आश्चर्य व्यक्त करने पर उन्होंने सहज ही कहा – “यहां हिन्दू मुसलमान का प्रश्न नहीं है। हमारी भाषा पश्तो है जो संस्कृत से उत्पन्न हुई है। हमें पश्तो का व्याकरण समझने के लिए संस्कृत अनिवार्यतः पढ़नी होती है। हमारे यहां 25-30 वर्षों से संस्कृत अनिवार्य भाषा है।”

हिटलर ने द्वितीय महायुद्ध के बहुत पहले ही जर्मनी में संस्कृत भाषा अनिवार्य कर दी थी। वह सदैव कहता था ‘जर्मन’ शब्द ‘शर्मन’ शब्द से बना है।

जर्मनी के रेडियो पर संस्कृत के कार्यक्रमों का प्रसारण होता है। क्या आप जानते हैं जर्मनी में संस्कृत का एक बड़ा विश्वविद्यालय है। उसकी वहां बड़ी ख्याति और प्रतिष्ठा है। स्वतंत्रता के बाद भारत के एक राजदूत जर्मनी में नियुक्त हुए। अपने बेटे को उसी वि.वि.में प्रवेश कराने गए। राजदूत महाशय अंग्रेजी में प्रश्न करते जर्मन अधिकारी संस्कृत में जवाब देते रहे। एक दुभाषिया अंग्रेजी अनुवाद करता जाता था। विदा करते समय जर्मन अधिकारी बोला- “गच्छतु आर्यः पुनरागनाय”। भारतीय राजदूत महोदय को यह जानकर बाद में आश्चर्य हुआ कि दुभाषिया जिसका अनुवाद कर रहा था वह संस्कृत थी।

इन समस्त उदाहरणों से हमें यह तो स्पष्ट पता लगता है कि स्वभाषा का गौरव समाप्त हो जाना केवल देश और संस्कृत से ही नहीं अपनी जड़ों से ही काट देता है। एक उदाहरण देकर अपनी बात समाप्त करता हूँ। जवाहर लाल नेहरू ने केम्ब्रिज छोड़कर आक्सफोर्ड जाने की इच्छा व्यक्त की। कारण बताते हुए उन्होंने अपने पिता को लिखा – “क्योंकि कैम्ब्रिज अब हिन्दुस्थानियों से भर गया है।” (पुस्तक ‘नेहरु’ लेखक – स्टैनसी बालपोर्ट, प्रकाशक ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस) जबकि नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने कटक का अंग्रेजी माध्यम स्कूल छोड़कर पिताजी से बांग्ला माध्यम के विद्यायल में प्रवेश कराने का आग्रह किया। दोनों राजनेताओं के शेष जीवन पर इस बात का कितना असर रहा यह सर्व विदित है।

क्या हम चाहेंगे कि अंग्रेजी माध्यम के ऐसे विद्वान हम तैयार करें जिन्हें ग्रीक इतिहास का थर्मोपायली का युद्ध तो पता हो लेकिन पावनखिण्ड दर्रा और उसके शौर्यपूर्ण युद्ध का नाम लेते ही वे कहे- “व्हाट इज दीज?” आईये समय रहते चेतें।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)

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