‘‘मैं अच्छा वैज्ञानिक इसलिए बना, क्योंकि मैंने गणित और विज्ञान की शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की । (धरमपेठ कॉलेज नागपुर)
– डॉ अब्दुल कलाम
भाषा, भेष, भोजन और भवन – ये चार मिलकर संस्कृति को एक पहचान देते हैं । किसी देश, समाज या जाति की विशिष्टता इन्हीं चार की देन है और इनमें भी भाषा सबसे महत्त्वपूर्ण है क्योंकि जहाँ बाकी तीन व्यक्ति के बाहरी जीवन को प्रभावित करते हैं, वहीं भाषा उसके भीतरी व्यक्तित्व को जन्म देती है, आकार देती है, पोषण देती है, और लगभग उसे अपने अस्तित्व का आधार देती है । आप भाषा के बिना विचार के होने की कल्पना ही नहीं कर सकते, और विचार ही वाणी व कर्म का रूप लेते हैं ।
अब प्रश्न यह उठता है कि कौन सी भाषा व्यक्ति के लिए सर्वश्रेष्ठ है? निर्विवाद रूप से उसकी अपनी भाषा – मातृभाषा । लेकिन मातृभाषा है क्या – इस पर भी तनिक विचार कर लेना यहाँ अति आवश्यक है । कोई भी तत्काल आपको बताएगा कि मातृभाषा – यानि हमारी माता की भाषा, वह भाषा जो माता से हमने ग्रहण की है, दूध के साथ ही । परिभाषा लगभग ठीक है, किन्तु पूर्ण नहीं । मातृभाषा हमारे मन की, हमारे विचारों की, हमारे मस्तिष्क की माता है, यानि मातृभाषा वह है जिसके माध्यम से हमारी चिंतन की धारा चलती है । सरल शब्दों में कहें तो मातृभाषा वह भाषा है जिसमें हम सोचते हैं । भारतेंदु हरिश्चंद्र ने मातृभाषा का महत्व बताया है-
निज भाषा उन्नति कहैं, सब उन्नति को मूल ।
बिनु निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल । ।
अंग्रेजी पढिके जदपि, सब गुन होत प्रबीन ।
पै निज भाषा ज्ञान बिन, रहत हीन के हीन । ।
विविध कला, शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार ।
सब देसन से लै करहु, निज भाषा माँहि प्रचार । ।
किसी भी राष्ट्र ने आज तक मातृभाषा का सहारा लिए बिना कभी भी उन्नति नहीं की है । जर्मनी के लोग जर्मन पर ही सारा बल देते हैं, रूसी लोग रूसी भाषा पर ज़ोर लगाते हैं, फ्रांसीसी फ्रेंच पर, चीनी लोग चीनी भाषा पर और जापानी लोग पूरा बल जापानी भाषा पर ही देते हैं । ये सारे देश अपने इतिहास के किसी न किसी दौर में अंग्रेजों के अधीन रह चुके हैं, लेकिन आत्मसम्मान की तीव्र भावना तथा उज्ज्वल राष्ट्रीय चेतना ने इन्हें अँग्रेजी के सामने समर्पण नहीं करने दिया । इससे यह बहाना निराधार हो जाता है कि भारत आदि देशों को अँग्रेजी का सहारा इसलिए लेना पड़ा क्योंकि ये देश अँग्रेजी साम्राज्य के आश्रित रहे हैं । कटु सत्य यह है कि हम लोगों में अपने देश, अपनी संस्कृति, अपने परम्पराओं व अपनी भाषा के प्रति गर्व व विश्वास का अभाव रहा है ।
जैसा कि भारतेंदु कहते हैं – विविध कला, शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार । सब देसन से लै करहु, निज भाषा माँहि प्रचार । । यानि सभी देशों की कला, शिक्षा व ज्ञान लेकर अपनी भाषा में उसे प्रसारित करना चाहिए, अनुवाद करना चाहिए । हम अँग्रेजी के विरुद्ध नहीं हैं । अंग्रेजों ने भी तो अन्य देशों के महान ग्रन्थों का अनुवाद करके ही अपनी भाषा की समृद्धि बढाई है । हमारे भी कुछ लोग अनुवाद का कष्ट उठा लें, और लाखों लोगों को उसका लाभ हो सके । यह कुतर्क भी दिया जाता है कि इतनी सारी विदेशी पुस्तकें हर वर्ष छपती हैं, कितना अनुवाद हो सकता है । प्रथम बात तो यह कि किसी भी विषय पर केवल कुछ सर्वोत्तम पुस्तकों का ही अनुवाद किया जाना चाहिए । विदेशी लोग ऐसा ही तो करते हैं । बहुत से गुणी लोगों को इससे रोजगार भी मिलेगा । यह लाखों बालकों को अरबों रुपए खर्च करके पंद्रह साल में केवल कामचलाऊ अँग्रेजी सिखा देने से कहीं अधिक सरल, सुगम, सस्ता व व्यवहारिक मार्ग है । सत्य यह भी है कि पंद्रह साल में बी॰ए॰ पास कर चुकने की बाद भी इन लाखों विद्यार्थियों में से केवल कुछ सौ ही शुद्ध अँग्रेजी में पंद्रह वाक्य लिख पाते हैं ।
यह भी कहा जाता है कि भारतीय भाषाएँ उतनी शक्ति नहीं रखतीं कि उनमें उच्चतम विज्ञान और तकनीकी के ग्रन्थों का अनुवाद हो सके । यह तर्क ठीक नहीं । विज्ञान और तकनीकी की शब्दावली का विकास विज्ञान और तकनीकी के विकास के ही समानांतर चलता है । जैसे अँग्रेजी, फ्रेंच आदि भाषाएँ प्राचीन ग्रीक और लैटिन से शब्द भंडार पाकर सुसमृद्ध होती रही है, उसी भांति हिन्दी, मराठी, बांग्ला भाषाएँ संस्कृत से शब्द भंडार ग्रहण करती हैं । यह सिद्ध है कि संस्कृत के सामने ग्रीक और लैटिन बचकानी भाषाएँ हैं । भारत के लोगों को गर्व होना चाहिए कि उनकी अनेक भाषाएँ संस्कृत का ही परिवर्तित रूप हैं ।
शिक्षा के व्यवसायीकरण ने भी हमारी भाषाओं पर कुठाराघात किया है, विद्यालय चकाचोंध दिखाने के लिए ऐसा आडंबर रचते हैं कि उनके यहाँ पढ़ने वाले बच्चे भारतीय भाषाओं में गिनती नहीं जानते । हमारे देशी महीने तो आज की पीढ़ी को विदेशी प्रतीत होने लगे हैं । इससे भी भयंकर बात यह कि ये विद्यालय बच्चे को जिस अँग्रेजी में प्रवीण बना देने का दम भरते हैं, उसमें भी वह केवल एक अच्छी प्रजाति के तोते की भांति केवल रट सकता है । आज हमारे बच्चे न हिन्दी ठीक से समझ सकते हैं और न अँग्रेजी । हमारे बालक अपनी मातृभाषा से काट दिए जाते हैं, और अँग्रेजी वे पकड़ नहीं पाते, ठीक उन पौधों की तरह जिन्हें किसी लापरवाह माली ने जड़ से उखाड़ कर सुखी भूमि पर फेंक दिया हो । और हम इतने निर्दयी हो गए हैं और आशा पालते हैं कि ये पौधे सुगंधित फूलों से लद जाएंगे ।
अगर आप सामान्य सा शोधकार्य कर लें तो बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगा की आज भारतीय बालकों को जो बिना समझे केवल रटने का महारोग लग गया है, उसकी एक मुख्य जड़ है – बालक अपनी सोचने की भाषा में नहीं पढ़ रहा है । उसके पढ़ने का उसके सोचने से संतुलन नहीं बैठ रहा । रटना उसकी विवशता बन जाती है, लेकिन हमारे महान शिक्षाविदों की बुद्धि में न जाने कब यह बात घुसेगी?
आप आज शिक्षा के सारे अंग मातृभाषा पर आधारित कर दें, फिर परिणाम देखें । न जाने कितने बालक तो इसी लिए पढ़ाई में नहीं चल पाते क्योंकि वे बिना समझे रट नहीं सकते । ध्यान रहे जो बिना समझे रट नहीं सकता वह बालक बुद्धू नहीं है, बल्कि उसमें रचनात्मकता होने की प्रबल संभावनाएं हैं । वही बालक कुछ नया रच सकता था, लेकिन हमें तो ऐसा तोता चाहिए जो अँग्रेजी पढ़कर उसे ज्यों-का-त्यों कागज पर उलेड़ डाले । उसे समझ क्या आया, उसे तय करने का तो अभी तक हमारी परीक्षा-प्रणाली एक पैमाना तक नहीं बना पाई है ।
तो क्या हम निराश होकर बैठ जाएँ कि कुछ नहीं किया जा सकता । बहुत कुछ किया जा सकता है और वह भी बहुत ही सहजता से । बालक की समझ का विकसित होना ही सबसे बड़ी बात है – यह प्रत्येक अभिभावक को मान लेना चाहिए । सबसे बड़ी समस्या भी अभिभावक ही खड़ी करते हैं । अभिभावक को तय कर लेना चाहिए कि बालक का हित ही सर्वोपरि है । केवल किसी की नकल करवाकर आप अपने बच्चे को किसी उन्नति के शिखर पर नहीं ले जा सकते । बल्कि निराशा और हीन भावना के दलदल में धकेल सकते हैं । आप यह बात तो बिलकुल मन से ही निकाल डालें कि अँग्रेजी में बात करने वाला बालक ही बुद्धिमान हो सकता है । हमारी अपनी भाषाएँ कोई कम नहीं हैं । महात्मा गांधी का कथन- “विदेशी माध्यम ने बच्चों की तंत्रिकाओं पर भार डाला है, उन्हें रट्टू बनाया है, वह सृजन के लायक नहीं रहे। विदेशीभाषा ने देशी भाषाओं के विकास को बाधित किया है ।” रविन्द्रनाथ ठाकुर ने कहा है, ‘‘ यदि विज्ञान को जन-सुलभ बनाना है तो मातृभाषा के माध्यम से विज्ञान की शिक्षा दी जानी चाहिए।’’
आप बच्चे के साथ अपनी भाषा में बात करें, उसे अपनी भाषा में लिखित पुस्तकें, पत्रिकाएँ लाकर दें, अपनी भाषा में गीत व कविताएं याद करवाएँ । उसे प्रोत्साहित करें । याद रहे कि बालक अँग्रेजी भी उतनी ही सीख पाएगा जितनी उसे अपनी भाषा आती है, जब हम बालक को वह सब अँग्रेजी में याद रखने के लिए विवश करते हैं जो उसे अपनी भाषा में नहीं आती, तो वहीं से वास्तव में बालक रटने की आदत पकड़ना शुरू करता है । इस प्रकार अपनी भाषा को महत्त्व देकर आप अपने बच्चे को इस रटने की यातना से भी बचा सकते है । इस भय को छोड़ दीजिए कि संसार आपकी भाषा के कारण आपको हीन समझेगा । आधा काम तो अभी इसी पल हो सकता है जब आप अपनी मातृभाषा को सम्मान की दृष्टि से देखना शुरू करते हैं और बाकी आधा काम संसार स्वयं कर देगा – आपकी मातृभाषा को सम्मान देकर ।
(लेखकविभिन्न भाषाओं के तज्ञ एवं सामाजिक कार्यकर्ता है)