– विकास दवे
हिन्दी साहित्य में पत्र लेखन विधा एक पुरानी और प्रचलित विधा है। कभी-कभी नन्हे-मुन्ने बड़ी प्रेरणा बन जाते हैं। इस पुस्तक की मूल प्रेरणा बनी मेरी प्रिय बेटी हर्षिता। वो जब छोटी सी थी तो देखती रहती थी उसके संपादक पापा के पास ढेर सारे पत्र आते थे और पापा जवाब भी देते थे। उसने बाल सुलभ प्रश्न किया- ‘पापा मुझे कोई पत्र क्यों नही मिलते? कोई मुझे क्यों नहीं लिखता? मैने भी सहज कहा- ‘मैं लिखुंगा ना तुमको पत्र। एक बात बताओ हर सप्ताह एक पत्र लिखुंगा तो उसमें लिखुंगा क्या? रोज-रोज तो हालचाल पूछ नहीं सकते और न ही बता सकते हैं।’
समाधान भी उसी ने दिया। कहा- “मुझे कहानियाँ बहुत अच्छी लगती हैं। आप कुछ ऐसे किस्से कहानियाँ और अन्य विचारणीय विषय मुझे लिख भेजा करना जो मेरे जीवनभर काम आ सकें।” सुझाव बढ़िया लगा और फिर शुरू हुआ क्रम चिट्ठी-पत्री का। पत्र लिखे जाते रहे, लिफाफे में विधिवत् रखकर बिटिया के नाम से उसे सौंपे जाते रहे। बिटिया उन पत्रों को पढ़कर विधिवत् उस पर चर्चाएँ भी करती थीं। सप्ताह भर चर्चा का विषय हमारा वह पत्र ही होता था। अब तो हर्षिता बड़ी भी हो गई पर मुझे लगा हम पिता-पुत्री के मध्य का यह पत्र व्यवहार तो सभी बच्चों के लिए उपयोगी हो सकता है। मैने इसकी पाण्डुलिपि तैयार कर सौंप दी म.प्र. संस्कृति परिषद् की हिन्दी साहित्य अकादमी को। अकादमी के निदेशक डॉ. उमेश सिंह जी की उदारता और स्नेह ही है कि इस पाण्डुलिपि को प्रकाशन हेतु स्वीकृति भी दी और अनुदान भी। उनके प्रति हृदय से कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।
बाल साहित्य क्षेत्र में शोध से वर्षों से जुड़ा होने के कारण मुझे यह भी लगता था कि हिन्दी साहित्य की पत्र लेखन विधा में बाल साहित्य अत्यल्प मात्रा में सुलभ होता है। यह आहूति उस यज्ञ हेतु भी दे रहा हूँ।
आत्मीय मित्र श्री राकेश सिंह सन्दर्भ प्रकाशन के माध्यम से मनोहारी पुस्तकें प्रकाशित करते रहे हैं। बाल साहित्य की भी कुछ पुस्तकें तो बहुत ही सुन्दर बन पड़ी हैं। मेरे समक्ष कोई विकल्प ही नहीं था उन्हें इस पाण्डुलिपि को सौंपने के अतिरिक्त। ‘पाती बिटिया के नाम’ आपके हाथों में है। इसके लिए मित्रवर राकेश जी के प्रति आभार। आकलन तो इसका पाठक ही करेंगे। यदि अच्छी लगे तो इतने सारे पत्रों के बदले एक पत्र तो मुझे लिखेंगे ही ना?
सस्नेह
डॉ. विकास दवे
सम्पादकीय सन्देश : इन पत्रों को ‘पाती बिटिया के नाम’ नाम से स्तम्भ के रूप में आपके सामने प्रस्तुत कर रहे है। यह स्तम्भ पाक्षिक रहेगा। आशा है ‘राष्ट्रीय शिक्षा’ के पाठकों के लिए यह स्तम्भ उपयोगी सिद्ध होगा।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
अपने बच्चों को तुकाराम ओम्बले की कहानियाँ सुनाना भारत! 26/11 विशेष