– दिलीप वसंत बेतकेकर
मैं शाला के कार्यालय में बैठा था। एक युवा युगल वहां आया। युवती जानी पहचानी थी। पति का नाम सुना हुआ था। परंतु वे प्रथम बार ही प्रत्यक्ष मिल रहे थे! दोनों ही उच्च शिक्षित और सेवारत थे। उन्होंने शाला के संबंध में पूछताछ की। उनके ढाई वर्ष आयु के पुत्र को बालवाड़ी में प्रवेश देना था। वर्तमान में वह एक अन्य शाला में जाता था। परंतु बालक चिंताग्रस्त दिखाई दिए। उनके अनुसार, बच्चे का अध्ययन प्रगति संतोषजनक नहीं था। कोई यदि अंग्रेजी में बात करता है तो वह घबरा जाता है, दूर रहने की कोशिश करता है। वे दोनों ही अपने बालक के संबंध में चर्चा करते रहे। उनकी बातचीत में बच्चे के प्रति चिंता स्पष्ट दिखाई दी।
मुझे भी दु:ख हुआ, परंतु उस बच्चे की अध्ययन प्रगति के संदर्भ में बुरा नहीं लगा! सुशिक्षित पालकों का शिक्षा संबंधी दृष्टिकोण अच्छा नहीं लगा! दु:ख हुआ! उनके उस बच्चे पर, जिसे मैंने देखा नहीं था, तरस आया। क्यों उस निष्पाप, छोटे से बालक पर, उसके सिर पर अभी से पढ़ाई का भार?
ढाई वर्ष की आयु पढ़ाई की नहीं होती है। जिस उम्र में बच्चों को खेलना, उछलकूद करना, गाने गाना चाहिए उस उम्र में उसे अध्ययन की उपेक्षा करना क्या उचित है? उनको केवल अंकों की गिनती, वर्णमाला का ज्ञान होना पर्याप्त है। कुछ पालक तो इतने छोटे बच्चों को ‘ट्यूशन’ लगाते हैं। ‘ट्यूशन’ नाम पर बच्चों का घर में होने वाला हंगामा, दंगामस्ती से छुटकारा पाकर मां की शांति का उद्देश्य भी होता है।
अनेक बच्चों के लिए “प्रॉब्लम चाइल्ड” शब्द सुना जाता है। परंतु पालक गण भी “प्रॉब्लम पालक” होते हैं ऐसा अनुभव होता जा रहा है ।
अनेक पालकगण स्वयं की इच्छाएं बच्चों पर लादते दिखाई देते हैं। प्रतिष्ठा की झूठी धारणाओं के चलते वे अपने पाल्य को डॉक्टर, इंजीनियर बनाने के इच्छुक होते हैं। यदि डॉक्टर, इंजीनियर नहीं बन पाए तो जीवन में अन्य कुछ करने को बचा ही नहीं ऐसी धारणा पालकगण रखते हैं। स्वयं की अपूर्ण इच्छा पूर्ण करने के लिए, वे बच्चों की दयनीय स्थिति के लिए जिम्मेदार होते हैं। बच्चों को समय विचार करने के लिए, उनके स्वयं के निर्णय लेने के लिए समय के अनुसार अपनी गति निर्धारित करने का अवसर ये “प्रॉब्लम पालक” नहीं देते हैं।
आशुतोष की आयु मात्र पांच वर्ष की है। आजकल वह तैरना सीखने के लिए जाता है। अभी-अभी शुरू किया है। दस-बारह दिन ही हुए हैं सीखते हुए। ठीक से तैरना आता भी नहीं! परसों उसकी मां आई थी यह देखने के लिए कि बालक कैसा तैरता है? किनारे पर बैठकर बच्चे को अनेक सूचनाएं देती रही कि ‘ऐसा कर’, ‘वैसा कर’, ‘उधर जा’, ‘घूमकर आ’, आदि। बालक बेचारा उन्हें किनारे से दूर रहने के लिए कहता रहा। किंतु पालक कहां सुनने वाले? वह तो बालक को पानी में कैसे हाथ चलाना, ये किनारे पर बैठकर बताए जा रही थी। यदि बालक नहीं सुने तो चिड़चिड़ाती! अब इस पर हंसे या रोएं, समझे में नहीं आता। अब इन्हें “प्रॉब्लम पालक” कहें अथवा नहीं ?
मोहन एक युवक है, आयु पच्चीस वर्ष! शासकीय सेवा में कार्यरत है। मां-बाप का इकलौता पुत्र होने के कारण अत्यंत सावधानीपूर्वक पाल पोसकर बड़ा किया। उसकी प्रत्येक गतिविधि पर पालकों की तीक्ष्ण नजर! अत्याधिक प्रेम और चिंता के कारण ही सही, ये एक निश्चित आयु तक तो उचित था। किंतु अब सेवारत होते हुए भी उसे कपड़े कैसे और कौन-से पहनने चाहिए आदि बातों में भी अपनी इच्छाएं थोपने के कारण वह पालकों से परेशान रहने लगा। अत्यधिक चिंता और प्रेम के कारण वे ऐसा व्यवहार करते हैं, ये बात मोहन समझ रहा था। इसलिए वह मन में ही घुटता, कुछ बोलने न पाता!
गीता दसवीं की परीक्षा दे रही है। वह प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण होगी ही, और इसलिए वह विज्ञान शाखा चुने ऐसा आग्रह उसके पालक कर रहे हैं, परंतु गीता को साहित्य में रुचि है और वह भाषा पढ़ना चाहती है। किंतु ‘बी.ए’ कर क्या करेगी? कहते हुए उसे ‘विज्ञान शाखा ही पढ़े’, ऐसा आग्रह कर रहे हैं, उसका ‘ब्रेन वाशिंग’ कर रहे हैं।
बी.ए उत्तीर्ण करने के पश्चात भी अनेक राहें प्रशस्त हो सकती हैं। पत्रकारिता, वकालत, मनोविज्ञान आदि विषयों में पर्याप्त “स्कोप” है। परंतु गीता के पालकों को यह बात रास नहीं आती । इस कारण दसवीं के परिणाम आने के पूर्व से ही गीता के घर का वातावरण गरमा रहा है। गीता के मां-बाप की जिद के कारण गीता को अपनी इच्छा को तिलांजलि देनी पड़ सकती है। स्वयं की इच्छा के विरुद्ध उसे विज्ञान शाखा का अध्ययन करना पड़ेगा। प्रयोगशाला में उसके हाथों में अनेक उपकरण अनचाहे ही दिखेंगे, प्रयोग भी वह करती रहेगी किंतु उसका मन उस प्रयोगशाला की खिड़की के बाहर दिखने वाले पंछियों के समान फड़फड़ाता रहेगा! गीता ग्यारहवी विज्ञान शाखा की परीक्षा उत्तीर्ण करेगी, अथवा अनुत्तीर्ण भी हो सकती है। यदि अनुत्तीर्ण हुई तो वह हतोत्साहित होगी और घर में चिड़चिड़ा माहौल रहेगा ।
ऐसे हैं ये “प्रॉब्लम पालक” के कुछ प्रकार! यह तो कुछ ही नमूने हैं। किंतु इसके अतिरिक्त भी अनेक प्रकार हैं। कुछ पालक तो बच्चों के बारे में अत्यधिक बेफिक्र होते हैं। विशेषकर ग्रामीण क्षेत्र में तो अपना पाल्य किस कक्षा में अध्ययन करता है, यह भी वे नहीं जानते। इसमें जरा-सी भी अतिशयोक्ति नहीं। केवल अशिक्षित पालक ही बेफिक्र होते हैं, ऐसा नहीं है। शिक्षित पालकगण भी बेफिक्र रहते दिखाई देते हैं।
“बच्चों को जरा-सा भी स्वातंत्र्य न देने वाले, बच्चों को हमारी इच्छानुसार व्यवहार करना चाहिए ऐसे सख्त अनुशासन वाले, हिटलर प्रवृत्ति के पालक जैसे अपने बच्चों के सर्वांगीण विकास में बाधक बनते हैं, अपनी अनचाही बोलचाल-व्यवहार से बाधा उत्पन्न करते हैं, उसके विपरीत स्वभाव वाले पालकगण भी अस्तित्व में है। बच्चों को स्वातंत्र्य मिले यह सही है, फिर भी स्वेच्छाचार-मनमानी में उस स्वातंत्र्य का रूपांतरण हो रहा है तो पालकों को इस ओर विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है।
बच्चों के प्रत्येक कार्य में दखल देना जैसा अनुचित है, उसी प्रकार बच्चों के मित्र कौन है, कैसे हैं, उनकी पसंद-नापसंद क्या है, बच्चे कहां जाते हैं, किस समय वापस लौटते हैं? इस ओर पूर्ण दूर्लक्ष्य करने के कारण भी उनके व्यक्तित्व का संतुलित विकास होने में बाधा उत्पन्न होती है। कुशलतापूर्वक ही बच्चों की गलतियां उनके ध्यान में लानी चाहिए। अनावश्यक रूप से लाड़ भी न हो और स्नेह जरा भी न दर्शाने की भूल न हो, ये बात पालकगण अवश्य समझें!
पाल्य “प्रॉब्लम चाइल्ड” न हो ऐसी इच्छा यदि पालकगण रखते हैं तो उन्हें स्वंय भी “प्रॉब्लम पेरेंट्स” तो हम नहीं बन रहे, इसका विचार करना चाहिए, सावधानी बरतनी चाहिए।
बालकों पर माता-पिता का साया तो सदैव रहता ही है। रहना भी चाहिए। परंतु यह साया यदि निरंतर बना रहा तो बच्चों के व्यक्तित्व का विकास बाधित होगा। इसलिए साया रखते हुए भी कभी-कभी आसपास की धूप का बच्चों को अनुभव करवाना आवश्यक है अन्यथा जैसे बड़े वृक्ष के नीचे रहने वाले छोटे वृक्ष पनपते नहीं उसी प्रकार निरंतर साया के कारण बच्चों का विकास बाधित होगा।
(लेखक शिक्षाविद् है और विद्या भारती अखिल भारतीय शिक्षा संस्थान के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष है।)