स्वतंत्रता के सात दीवाने

✍ गोपाल माहेश्वरी

राष्ट्रभक्ति जब छात्रशक्ति के हृदयों में फलने लगती है।

पर्वत सी हो विकट चुनौती पत्ते सी हिलने लगती है।।

स्वतंत्रता के आन्दोलनों में यौवन की देहरी तक पहुँचने के पहले ही जिन बालों और किशोरों ने अपना सर्वस्व होम कर दिया, ऐसे बाल क्रांतिकारी शहीदों की कथाएँ कहते हुए यदि यह कथा न कही तो कहीं न कहीं अपूर्ण रहेगा। यह कथा जानना इसलिए भी आवश्यक है कि इस संकलन में जो वीरगाथाएँ हैं, उनमें से अनेक में इस घटना का सन्दर्भ आया है। यह घटना कई अन्य छात्र क्रांतिकारियों की प्रेरणा बनी है। हाँ इतना अवश्य है कि इस बलिदानी समूह के कुछ छात्र तरुणाई की सीमा में प्रवेश कर चुके थे पर बलिदानों के मैदान पर समय की सीटी सुनकर आरंभ होने वाला यह सच्चा खेल आयुवर्ग छांट कर नहीं होता, गोलियाँ उम्र पूछ कर सीनों में नहीं धंसतीं। बताता चलूँ कि ये सभी दसवीं से बारहवीं कक्षा के छात्र थे और इनमें सम्मिलित एक छात्र इन सबसे छोटा था। 14 वर्ष का देवीपद चौधरी।

सचिवालय के सामने विशाल जनसमूह, जिनमें छात्रों की संस्था सर्वाधिक थी, अत्यन्त उत्साह से वन्देमातरम् का घोष कर रहा था। पटना (बिहार) का कलेक्टर था डब्ल्यू.जी. आर्चर। उसे भारतीय सैनिकों पर पूरा विश्वास न होने से गोरखा सिपाहियों की पलटन के साथ बन्दूकें ताने खड़ा था। उसने 11 अगस्त, 1942 को डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद को बीमारी की हालत में यहाँ गिरफ्तार करके भारतीयों के मन में, विशेषतः छात्र शक्ति के मन में विद्रोह की वह आग भड़का दी थी कि उस पर काबू पाना अंग्रेजी प्रशासन के लिए असंभव-सा हो गया था। यह छात्र समूह पटना के मेडिकल कॉलेज, सिटी कचहरी आदि पर तिरंगा लहरा कर सचिवालय पर झण्डा फहराने का अटल निर्णय लेकर यहाँ बढ़ रहे थे। सचिवालय पर झण्डा फहराना इस छात्र सेना की आन थी तो वहीं अंग्रेजी प्रशासन के मुँह पर तमाचा।

समुद्र में उठ रहे ज्वार की भांति वेगवान छात्र लहर के आगे अन्दर से स्वयं को बेबस समझते हुए भी आर्चर चिल्लाया “तुम लोग क्या करना चाहते हो?”

चौदह वर्ष का देवीपद सिंह की भाँति दहाड़ा – “झण्डा फहराना।”

तिलमिलाया कलेक्टर चीखा – “कौन फहराएगा?”

ग्यारह छात्र सीना ताने सामने आए मानो एकादश छात्रों के रूप में एकादश रुद्र ही साक्षात खड़े थे। देवीपद की तो अभी मूँछें भी नहीं फूटी थी।

उसे देख आर्चर चिढ़ गया, बोला “तू झण्डा फहराएगा? सीने में दम है?” देवीपद और आगे बढ़ आया। अपना कुर्त्ता फाड़ कर सीना सामने कर दिया। बोला, “देख लो बहुत दम है। वन्दे मातरम्।”

अपार जनसमूह ने दुहराया “वन्दे मातरम्”। अभी वन्देमातरम् की गूँज थमी भी न थी कि आर्चर का कर्कश स्वर गूंजा “फायर” सनसनाती गोलियाँ इस बालवीर के सीने में धंसती चली गईं। उसके साथ दस और छात्र भी निशाना बने। जनता गोलियों की बौछार में भी उनके शव सम्हालने ऐसे बढ़ी मानो अचानक आयी बरसात में बून्दों की चिंता किए बगैर हम अपनी कीमती चीज भीगने से बचाने बढ़ जाते हैं।

तभी सचिवालय के गुंबद से घोष गूंजा ‘वन्देमातरम्’। दोनों पक्षों की दृष्टियाँ उठीं सचिवालय पर एक दुबला-पतला छात्र उमाकांत प्रसाद सिंह जो अपनों में ‘रमनजी’ कहलाता था, शान से तिरंगा फहरा रहा था। नीचे से गोली चली। छात्र वीरगति को प्राप्त हुआ पर संकल्प पूरा हुआ। देवीपद के साथ शहीद हुए छात्र साथी थे – राजेन्द्र प्रसाद सिंह (सत्रह वर्ष, दसवीं कक्षा), सतीश प्रसाद झा (17 वर्ष, बारहवीं कक्षा), रामगोविन्द सिंह (सत्रह वर्ष, दसवीं कक्षा), उमाकांत प्रसाद सिंह (17 वर्ष, दसवीं कक्षा), रामानंद सिंह (19 वर्ष, दसवीं कक्षा) और जगपति सिंह (19 वर्ष, बारहवीं कक्षा)। सातों सिंह सपूत घटना स्थल पर ही बलिदान हुए। एक अन्य छात्र बाद में चिकित्सालय में दिवंगत हुआ। इनके बलिदान से प्रेरित सारे देश के छात्रों में सरकारी भवनों पर तिरंगा फहराकर अंग्रेजी शासन को चुनौती देने की होड़ सी लग चुकी थी, राष्ट्रभक्ति के लिए छात्रशक्ति का यह बलिदानोत्सव स्वतंत्रता के इतिहास में सदैव रक्तिम अक्षरों में लिखा रहेगा।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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