भारतीय ज्ञान का खजाना-20 (भारतीय स्थापत्य शास्त्र भाग – दो)

✍ प्रशांत पोळ

किसी भी वस्तु की वारंटी अथवा गारंटी का अनुमान, हम सामान्य लोग कितना लगा सकते हैं? एक वर्ष, दो वर्ष, पांच वर्ष या दस वर्ष? आजकल ‘लाइफ टाइम वारंटी’ बीस वर्ष की आती है। हमारी सोच इससे अधिक नहीं जाती। है ना? परन्तु निर्माण अथवा स्थापत्य क्षेत्र के प्राचीन भारतीय इंजीनियरों द्वारा तैयार की गई ईंटों की गारंटी है – 5000 वर्ष! जी हां पांच हजार वर्ष। और यह ईंटें हैं मोहन जो-दारो और हड़प्पा की खुदाई में मिली हुई प्राचीन भारतीय संस्कृति के अवशेषों में।

जिस समय भारत में 1857 के, पहले स्वतंत्रता संग्राम की तैयारियां चल रही थीं, उस कालखंड में भारत के उत्तर-पश्चिम दिशा में (अर्थात् वर्तमान पाकिस्तान में) अंग्रेज अपनी रेलवे लाईन बिछाने की दिशा में कार्यरत थे। लाहौर से मुल्तान तक की रेलवे लाईन बिछाने का काम ईस्ट इण्डिया कम्पनी की ओर से जारी था। इस काम के प्रमुख इंजीनियर थे ब्रुंटन बंधु, जॉन एवं विलियम ब्रुन्टन। इनके समक्ष एक बड़ी चुनौती यह थी कि रेलवे लाईन के नीचे बिछाने वाली गिट्टी कहां से लाएं?

कुछ गांव वालों ने उन्हें बताया कि, ब्रह्मानाबाद के पास एक पुरातन शहर है, जो अब खंडहर अवस्था में है। वहां से कई मजबूत ईंटे आपको मिल सकती हैं।

दोनों अंग्रेज भाई रेलवे इंजीनियर थे। उन्होंने उन अवशेषों से ईंटें खोज निकालीं। उन्हें बड़ी संख्या में ईंटें मिलीं। लाहौर से कराची के बीच में बिछाई गई लगभग 93 किलोमीटर की रेलवे लाईन इन्हीं ईंटों से बनाई गई है। इन दोनों अंग्रेज इंजीनियरों को पता ही नहीं चला कि वे अनायास ही एक प्राचीन एवं समृद्ध हड़प्पा के अवशेषों को नष्ट करते जा रहे हैं। आगे कई वर्षों तक इन ऐतिहासिक ईंटों ने लाहौर-मुल्तान रेलवे लाईन को सहारा दिया।

आधुनिक पद्धति की कार्बन डेटिंग से यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुका है कि मोहन जो-दारो, हड़प्पा, लोथल इत्यादि स्थानों पर खुदाई में मिली प्राचीन संस्कृति लगभग साढ़े सात हजार वर्ष पुरानी होनी चाहिए। यदि इन ईंटों को थोड़ा नया भी माना जाए, तब भी ये कम से कम पांच हजार वर्ष पुरानी हैं। अर्थात् लगभग 5000 वर्ष पुरानी ईंटें 1857 में प्राप्त होती हैं, तब भी वे मजबूत होती हैं तथा अगले 80-90 वर्षों तक रेलवे की पटरियों को संभालती भी हैं!!

क्या ऐसी ईंटें आज बनाई जा सकती हैं?

हड़प्पा से प्राप्त उपरोक्त ईंटें विशिष्टतापूर्ण हैं। इन्हें भट्टियों में तपाया गया है। साधारणतः 15 विभिन्न आकारों में यह ईंटें देखी जा सकती हैं। परन्तु इन सभी आकारों में एक समानता है – इन सभी ईंटों का अनुपात 4:2:1 ऐसा है। अर्थात् चार भाग लम्बाई, 2 भाग चौड़ाई तथा 1 भाग ऊंचाई (मोटाई)। इसका अर्थ यह है कि इन ईंटों का निर्माण अत्यंत वैज्ञानिक पद्धति से किया गया होगा। फिर ऐसे में प्रश्न निर्माण होता है कि लगभग पांच हजार वर्ष पहले निर्माण कार्य से सम्बन्धित यह उन्नत ज्ञान भारतीयों के पास कहां से आया? या भारतीयों ने ही इसकी खोज की थी?

इसका उत्तर हमें अपने प्राचीन संस्कृत ग्रंथों में मिलता है। तंत्र शास्त्र के कुछ ग्रन्थ आज भी वाचिक परंपरा के कारण उपलब्ध हैं। इन्हीं में से कपिल वात्स्यायन का एक ग्रन्थ है “मयमतम कला-मुला शास्त्रं” नाम का। इस ग्रन्थ में निर्माण कार्यों के बारे में अनेक बातें स्पष्ट की गई हैं। इसमें एक श्लोक है –

चतुष्पश्चषडष्टाभिमत्रिस्तध्दिव्दिगुणायतः।।

व्यासार्धार्धत्रिभागैकतीव्रा मध्ये परेsपरे।

इष्टका बहुशः शोष्याः समदग्धाः पुनश्च ताः।।

इसका अर्थ है – ‘इन ईटों की चौड़ाई चार, पांच, छः और आठ इन घटकों में रहेंगी, जबकि इनकी लम्बाई इसकी दोगुनी है। इनकी ऊंचाई (मोटाई) यह चौड़ाई से आधी अथवा एक तिहाई होनी चाहिए। इन ईंटों को पहले अच्छे से सुखाकर भट्टी में भून लेना चाहिए।’

इसका अर्थ स्पष्ट है। निर्माणकला का अत्यंत उन्नत एवं प्रगत ज्ञान, ज्ञात इतिहास के समय से ही भारत में मौजूद था और इसका बड़े ही शास्त्रीय और वैज्ञानिक पद्धति से उपयोग भी किया जाता था।

चलिए, अब हम एक थोड़ा नवीन उदाहरण देखें। विजयनगरम साम्राज्य के उत्तर कालखंड में अर्थात् सन 1583 में निर्माण किया गया ‘लेपाक्षी मंदिर’। ऐसा कहा जाता है कि जब रावण सीता का हरण करके ले जा रहा था, तब उसके साथ जटायु का संघर्ष हुआ। तब जटायु ने यहीं पर अपने प्राण त्यागे। बंगलौर से लगभग डेढ़ सौ किमी दूरी पर स्थित, परन्तु आंध्रप्रदेश के अनंतपुर जिले में स्थापित यह लेपाक्षी मंदिर अनेक अर्थों में विशिष्टताओं से भरा हुआ है। विजयनगर साम्राज्य के वीरन्ना और विरुपन्ना नाम के दो भाईयों ने इस मंदिर का निर्माण किया है। ये दोनों विजयनगर साम्राज्य के वीर सरदार थे। कूर्मशैल पठार अर्थात् कछुए की पीठ जैसी पहाड़ी पर बनाया गया यह मंदिर, श्री वीरभद्र का है। लगभग सवा पांच सौ वर्ष पुराना यह मंदिर एक अनोखे कारण के लिए प्रसिद्ध है। सत्तर स्तंभों पर आधारित इस मंदिर में एक स्तंभ है, जो हवा में झूल रहा है!

ज़ाहिर है कि वह प्रकट रूप में ऐसा दिखाई नहीं देता। दूर से देखने पर वह जमीन से टिका हुआ ही प्रतीत होता है। परन्तु उस पत्थर के खम्भे के नीचे से एक पतला कपड़ा आर-पार निकल जाता है। जब इस खम्भे को ऊपर से देखा, तो उसे पकड़कर रखने वाली कोई भी रचना वहां दिखाई नहीं देती है।

स्थापत्य शास्त्र के दिग्गजों एवं वैज्ञानिकों के लिए यह एक गूढ़ रहस्य ही है। यह स्तंभ बिना किसी आधार के झूलता हुआ कैसे टिका है, यह कोई भी नहीं बता पा रहा। जब अंग्रेजों का शासन था, तब एक अंग्रेज इंजीनियर ने इस खम्भे के साथ कई हरकतें करके देखीं, परन्तु वह भी इस अद्भुत रचना का रहस्य खोज नहीं पाया।

अर्थात् आज से लगभग सवा पांच सौ वर्ष पहले भी भारत का स्थापत्य शास्त्र अत्यंत उन्नत स्वरूप में उपलब्ध था। ऐसे ही कई निर्माण हमें भारत में अनेक स्थानों पर दिखाई देते हैं। प्रतापगढ़ और रायगढ़ किलों का निर्माण कार्य तो शिवाजी के कालखंड में हुआ था। अंग्रेजों द्वारा जानबूझकर इन किलों की दुर्गति करने के बावजूद, आज भी ये किले बुलंद स्वरूप में खड़े हैं।

आगे चलकर अंग्रेज अपनी सिविल इंजीनियरिंग लेकर भारत आए और स्थापत्य एवं निर्माण शास्त्र से सम्बन्धित जो भी बचे-खुचे थोड़े भारतीय ग्रन्थ थे, वे उपेक्षित हो कर रद्दी में चलते बने।

भारतीय शिल्प शास्त्र (अथवा स्थापत्य शास्त्र) के मुख्य रूप से अठारह संहिताकार माने जाते हैं। वे हैं – भृगु, अत्री, वशिष्ठ, विश्वकर्मा, मय, नारद, नग्नजीत, विशालाक्ष, पुरंदर, ब्रह्मा, कुमार, नंदिश, शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्ध, शुक्र एवं बृहस्पति। इन सभी द्वारा शिल्प शास्त्र पर स्वतन्त्र संहिता लिखी गई। इनमें से आज की तारीख में मय, विश्वकर्मा, भृगु, नारद एवं कुमार, यह केवल पांच ही संहिताएं उपलब्ध हैं। यदि अन्य सभी प्रकार की संहिताएं मिल जाएं, तो संभवतः लेपाक्षी मंदिर के झूलने वाले स्तंभ जैसे अनेक रहस्यों का खुलासा हो सकता है।

भारत में जिस समय उत्तर दिशा से मुसलमानों के आक्रमणों की तीव्रता बढ़ रही थी, उसी कालखंड में, अर्थात् ग्यारहवीं शताब्दी में, मालवा के राजा भोज ने ‘समरांगण सूत्रधार’ नामक ग्रन्थ संकलित किया था। इस ग्रन्थ में 83 अध्याय हैं। इसमें स्थापत्य कला एवं निर्माण शास्त्र से लेकर यंत्रों के विज्ञान तक, अनेक बातों का विस्तृत विवरण दिया गया है। यहां तक कि हाइड्रोलिक टर्बाइन चलाने की विधि का भी इसमें उल्लेख किया गया है –

धारा च जलभारश्च पायसो भ्रमणम तथा।

यथोच्छ्रायो यथाधिक्यम यथा निरन्ध्रतापिच।

एवमादिनी भूजस्य जलजानी प्रचक्षते।।

– अध्याय 31

अर्थात् ‘जलधारा किसी भी वस्तु को घुमा सकती है। यदि जलधारा को ऊंचाई से गिराया जाए, तो उसका प्रभाव अधिक तीव्र होता है, तथा इसकी गति एवं वस्तु के भार के अनुपात में वह वस्तु घूमती है।’

‘समरांगण सूत्रधार’ ग्रन्थ पर यूरोप में काफी काम किया गया है। परन्तु हमारे देश में इस बारे में उदासीनता ही दिखाई देती है। लगभग अस्सी वर्ष आयु के डॉक्टर प्रभाकर पांडुरंग आपटे ने इस ग्रन्थ का अंग्रेजी अनुवाद किया, तब कहीं जाकर पश्चिमी देशों की नजरें इस ग्रन्थ की पर पड़ीं।

कहने का तात्पर्य यह है कि स्थापत्य शास्त्र का यह प्रचंड ज्ञान आज रद्दी में पड़ा है। उसे बाहर लाना आवश्यक है। मंदिरों के स्थापत्य शास्त्र एवं मूर्तिकला जैसे विषयों पर हमारे पास रिस-रिसकर आने वाला साहित्य बड़े पैमाने पर उपलब्ध है। शिवशाहीर बाबा साहेब पुरंदरे के गुरु, प्रख्यात इतिहासविद ग.ह. खरे द्वारा लिखित ‘भारतीय मूर्तिविज्ञान’ नामक एक अद्भुत पुस्तक है। परन्तु वर्तमान में इन विषयों पर बहुत सा काम किया जाना आवश्यक है।

संक्षेप में बात यह है कि हजारों वर्ष पहले हमारे पूर्वजों द्वारा ग्रंथों में लिखे गए ज्ञान के द्वार खोजना एवं उन्हें सर्व साधारण के लिए खोलना, यही हमारा प्रयास होना चाहिए।

और पढ़ें : भारतीय ज्ञान का खजाना-19 (भारतीय स्थापत्य शास्त्र भाग – एक)

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