– रवि कुमार
‘पानी पूरी’ नाम सुनते ही मुंह में पानी आ जाता है। मारवाड़ के एक नगर के मोहल्ले के नुक्कड़ पर पानी पूरी का ठेला लगता है। मोहल्ले के सब लोग बच्चे-बड़े-जवान, महिला-पुरुष अपनी इच्छानुसार उस ठेले से पानी पूरी खाते हैं। पानी पूरी स्वादयुक्त होने के कारण नियमित रूप से बिक्री बढ़ ही रही है। अब आसपास के मोहल्ले के लोग भी आने लगे हैं। अलग-अलग स्थानों पर पानी पूरी को गोल-गप्पे, पानी-पतासे आदि भी कहते हैं।
एक दिन 12 वर्ष की कोमल ठेले के पास आकर खड़ी होती है। ठेले का निरीक्षण करती है और चली जाती है। ठेले वाले का विशेष ध्यान उसकी ओर नहीं जाता। ऐसा सामान्यतः नहीं होता कि ठेले वाले का अपने ग्राहक की ओर ध्यान न जाए।
कोमल अगले दिन, और उससे अगले दिन भी यही करती है और बिना पानी पूरी खाए चली जाती है। पहले दिन भीड़ अधिक थी, अगले दो दिन सामान्य भीड़ थी तो ठेले वाले का ध्यान कोमल की ओर गया। उसके मन में कुछ प्रश्न उठने लगे कि कोमल ऐसा क्यों कर रही है। पूर्व में तो ऐसा किसी व्यक्ति ने नहीं किया। फिर कोमल क्या व क्यों ऐसा कर रही है। अपनी जिज्ञासा शान्त करने के लिए ठेले वाला कोमल की प्रतीक्षा करता है। चौथे दिन कोमल ठेले पर नहीं आती। तब यह जिज्ञासा और बढ़ जाती है। फिर कोमल के आने की प्रतीक्षा…
पांचवें दिन जैसे ही कोमल ठेले पर आती है तो ठेले वाला तुरन्त प्रश्न पूछ लेता है, “कोमल! तुम आती हो और बिना पानी पूरी खाए ही चली जाती हो। ऐसा क्यों?” ‘ऐसा क्यों?’ में मानो बहुत प्रश्न ठेले वाले ने कोमल की ओर बढ़ा दिए हो।
कोमल कुछ कहती नहीं। पुनः निरीक्षण कर चली जाती है। अब जिज्ञासा अपने चरम पर..कल फिर पूछुंगा यह सोचकर ठेले वाला शेष ग्राहकों को पानी पूरी खिलाने लग जाता है।
छठवें दिन, कोमल के आने की प्रतीक्षा..। आज वह प्रतिदिन की बजाय थोड़ी देरी से आई। तब तक ग्राहक बहुत कम हो गए थे। ठेले वाले ने तुरन्त कोमल से पूछा “मेरे कल के प्रश्न पर तुम कुछ बोली नहीं।”
कोमल चुप्पी तोड़ती है और कहती है- “भैया, आपके ठेले पर पहले स्टील की कटोरी में पानी पूरी खिलाते थे। अब डिस्पोजल में क्यों खिलाते है।” 12 वर्ष की कोमल का यह मात्र प्रश्न नहीं था, बल्कि आज के समाज की वस्तु स्थिति है कि सब ओर डिस्पोजल का ही बोलबाला है।
एक ग्राहक तुरन्त बोला “आजकल तो सब जगह डिस्पोजल ही चलते हैं।” ठेले वाले ने उसकी हाँ में अपने स्वर में हाँ मिलाया। फिर कहा- “स्टील की कटोरी धोने की व्यवस्था भी अलग से करनी पड़ती है। डिस्पोजल में सुविधा है। धोने की जरूरत भी नहीं और उपयोग में सरलता भी।”
यह सुनकर कोमल ऊंचे स्वर में बोली “पर भैया, पर्यावरण का क्या होगा इससे! आपने कभी सोचा है?” यह कहकर कोमल ने बहुत बड़ा प्रश्न ठेले वाले व वहां खड़े ग्राहकों के सामने खड़ा कर दिया। अब इस प्रश्न का उत्तर कौन देवे।
पर्यावरण को सबसे अधिक हानि पहुंचाने का काम प्लास्टिक डिस्पोजल ने किया है। मानव जीवन की निर्भरता इस दानव रूपी तत्व पर बढ़ गई है। पर्यावरण के साथ साथ मानव स्वास्थ्य को यह दानव हानि पहुंचा रहा है। मानव शरीर में माइक्रो प्लास्टिक के कणों के रूप में यह दानव अनेक रोगों व बीमारियों का कारण बन रहा हैं।
उत्तर तो कोमल के इस प्रश्न का किसी ने नहीं दिया, पर उस मोहल्ले में लोगों ने अवश्य सोचना शुरू कर दिया कि डिस्पोजल के प्रयोग से पर्यावरण का क्या होगा!
और पढ़े : स्वदेशी का पथ
(लेखक विद्या भारती जोधपुर प्रान्त के संगठन मंत्री है।)
सहज,सरल भाव से बहुत कम शब्दों की कहानी से बहुत बड़ा संदेश।पर्यावरण की सुरक्षा में छोटे छोटे प्रयास बहुत महत्वपूर्ण परिणाम दे सकते हैं।आदरणीय रवि कुमार जी के चिंतन और लेखन को साधुवाद।
कम शब्दों में एक सुंदर कहानी पांच परिवर्तन के एक विषय पर बहुत सुंदर।