– चेतनानन्द
समाज की व्यवस्था नष्ट होने पर, उसके पथ भ्रष्ट होने पर किसी न किसी महापुरुष का आर्विभाव हुआ है, जिसने सभी विरोधों को शान्त कर मंगल वर्षा की। महाभारत के बाद भारत प्रत्येक क्षेत्र में अव्यस्थित हो गया था। तत्कालीन समाज में फैली आन्तरिक एवं बाह्य विश्रृंखलता के मध्य जब समाज में कोई आदर्श नहीं था। उच्च वर्ग विलासी हो गया था, दरिद्रता, अशिक्षा एवं रुग्णता के कारण अत्याचारियों के शिकार बन रहे थे।
वैरागी बन जाना साधारण बात थी –
“नारि मुई घर सम्पत्ति नासी। मूँड़ मुँड़ाय भये संन्यासी।।”
संत नामधारी साधु वेद-पुराण की निन्दा करते हुए अपने मत का प्रचार कर रहे थे। योगमार्गी अपने चमत्कारों से लोगों को भ्रमित एवं आतंकित कर रहे थे। अनेकों सम्प्रदायों का उदय हो चुका था। अत्याचारी मुस्लिम शासक अपनी धर्मान्धता में जनता को मुसलमान बनाने का प्रयास कर रहे थे। हिन्दुओं की रक्षा का कोई मार्ग नहीं था।
कबीर का हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रयास भी निष्फल हो गया था। सूफियों की प्रेम पीर एवं कृष्ण भक्त कवियों का मनमोहक और माधुर्य रुप भी कोई शक्तिशाली आदर्श न उपस्थित कर सका, ऐसे में तुलसी का अवतार हुआ –
संवत 1680 में जगा राजपुर का भाग
हुलसी ने तुलसी को जाया जो हिंदी के अमर सुहाग
तुलसीदास ने राम को सर्वशक्तिमान और सर्वगुण संपन्न के रूप में संसार के सामने रखा, वही जग के नियंता माने गए। भक्ति का प्रकाश देकर तुलसी ने जन मानस पर छाए अंधेरे को दूर किया। आदर्श रक्षक के रूप में राम की पुनः प्रतिष्ठा की। तुलसी ने शील एवं सौन्दर्य से समन्वित राम के आदर्श को प्रस्तुत करते हुए कहा –
जब जब होई धर्म की हानि बाढहि असुर अधम अभिमानी।
तब तब प्रभु धरी मनुज शरीरा हरहि कृपा निधि सज्जन पीरा।।
ब्राह्मण वंश में जन्मे तुलसी दरिद्रता पूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए, गृहस्थाश्रम की निकटता के शिकार हुए। अशिक्षित मनुष्यों से लेकर काशी के दिग्गज विद्वानों के सम्पर्क में रहकर भक्ति एवं ज्ञान का समन्वय, सगुण निर्गुण का समन्वय, गृहस्थ एवं संन्यास में समन्वय, भाषा एवं संस्कृत में समन्वय, शैव, शाक्त एवं वैष्णव में समन्वय, राम द्वारा शिव की उपासना –
“शिव द्रोही मम दास कहावा।
सो नर सपनेहूँ मोहि न भावा।”
उसके साथ ज्ञान, कर्म और भक्ति में भी अनुपम समन्वय स्थापित करते हुए “स्वान्तः सुखाय रघुनाथ गाथा” कहकर “रामचरित मानस” में अनेकता में एकता का प्रतिपादन किया, जो आज “परान्तः सुखाय” होकर जनमानस को एक आदर्श मार्ग दिखा रहा है।
गोस्वामी तुलसीदास सनातन धर्म के आचारों को मानने वाले थे। वर्णाश्रम धर्म का उन्होंने पूरा समर्थन किया है। उनकी मुख्य शिक्षा है जीवन का फल, श्री राम का भजन करना ही है। यदि भजन न किया गया तो जीवन व्यर्थ गया। भगवान पर उनका इतना दृढ़ विश्वास था।
गोस्वामी तुलसीदास मर्यादावादी, वेद, पुराण, शास्त्र, मूर्तिपूजा, तीर्थ, वर्ण व्यवस्था आदि में पूर्ण आस्था व्यक्त करते थे इसीलिए वे हिन्दू समाज में अधिक लोकप्रिय हुए। उन्होंने तत्कालीन समाज का परिष्कार ही नहीं किया बल्कि भविष्य के समाज की आधारशिला रखी भी। वे भविष्य दृष्टा एवं सृष्टा भी थे। वे कवि, भक्त, सुधारक, भविष्य सृष्टा और लोकनायक थे।
तुलसीदास की रचनाओं में भाव, विचार, काव्य रूप, छंद विवेचना और भाषा की विविधता मिलती है। उनकी रचना मुख्यतः दोहा और चौपाई छंद में हुई है। गीतावली, कृष्ण गीतावली, विनय पत्रिका दोहावली इनकी प्रमुख रचनाएं हैं। उनका ब्रज और अवधी दोनों भाषाओं पर साधारण अधिकार था। उन्होंने अपने छंदों में राम वन गमन, भरत की मनोदशा, राम के प्रति प्रेम, अयोध्या नगर के नगर वासियों का अत्यंत दुखी होना, माता कौशल्या के हृदय की विरह वेदना का बखूबी से वर्णन किया है।
जिस समय विद्वानों का मत था कि महाकाव्य केवल संस्कृत में लिखा जाना चाहिए, उस समय भी तुलसीदास जी यह जानते हुए भी उन्होंने अपना महाकाव्य हिंदी में लिखा कि बाद में वह लोगों के विरोध का विषय होगा। फिर भी उन्होंने जनसाधारण की भावना को समझकर अपनी भाषा पर विश्वास किया। अमृत के समान उनकी कविता जनसाधारण तक सुलभ हो सके ऐसा उन्होंने प्रयास किया। रामचरितमानस पवित्रता, सत्यता, आदर्श को प्रचारित करता है। ऐसे महापुरुष का 1680 में स्वर्गवास हो गया। एक अजर अमर आत्मा परमात्मा में विलीन हो गया –
विक्रम 1680 अस्सी गंग के तीर श्रावण शुक्ला सप्तमी तुलसी ताज्यों शरीर!
(लेखक आदर्श विद्या मंदिर उच्च माध्यमिक चौहटन जिला बाड़मेर के प्रधानाचार्य है।)
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