– अरुण मिश्र
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। अपने उदात्त जीवन मूल्यों और ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ जैसे आदर्शों के चलते समूचा विश्व इसकी महानता के सम्मुख नतमस्तक है। साहित्य के विविध रूपों में यह संस्कृतिक वैभव विद्यमान है।
हिन्दी साहित्य के इतिहास में भक्तिकाल को ‘स्वर्ण युग’ कहा जाता है। महाकवि गोस्वामी तुलसीदास इसी युग के रचनाकार हैं। राजनीतिक एवं सामाजिक दृष्टि से यह संकट और अत्याचार का समय था। सामान्य जन त्रस्त था –
जीविका विहीन लोग सिद्धमान, सोच बस
कहैं एक एकन सौं, कहाँ जाई का करी
विदेशी आक्रान्ताओं के अत्याचारों से पराभूत भारतीय मानस को तुलसी आस्था, आत्मविश्वास तथा रामराज्य की संजीवनी देकर उसमें नव चेतना का संचार करते हैं। तुलसीदास की यह रामकथा मध्यकाल के उस कठिन और दारुण समय में त्रस्त, तप्त और निराश हिन्दू हृदय को शीतलता प्रदान करती है।
तुलसीदास का जन्म श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी को माना जाता है। उनका जीवन अत्यंत संघर्ष पूर्ण रहा – चाहे वह बाह्य हो या आंतरिक संघर्ष बारे ते ललात, बिललात द्वार दीन जानत हौं चारि फल, चारि ही चनक को
उनके जीवन के विषय में अनेक दंत कथायें प्रसिद्ध हैं। महाकवि ने ‘नाना पुराण’ के अवगाहन से प्राप्त ज्ञान को जनभाषा के माध्यम से लोक को समर्पित किया। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। इस सन्दर्भ में उनका अवधी में रचना करना विशेष महत्व रखता है। ऐसी मान्यता है कि रामचरित मानस की रचना के पश्चात तुलसीदास का काशी के पंडितों से शास्त्रार्थ हुआ था।
गोस्वामी तुलसीदास ‘स्वांतः सुखाय’ काव्य रचना करते हैं किन्तु उसमे लोक मंगल और मानव के चारित्रिक उन्नयन की आकांक्षा सन्निहित है। तुलसीदास जी ने विपुल साहित्य सृजन किया है किन्तु उसमें सर्वत्र राम का ही वर्णन है – रावरो कहावों राम गुण गावों रावरेई । रामकथा मंगलकारी और अमंगल का हरण करने वाली है – मंगल भवन, अमंगल हारी । रामचरित मानस यदि श्रीराम के ‘दिव्य चरित’ का सागर है तो विनय पत्रिका – ‘आत्म निवेदन की पाती’ और ‘कवितावली’ राम कथा का संक्षिप्त रूप। उनकी रचनाओं का अनेक विदेशी और भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ है।
संस्कृति किसी भी राष्ट्र के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, वह उसकी अस्मिता का प्रतीक है। संस्कृति सामुहिक चेतना की अभिव्यक्ति है। दूसरे शब्दों में हम इसे राष्ट्र की आत्मा कह सकते हैं। समन्वय भारतीय संस्कृति की महती विशेषता है – इसमे अतिवाद के लिए स्थान नहीं है। ‘चरैवेति चरैवेति’ इसका गुण है। तभी तो अनेक सम्प्रदाय और दर्शन यहां एक साथ विद्यमान हैं। हम सत्य को अनेक आयामों से शोधते हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने इसी समन्वय भावना का उपयोग कर भव्य रामचरित मानस की कल्पना की। उन्होंनें युग बोध और जनसामान्य की मनःस्थिति को भांपकर रामकथा का निरूपण किया।
तुलसी के राम शील, सौंदर्य एवं शक्ति से समन्वित हैं। वे मर्यादा पुरुषोत्तम हैं जिनका उदात्त चरित्र आदर्श है। ऐसे त्यागी, मर्यादा पुरुषोत्तम और धर्म आचरण करने वाले चरित्र किसी भी युग की आकांक्षा है। धर्म किसी भी संस्कृति का प्रमुख तत्व है और तुलसी धर्म को परोपकार एवं सत्य की कसौटी पर कसते हैं – परहित सरिस धर्म नहीं भाई।
धरमू ना दोसर सत्य समाना – धर्म का यह वह रूप है जो सहज-सरल है और ज़न सामन्य के लिए सहज एवं ग्राह्य भी। श्रीराम के सभी कार्य मानवता के उत्थान और धर्म रक्षा हेतु ही हैं – निसिचर हीन करउ महि, भुज उठाई पन कीन्ह।
वैयक्तिक सुख, स्वार्थ और इच्छा के लिए वहां कोई स्थान नहीं है। अपने युग की विसंगतियों और मूल्य विघटन से तुलसीदास खिन्न थे। उन्होंने रामकथा के माध्यम से आदर्श समाज की परिकल्पना की –
नहिं दरिद्र कोउ, दुखी ना दीना नहिं कोउ अबूध, न लछन हीना
इस रामराज्य में व्यक्ति एवं समाज का आचरण सत्य, त्याग, प्रेम, मैत्री व परस्पर सहयोग पर आधारित है। इसमें प्रजातंत्र को बीज रूप में भी देखा जा सकता हैं जहां लोकमत का सम्मान होता है। तुलसीदास ने राजा के कर्तव्य को कितने सरल शब्दों में बताया है – “जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी” अर्थात् जिस राज्य में प्रजा को कष्ट हो ऐसा राजा नरक का भागी होगा।
तुलसीदास की भक्ति दास्य भाव की है। वे श्रीराम के शरणागत हैं। वे कहते हैं – “सेवक सेव्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि”। उनके प्रभु मात्र सात्विक भाव एवं निश्चल प्रेम से ही भक्तों का उद्धार कर देते हैं। तुलसी के युग में हिंदू धर्म के भीतर अनेक संप्रदाय प्रचलित थे – शैव, शाक्त एवं वैष्णव आदि। उनके अनुयायियों में स्पर्धा का भाव भी था। गोस्वामी जी ने राम और शिव को एक दूसरे का प्रिय बता कर इनके मध्य समन्वय स्थापित करने का स्तुत्य प्रयास किया। उन्होंने राम से कहलवाया – “शिव द्रोही, मम दास कहावा सो नर मोहि सपनेऊ नहिं भावा”। इसी प्रकार निर्गुण व सगुण मतावलबियों के बीच के मतभेद को भी उन्होंने ईश्वर एक है, बता कर दूर किया – सगुनहिं अगुनहीँ नहि कछु भेदा।
गोस्वामी जी व्यष्टि और समष्टि जीवन के सुचारू रूप से चलने के लिए वर्णाश्रम के आदर्श रूप के पक्षधर हैं। वहां भी गुणवान ही महत्वपूर्ण है, गुणहीन नहीं। रामचरित मानस में भी भील, किरात व वनवासी जन अपने आचरणगत शुचिता के कारण दिव्यता को प्राप्त करते हैं। सम्पूर्ण तुलसी साहित्य अनीति और अधर्म के विरुद्ध नीति एवं धर्म की विजय का उद्घोष है। राम और रावण का संघर्ष भी यही है। यह प्रवृत्तिगत है – यह सत्य व असत्य के मध्य है, वैयक्तिक नहीं है। रामकथा की सबसे बड़ी घटना राम रावण का संघर्ष यही है।
रावण सभी भौतिक सम्पदा के होते हुए भी धर्म के विरुद्ध है। वह रथ पर युद्ध करने आया है और राम ‘बीरथ’। य़ह देख विभीषण अधीर हो उठते हैं। उनमें राम के विजय के प्रति संशय होने लगता है। तब श्रीराम उन्हें ‘धर्ममय रथ’ को विस्तार से समझाते हैं। तुलसीदास इस प्रसंग के द्वारा एक विशेष संदेश देते हैं। रामचरित मानस में गोस्वामीजी ने अनेक आदर्श चरित्रों का सृजन किया है जिनका अनुकरण मनुष्य को देवत्व की ओर ले जा सकता है। अनुकरणीय पुत्र, राजा, पिता, पत्नी, भाई, सेवक, मित्र एवं भक्त।
अंतत: हम कह सकते हैं कि गोस्वामी तुलसीदास जी की रचनाओं में भारतीय संस्कृति के अनेक तत्व समाहित हैं। वे उदात्त भारतीय जीवन मूल्यों के कोष हैं। भारतीय संस्कृति का गौरव ग्रंथ ‘राम चरित मानस’ युगों युगों से लोक जीवन का कंठ हार है। ऐसे यशस्वी महाकवि गोस्वामी तुलसीदास को कोटि कोटि नमन।
(लेखक पी जी डी ए वी महाविद्यालय, दिल्ली में शिक्षक है)
और पढ़ें : बचपन से सिखाएं संयम और जीवन मूल्य