नेतृत्वकर्ता नारायण

 – गोपाल माहेश्वरी

स्वातन्त्रय लक्ष्मी के चरण कुंकुम नहीं शोणित धुले हैं।

अनगिनत बलिदान देकर माँ के ये बंधन खुले हैं।।

स्वतंत्रता हमें तब तक नहीं मिली, जब तक देश के बच्चे-बच्चे के मन में उसे पाने के लिए ‘कुछ भी करना पड़े, करेंगे’ का भाव प्रचण्ड रूप से नहीं जाग गया। सब कुछ खोकर भी स्वतंत्रता पाना सस्ता ही है, इस भावना से जब सारा देश तिरंगे के नीचे एकत्र होने का साहस जुटा पाया तो अंग्रेज़ जैसे धूर्त और शक्तिशाली शत्रु के पाँव भी भारतभूमि से उखड़ ही गए। यह वह दौर था जब अभिभावक अपने बच्चों को शाला की पढ़ाई से अधिक राष्ट्रीयता का पाठ पढ़ाने में तत्पर थे। सुबह-शाम घर-घर में राष्ट्रीय स्वातन्त्रय आन्दोलनों की चर्चाएँ होतीं। लोग अत्यावश्यक काम मानकर इन आन्दोलनों में सहभागी होते। माताएँ बच्चों को राष्ट्रनायकों के शौर्य व संघर्ष की वीर गाथाएँ सुनातीं। हर माँ सोचती उसका बच्चा फूल सा सुकुमार नहीं, वज्र और तलवार बने।

पुणे, महाराष्ट्र का एक ऐसा ही परिवार था। गृहस्वामी श्री विश्वनाथ दाभाड़े एक दृढ़ देशभक्त थे। उनका एक बालक था नारायण। लोरियों के साथ ही उसने वन्देमातरम् भी सुना था। बड़ा होने लगा तो घर के संस्कार विद्यालय में गुरुजनों के प्रोत्साहन से और प्रखर हो चले। विद्यालय के बच्चे मिलते तो वह उनके साथ भी देशभक्ति, बलिदान, स्वतंत्रता की ही बातें करता। अंग्रेज़ों के प्रति अत्यन्त क्रोध व घृणा थी उसके मन में, जिन्हें वह अपने सहपाठी मित्रों में भी बांटता रहता। उसका यह विचार-अभियान इतना फैला कि दस-बारह वर्ष का यह बच्चा अंग्रेज़ी प्रशासन की आँखों में खटकने लगा। वह नौवीं कक्षा में था तब ही अपने मित्रों के साथ ‘देश के लिए जीवन-देश लिए मृत्यु’ की शपथ ले चुका था।

1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन से अंग्रेज़ी सरकार का सिंहासन डोल रहा था। सारा देश उठ खड़ा हुआ था। गाँधी जी की गिरफ्तारी ने आग में घी का काम किया। आन्दोलन प्रचण्ड विद्रोह का रूप ले चुका था। आन्दोलन का प्रथम दिवस। पुणे के कांग्रेस कार्यालय पर जुलूस का नेतृत्व, यह बाल सत्याग्रही नारायण कर रहा था। उसके हाथों में तिरंगा गर्व से लहरा रहा था। सामने सशस्त्र सेना की टुकड़ी खड़ी थी पर देशभक्तों की अपार भीड़ आगे बढ़ने पर अड़ी थी। पुलिस की चेतावनी राष्ट्रभक्ति के नारों के आगे निष्पफल होती जा रही थी।

आगे वही कहानी दुहरायी गई। निशस्त्र नागरिकों पर पुलिस ने अंधाधुंध गोलियाँ दागीं। जनसमूह इतना था कि शायद ही कोई गोली खाली गई हो। पके फलों की भाँति टपाटप लाशें गिरती गईं। नारायण ने उछल कर एक सैनिक की बन्दूक छीन ली पर असंख्य बन्दूकों की नलियाँ निरन्तर आग उगल रही थीं।

नारायण दाभाड़े की छाती गोलियों से इतनी छेद दी गई कि सारी देह रक्त से नहा गई। वह साक्षात् भैरव लग रहा था। अत्यधिक खून बह गया तो प्राणों के पंछी अज्ञात लोक को उड़ चले। नारायण दाभाडे़ बाल बलिदानियों की यशस्वी सूची में अपना नाम लिखा कर सदा-सदा के लिए इतिहास का अमिट हस्ताक्षर बन गया।

(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)

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