– गोपाल माहेश्वरी
राष्ट्रभक्ति के महाज्वार में उतर चुके जलपोत बड़े थे,
तब कुछ नन्हे से नाविक भी ले नन्हीं पतवार लड़े थे।।
यह वह समय था जब स्वतंत्रता की दूसरी लड़ाई जोर-शोर से लड़ी जा रही थी। भारतमाता के जयकारे और अंग्रेज़ विरोधी नारे भारत के गाँवों में भी गूंज रहे थे। अंग्रेज़ सरकार बौखलाई हुई थी कि किस प्रकार इतनी व्यापक क्रांति को कुचल सके। कई छोटे-छोटे संगठन अपने अलग नामों से स्वतंत्रता के एक ही महालक्ष्य की साधना में जुटे थे। समाज का हर जाति-वर्ग, बच्चे, बूढ़े, जवान, नर-नारी अपनी-अपनी क्षमता से बढ़कर इस साधना में योगदान दे रहे थे।
उड़ीसा में ऐसा ही एक संगठन ‘प्रजामण्डल’ के नाम से सक्रिय था। उड़ीसा के नीलकंठपुर का वह एक कम आवाजाही का, पर ब्राह्मणी नदी के पार जाने का एकमात्र सुलभ सीधा घाट था। बाजीराउत अभी तेरह वर्ष का ही था पर नाविक का बेटा नाव तो चलाना जानता ही था।
10 अक्तूबर 1938 की ढलती शाम थी। ब्राह्मणी नदी की तरंगें और सुनसान घाट पर नाव में बैठे बाजी के बाल मन की तरंगें आपस में बातें कर रहीं थीं। वे बातें जिन्हें और कोई नहीं समझ सकता था। उसने अभी-अभी पिता हरि राउत को भोजन करने घर भेज दिया था क्योंकि वे ‘प्रजामण्डल’ के सदस्य थे और काफी रात गए तक घाट पर रुके चौकन्नी दृष्टि रखते थे। गांव में पहुंचने का यही मार्ग था। तभी दूसरे किनारे उसे दूर कुछ हलचल दिखी जैसे कुछ लोग जल्दी-जल्दी चले आ रहे हों। बाजी सतर्क हुआ। ध्यान दिया कि यह तो साधारण लोगों के चलने की आवाज से अलग है। वह बूटों की आवाज को पहचान रहा था। शाम के धुंधलके में भी कुछ लोग स्पष्ट होते गए। वे ग्रामीण लोग नहीं पुलिस थी, पुलिस।
“अरे! ये हमारे गाँव में क्यों आ रहे हैं।” उसने सोचा। पुलिस का आना अर्थात् धर-पकड़, मारपीट, लूटपाट व गालियों की बौछारों का पर्याय बन चुका था। इसे तो बच्चे भी समझते थे।
“मैं इन्हें नदी ही पार न करने दूँगा।” वह अपनी नाव को थोड़ा और पानी में धकेल कर मुंह फेर कर खड़ा हो गया मानो न उसने उन्हें देखा न वह नाव से कोई सम्बन्ध रखता है।
“ए लड़के! नाव किनारे लाओ। हमें नदी पार जाना है।” एक सिपाही की रौबीली आवाज़ ने उस शांत संध्या को कर्कशता से भंग किया।
बाजी ने ऐसा दर्शाया मानो वह बात उसके लिए है ही नहीं था जैसे उसने वुफछ सुना ही नहीं।
एक पुलिसवाला पानी में उतरा। शायद उन्हें बहुत जल्दी थी और घुटनों तक पानी में खडे़ बाजी की बांह जोर से पकड़कर बोला, “क्यों रे! बहरा है क्या? उठा पतवार और हमें ले चल उस पार।”
बाजी का बस चलता तो इन सबको नदी में ही डुबो देता पर वह अकेला था। फिर भी वह बाँह छुड़ाकर नाव पर चढ़कर दूर जा छिटका। सिपाही तमतमा उठा। गुस्से से उसने अपनी बन्दूक के बट (पिछले भाग) से उसके सिर पर वार करना चाहा पर तब तक इस नन्हें वीर ने अपनी पतवार का वार कर दिया। सिपाही ने तो पतवार हाथ से थाम कर वार बचाया किन्तु क्रूर प्रहारों के अभ्यस्त हाथ से चला बन्दूक का बट बाजी के सिर पर पड़ा। वह चकरा कर गिरा कि उस नर पिशाच ने नन्हें से बालक पर असंख्य प्रहार कर डाले।
चीख-चिल्लाहट और शोर सुनकर गाँव वाले इकट्ठा हो गए। वे बालक को सम्हालने नाव की ओर बढ़े पर पुलिस बल की गोलियों से अनेक ने प्राण गँवा दिए। रक्त से नदी लाल हो गई। सूर्य देवता शायद यह देख भी न पा रहे थे, उन्होंने भी आँखें मूंद ली। उन्होंने सुबह ही देखा होगा कि भारत की स्वतंत्रता का यह छोटा सा सिपाही अब यह दुनिया छोड़ चुका है।
देश के लिए त्यागे गए प्राण मिटते नहीं, अमर हो जाते हैं। तभी तो इस नन्हें नाविक की गाथा आज भी उड़ीसा के लोग अपने लोकगीतों में गाते हैं।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)
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