✍ गोपाल माहेश्वरी
रघु और मधु दोनों गहरे मित्र संध्या समय कालोनी के बगीचे में बैठे थे। मंद शीतल पवन में वृक्ष और पौधे आनंद से झूम रहे थे। पक्षी घोंसले में लौटते हुए चहचहा रहे थे। लेकिन रघु और मधु के मन इस सुरम्य वातावरण में भी शांत नहीं थे। उनके मन में अपने भविष्य की योजनाओं के विषय में सशक्त बवंडर उठ रहे थे। दोनों विज्ञान के असाधारण प्रतिभाशाली छात्र थे। विद्यालय की परीक्षाओं में उनका परिणाम सर्वश्रेष्ठ रहने में किसी को शंका न थी पर यही बात उनके लिए अनिश्चय का कारण बन रही थी। ‘आगे क्या?’ वे इसी बिंदु पर गहरे द्वंद्व में डूबे थे कि तभी उनके साथ पढ़ने वाले संगीता, संस्कृति और सक्षम भी आ पहुँचे। संगीता की वाद्य संगीत में गहरी पकड़ थी जब वह विद्यालय के मंच पर श्वेत साड़ी पहने वीणा वादन करती तो मानो साक्षात् सरस्वती ही अवतरित हो ऐसा लगता था जबकि संस्कृति ने संस्कृत और हिन्दी में इतनी दक्षता प्राप्त कर ली थी कि दोनों भाषाओं में उत्कृष्ट साहित्य रचने लगी थी। उसके शिक्षकगण उसे छोटी महादेवी कह कर बुलाते। सक्षम का विषय अलग-सा था वह वाणिज्य संकाय का अत्यंत प्रतिभाशाली छात्र था। इनका अपने अपने विषयों में विशेष योग्य होना ही इनकी आपसी मित्रता का कारण था।
अभी समस्या यह नहीं थी कि वे आगे किस किस विश्वविद्यालय के कौन-से महाविद्यालय में प्रवेश लें। लगभग शत प्रतिशत अंक आना सुनिश्चित था, घर-परिवार और शिक्षकों से प्रोत्साहन की कोई कमी ही नहीं। आर्थिक कारण भी न था क्योंकि वे सब छात्रवृत्तियाँ पाने के पात्र थे।
“पर उच्चशिक्षा के बाद आखिर क्या?” रघु ने मित्रों को पास बैठाते हुए कहा। बैंच छोटी थी इसलिए वे नीचे घास पर बैठ गए। “ओह! तो तुम भी यही सोच रहे हो जो अभी हम भी सोचते आ रहे थे!” संगीता ने कहा। “हाँ, अभी भी यदि नहीं सोचा तो शायद सही रास्ता ही न मिले।” मधु का स्वर चिंता भरा था। “किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में नौकरी और क्या? घरवाले तो यही कह रहे हैं।” सक्षम ने कहा। “और मेरी तो गुपचुप गुपचुप विवाह की चर्चाएँ छिड़ने लगी हैं भाई!” संगीता का स्वर काँप- सा उठा था। “अभी से!” रघु बोला।
“दादी की इच्छा है पोती के कन्यादान का पुण्य कमाना है।” संगीता मानो चिढ़ रही थी। संस्कृति ने उसका तनाव दूर करने की मंशा से विनोद किया- “वाह! वीणा-मृदंग वादन की शिक्षा पाने वाली हमारी यह सरस्वती गृहस्थी की सितार बजाएगी अब!” लेकिन कोई हँस न पाया। संगीता बोली- “तुम्हारी सरस्वती देवी सरस्वती नहीं सरस्वती बाई बन कर रह जाएगी ऐसे तो।” “और मुझे तो सीए बनकर दूसरों का हिसाब किताब जाँचते रहने का ही आदेश है।” सक्षम बोला।
इतने प्रतिभाशाली किशोरों का मन पश्चिम के सूर्य की तरह बुझा-बुझा सा डूबता जा रहा था।
तभी उन्होंने देखा एक धोतीकुर्ताधारी, सफेद दाढ़ी-मूँछों वाले सज्जन जो थोड़ी दूर पर एक बैंच पर बैठे थे, उनके पास आ कर ठिठक गए। संस्कारवश इन किशोरों ने नमस्ते की, उन्होंने अभिवादन स्वीकार किया।
“क्या मैं तुम लोगों के साथ बैठ जाऊँ?” उनका यह प्रस्ताव अटपटा लगा था पर उन सज्जन की वाणी में ऐसा आकर्षण था कि औचित्य समझते हुए भी इस मंडली ने उनके लिए स्थान बना दिया। वैसे भी शाम होने को थी और उनकी आपसी चर्चा किसी सकारात्मक दिशा में तो बढ़ नहीं पा रही थी, इसलिए ये दादाजी जैसे सज्जन भी कुछ उपदेश देंगे या अपनी कहानी कहेंगे और क्या? थोड़ी इनकी भी सुन लेंगे कुछ विषय तो बदलेगा इसी विचार ने सबको धैर्य प्रदान किया।
“क्षमा करना बच्चो! पर मुझे तुम लोगों की बात सुनाई पड़ रही थी इससे अपने को रोक नहीं पाया।” उन सज्जन की आँखों से जैसे कोई अदृश्य चुंबकीय किरणें निकल रही हों, बच्चों का मन आकर्षित हुए बिना न रह सका।
“क्यों किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी को अपनी प्रतिभा बेचना? क्यों विदेश जाना?” उन्होंने पूछा। “क्योंकि माता पिता चाहते हैं।” मधु बोला पर उसे अपने ही उत्तर से संतोष न था। “सब चाहतें हैं हम खूब धन कमाएँ, बड़ा पैकेज मिले।” संक्षम ने जोड़ा। “वे चाहते हैं बड़ा नाम हो, रौब हो, सम्मान हो।” रघु बोला। “हमें अच्छा घरबार मिले।” संगीता इस अच्छी लगने जैसी बात से भी प्रसन्न न लगी।
“मुझे तो दादाजी! कहीं न कहीं प्रोफेसर बन जाने की संभावना ही लगती है। बस।” संस्कृति का स्वर बुझाबुझा सा था लेकिन अनायास ही बच्चों ने उन सज्जन के लिए एक संबोधन चुन लिया था ‘दादाजी’!
उन सज्जन ने मुस्कुराते हुए इस संबंधयोजक संबोधन को स्वीकार भी लिया। फिर वे बोले “बच्चो! अपने अनुभव की कहता हूँ। माता-पिता चाहते हैं यह ठीक है। उनकी इच्छाओं को आज्ञा या कर्तव्य मानकर पूरा करना ही चाहिए। गुरु पितु मातु स्वामि हित बानी। सुनि मन मुदित करिअ भलि जानी।।”
“तुलसीदास जी, राचरितमानस अयोध्या काण्ड दोहा 176 के बाद?” संस्कृति ने तपाक् से चौपाई का संदर्भ बता दिया।
दादाजी प्रसन्न हुए। उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोले “शाबास बेटी! लेकिन जन्म देने वाले माता-पिता के अतिरिक्त भी एक माँ है न हमारी?” धरती की घास को उन्होंने ऐसे छुआ मानो किन्हीं पवित्र चरणों को छू रहे हो “यह भारत माता, यह भी तो हम सबकी माँ है और वह परमपिता जिसने हमें इस माँ की गोद में डाला, हमें इतनी प्रतिभा, विद्या, बुद्धि, स्वस्थ शरीर, अच्छा मन सब दिए।” बच्चे मन्त्रमुग्ध हो कर सुनने लगे।
दादा जी आगे कहने लगे- “अपने इन माता पिता के मन की भी तो समझो। जन्म देने वाले माता-पिता को भी इस ओर ध्यान दिलाओ। आवश्यक लगे तो अच्छी बात के लिए जिद्द भी करो। अरे! भारत माता के सपने भी तो जानो। उन्हें कौन पूरा करेगा सब प्रतिभाएँ विदेश भाग जाएँगी या नौकर बन जाएँगी तो?”
“तो हम क्या करें?” मधु ने गहरे स्वर में पूछा। “नौकरी, पैसा, घर गृहस्थी, नाम, सम्मान केवल इन सब के लिए तो भगवान ने हमें इतना प्रतिभाशाली न बनाया होगा?” “हमें घर गृहस्थी नहीं बसाना चाहिए, आप यह कहना चाहते हैं?” संगीता ने पूछा।
“नहीं, कोई घर-गृहस्थी न बसाता तो यह समाज ही न बन पाता, लेकिन घर-गृहस्थी के बहाने अपनी समस्त प्रतिभा को पूर्णविराम लगाना या लग जाएगा ऐसा मानना स्वयं के साथ भी अन्याय होगा न?”
समझ नहीं आ रहा था ये दादा जी धार्मिक व्यक्ति थे, तर्कशास्त्री, क्रांतिकारी या दार्शनिक या और ही कुछ? रघु ने यह बात पूछ ही ली। “एक भारतीय हूँ बस।” संक्षिप्त उत्तर मिला। “दादाजी! आप स्पष्ट बताइए कहना क्या चाहते हैं?” सक्षम ने जानना चाहा।
“मैं चाहता हूँ तुम न नौकर बनो, न विदेशों या विदेशी कंपनियों की ओर भागो, न घर-गृहस्थी का भार ढोने वाले मनुष्य-से दिखनेवाले बैल बन कर जियो।” “तो पढ़ाई-लिखाई का क्या अचार डालेंगे दादा जी! “तीखी बात भी मीठे स्वर में कह उठा मधु। “ना, बिल्कुल नहीं। अचार बनाकर सड़ाओ-गलाओ नहीं, खटास न बढ़ाओ बल्कि अपनी प्रतिभा को अमृत बनाओ।” उत्तर मिला। “और वह कैसे?” संस्कृति ने पूछा।
“ वैज्ञानिक बनो।” वे बोले।
संस्कृति और संगीता खिलखिला उठीं “दादा जी! हम दोनों तो कला और साहित्य की छात्राएँ हैं, विज्ञान की नहीं।” संस्कृति ने व्यंग्य की हल्की छाया वाला प्रतिउत्तर दिया। “और यह सक्षम महाशय भी विज्ञान में अक्षम हैं।” संगीता की बात पर सबके मुख पर मुस्कान बिखर गई पर अगले ही पल रघु चौंका। ‘हम हँसे वह तो समझ आता है पर दादाजी भी हँस रहे हैं! क्यों?’
दादा जी ने उसका भाव पढ़ लिया और उसकी ओर अंगुली दिखाते हुए बोले “मैं क्यों हँसा यही पूछना है न?” रघु सकपका गया। वे बोले “आप और मैं एक दूसरे को अज्ञानी समझ कर हँसे।”
“ अज्ञानी!”
“हाँ, भावी विज्ञानी।”
“जैसे सारे विषयों में ज्ञान होता है, भाषा उसको अभिव्यक्ति देती है ऐसे ही सबमें विज्ञान भी होता ही है। कला, संगीत, साहित्य, वाणिज्य आदि जीवन का हर विषय विज्ञानमय भी है।” पलभर रुके, दाढ़ी पर हाथ फेरा फिर पूछ बैठे “अच्छा बताओ विज्ञान की सामान्य परिभाषा क्या है?”
उत्तर मधु ने दिया “किसी भी क्रमबद्ध और व्यवस्थित ज्ञान को विज्ञान कहते हैं।”
“यही तो, यही मैं बताना चाहता हूँ। किसी भी, किसी भी यानि सभी ज्ञान का व्यवस्थित होना विज्ञान ही है। इसीलिए बुद्धि के प्रधान देवता गणपति के लिए अथर्वशीर्ष कहता है- ‘त्वं ज्ञानमयो असि। विज्ञानमयो असि।’ क्यों भाई सक्षम! गणेश जी तो गणना यानि आँकड़ों के भी देवता हैं न? दीवाली पर लक्ष्मी पूजा में गणेश जी और सरस्वती जी भी साथ साथ पूजते हो न? क्यों वीणावादिनी संगीता बेटी!” सब चुपचाप विचारों में खो गए।
“आप हो कौन? कभी धर्मशास्त्र की बात करते हैं कभी विज्ञान की!” सक्षम ने आश्चर्य से पूछा।
“हिन्दू हूँ। मेरे लिए धार्मिक होना और वैज्ञानिक होना अलग बातें नहीं। क्योंकि मेरा धर्म वैज्ञानिक है और विज्ञान ही मेरा धर्म।” वे हँस दिए।
“हम हारे आप जीते” पाँचों ने हाथ जोड़ लिए “साफ साफ बताएँ आप कौन हैं?” “बच्चो! मैं भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान केन्द्र का एक सेवानिवृत्त वैज्ञानिक हूँ।” दादा जी ने फिर चौंकाया। सब उनकी वेशभूषा देख रहे थे।
दादाजी समझ गए, बोले “क्यों? वैज्ञानिक को कोट-पैंट, सूट-टाई में ही होना चाहिए? धोती-कुर्ते में विज्ञान मर जाता है क्या? भाई मेरे भारत के पुराने सभी वैज्ञानिक तो ऋषि मुनि ही थे। भारतीय वेशभूषा जटाजूट तिलक मालाधारी।”
संस्कृति बोल पड़ी “आपका मतलब है कणाद, सुश्रुत, वराहमिहिर, भरद्वाज, नागार्जुन आदि।”
“और शुक्राचार्य, बृहस्पति, विश्वकर्मा, भरतमुनि से लगाकर गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा भी और पाणिनी, पतंजलि, चाणक्य भी, अनेक नाम है सबने अपनी अपनी विशेषज्ञता के विषयों का ज्ञान, परंपरा और अनुसंधान से समृद्ध कर जीवन को सुंदर, आनंदमय और सार्थक बनाने के लिए उसे व्यवस्थित किया, वैज्ञानिक बनाया तो मेरी दृष्टि से ये सब वैज्ञानिक भी थे ही।”
“तो कला, वाणिज्य, कृषि, विज्ञान सब अलग अलग संकाय क्यों?” रघु ने पूछ लिया।
“अभारतीय शिक्षा व्यवस्था के कारण। जो भारतीय नहीं थे वे क्यों चाहते कि हम पूर्णता प्राप्त करें, इसलिए ज्ञान विज्ञान के ऐसे विभाजन कर दिए गए कि सब बहुत पढ़कर भी अधूरे ही रहे। भारतीय ज्ञान परंपरा संपूर्णता की साधक है विशेषज्ञता का विरोध नहीं पर संपूर्णता की क्षति करने वाली सिद्ध हो ऐसी विषयगत की अस्पृश्यता स्वयं में ही अवैज्ञानिक अवधारणा है।” सब मुग्ध थे इतने बड़े वैज्ञानिक की भाषा कितनी शुद्ध कितनी स्वदेशी!! दादा जी बोलते रहे “जैसे किसी को दाल, किसी को भात, किसी को रोटी और किसी को सब्जी बनाना ही याद है भले ही बहुत विशेषज्ञता के साथ पर वे विशेषज्ञ होकर भी सामान्य अज्ञानी हैं। वे तब तक भूखे रहेंगे और भूखा रखेंगे भी, जब तक उन्हें कोई मिलाने की ठेकेदारी न करे जैसे बड़ी कंपनियाँ करती हैं। यही विदेशी आक्रांताओं की युक्ति थी। इसीलिए कहता हूँ तुम सब वैज्ञानिक बनो, भारतवर्ष अमृतकाल से गुजर रहा है। अपनी प्रतिभाओं का अचार बनाकर विदेशी कंपनियों के पैकेजों में मत भरो। पूर्वजों की संपूर्ण बनने वाली वैज्ञानिकता को खोजो, जानो और आगे बढ़ाओ। अमृत निर्माण करो। बिको मत, बनाओ।”
शाम का सूरज तो डूबा पर बातों ही बातों में पूर्णिमा का चंद्रमा अपनी अमृत किरणों से सारा अंधेरा धो रहा था।
“अरे भाई! मैंने दाल, रोटी, भात, सब्जी की बात समझाई पर तुम्हें समझ आई या नहीं, अपने अपने घर जाओ और पेट भरने की जुगाड़ छोड़ तृप्ति और पौष्टिकता वाले भोजन की चिंता करो। गुलामी के समय में मेरा भारतीय समाज बहुत कुपोषित रहा है। उसकी भूख मिटाने वाले बनो।”
भूख सबको लग आई थी। सब अपने अपने घर चल दिए। दादाजी के मुख पर अगाध संतोष दिख रहा था नई पीढ़ी में वैज्ञानिक चिंतन के बीज बोकर।
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)
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