– वासुदेव प्रजापति
अन्त:करण का चौथा और अन्तिम साधन है, चित्त। चित्त अद्भुत है, यह बुद्धि व अहंकार से भी सूक्ष्म है। इसे हम एक सफेद पारदर्शी पर्दे जैसा मान सकते हैं, जो होने पर भी कभी न होने का आभास देता है। जिस पर सदैव हमारे द्वारा किये हुए कर्मों की छाप पड़ती रहती है। अच्छे-बुरे सब प्रकार के कामों की अच्छी व बुरी छाप इस पारदर्शी पर्दे पर पड़ती है। इसे संस्कार होना भी कहते हैं। अर्थात् चित्त पर सब प्रकार के संस्कारों की छाप सतत पड़ती ही रहती है। कर्मेन्द्रियों की क्रिया, ज्ञानेन्द्रियों के संवेदन, मन के विचार व इच्छाएँ, बुद्धि व अहंकार के विवेक तथा निर्णय ये सब संस्कार में रूपान्तरित होकर चित्त पर अंकित होते हैं और जमा रहते हैं।
इन संस्कारों की एक के बाद एक परतें बनती रहती है। जो परत सबसे ऊपर रहती है, वह स्मरण में रहती है। नई परत बनने से पहले वाली परत दब जाती है, जिसे हम भूल जाते हैं। जिस अनुभव की परत जितनी गहरी या तीव्र होती है, उसकी स्मृति उतनी अधिक तेज व दीर्घकाल तक बनी रहती है। दबी हुई स्मृति अनुकूल निमित्त मिलते ही ऊपर आ जाती है, हम कह उठते हैं, अरे! भूली हुई बात याद आ गई। इस प्रकार संस्कारों से स्मृति बनती है, यह स्मृति चित्त का विषय है। जैसे कम्प्यूटर में मेमोरी सेव रहती है, वैसे ही चित्त में स्मृति संचित रहती है।
इन संस्कारों ( छाप) से पर्दा मैला होता है, मैला होने से पर्दे की पारदर्शिता कम हो जाती है या शून्य होजाती है। जब यह पारदर्शक पर्दा पूर्ण रूप से साफ होता है, तब इसका स्वरूप आनन्द का होता है। तब आनन्द के सभी साथी जैसे प्रेम, सहजता, सौन्दर्य,अभय, स्वतन्त्रता एवं सृजनशीलता उभर आते है। ये सारे भाव निर्हेतुक होते हैं। प्रेम होने के लिए कोई कारण नहीं चाहिए। व्यक्ति गुणवान है, सुन्दर है, इसलिए उससे प्रेम नहीं अपितु बिना किसी कारण के सबसे प्रेम, प्राणी मात्र से प्रेम, चर-अचर सबसे प्रेम होना ही चित्त का स्वभाव है। लौकिक दृष्टि से कुरूप हो या सुन्दर सबमें सौन्दर्य दृष्टि। इस अवस्था में स्थित व्यक्ति को किसी से भय नहीं लगता, वह सदा अभय रहता है। वह किसी भी प्रकार के बन्धन को स्वीकार नहीं करता, सदैव स्वतन्त्र रहता है। इस अवस्था में नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा प्रकट होती है, फलत:काव्य या कलाकृति का सृजन होता है, जिसका रस ब्रह्मानन्द सहोदर होता है।इस अवस्था में जो भी कार्य होता है, वह शुभ-अशुभ से परे होता है, सदा सही होता है, इसे ही सहज अवस्था कहते हैं। अर्थात् चित्त के स्तर पर व्यक्ति सहजावस्था को प्राप्त कर लेता है।
ऐसे पारदर्शी आवरण के भीतर आत्मतत्त्व प्रकाशित है। चित्त पर पड़े संस्कारों के कारण वह ढका रहता है, इसलिए दिखाई नहीं देता। किन्तु जब चित्त शुद्ध होता है, चित्त निर्मल होता है तब आत्मतत्त्व झलकता है। इस अर्थ में चित्त प्रकाश का पुंज है। इस प्रकाशपुंज को हम बिजली के बल्ब से समझ सकते हैं। बल्ब के पारदर्शक काँच के भीतर तार में बिजली होती है। काँच का आवरण जब तक ठीक रहता है, तब तक उसमें बिजली जलती है। यह काँच रूपी आवरण गंदा है तो बिजली कम प्रकाशित होती है। यदि काँच के इस गोले पर गंदगी परत दर परत इतनी अधिक जम जाती है कि उसकी पारदर्शिता समाप्त हो जाती है, इस स्थिति में बल्ब के भीतर बिजली होते हुए भी हमें बिजली बिल्कुल दिखाई नहीं देती। ठीक इसी प्रकार जब चित्त मैला होता है तो हमें आत्मतत्त्व होते हुए भी दिखाई नहीं देता। जब हम चित्त का मैल हटाकर उसे निर्मल कर देते हैं, तो निर्मल चित्त में आत्मतत्त्व प्रकाशपुंज की भाँति प्रकाशित होता है।
आओ! हम ऐसे पवित्र चित्त की कथा पढ़कर अपने चित्त को पवित्र बनाने का प्रयत्न करें –
चित्त की पवित्रता
एक संन्यासी था। वह संन्यास के हर नियम-कानून को गंभीरता से मानता था। उसका अधिकांश समय पूजा-पाठ में ही बीतता था। उसके आश्रम के सामने एक वेश्या रहती थी। परिस्थितियों की मारी वह मजबूरन बूरे व्यवसाय में धकेल दी गई थी, किन्तु उसका चित्त शुद्ध धार्मिक जीवन जीने के लिए तरसता था। इसके विपरीत संन्यासी का मन सांसारिक भोगों के लिए लालायित रहता था।
सालों साल यूँ ही बीत गये। भाग्य के खेल से दोनों की मृत्यु एक ही समय हुई। संन्यासी के शव को सजाकर बड़ी धूमधाम से नगर की मुख्य सड़कों पर शोभायात्रा की भाँति घुमाया गया, फिर विधिवत समाधी दी गई। उधर लोगों ने वेश्या के शव को नगर के बाहर फेंक दिया, जहाँ वह जंगली जानवरों का भोजन बना।
बाद में विष्णु के दूत आए और वेश्या की आत्मा को स्वर्गलोक ले गये। उधर संन्यासी की आत्मा को लेने यमराज के दूत आए। संन्यासी की आत्मा ने परेशान होते हुए विष्णु के दूत से पूछा – श्रीमान! मैंने संयम व धार्मिकता के साथ जीवन- यापन किया है, परन्तु मुझे नरक की सजा मिल रही है और इस वेश्या ने सदैव अधर्म का जीवन जिया है, लेकिन उसे स्वर्ग का पुरस्कार मिल रहा है, यह अन्याय नहीं है क्या?
दूत ने कहा – संन्यासीजी! आपका तन संन्यासी का था किन्तु चित्त वेश्या जैसा। इसलिए आपके तन को पूरे सम्मान के साथ समाधी दी गई, परन्तु आपके अधर्मी चित्त को तो हमें नरक में ले जाना पड़ेगा। इस वेश्या के पापी शरीर में पवित्र चित्त वास करता था। इसलिए इसके शरीर को जंगली जानवरों के सामने फेंका गया और इसके निर्मल व पवित्र चित्त को स्वर्ग ले जाया जायेगा। इसमें अन्याय कहाँ है? यही न्याय संगत फैसला है।
इस कहानी का तात्पर्य संन्यासी के जीवन की अवहेलना करना या वेश्या के जीवन को पुरस्कृत करना नहीं है। यहाँ यह ज्ञान कराने का प्रयास किया गया है कि भगवान कैसे एक निर्मल चित्त को पुरस्कृत करते हैं और एक मलिन चित्त को अस्वीकार करते हैं।धर्म यही निर्धारित करता है कि अन्दर की स्वच्छता ही मनुष्य को पवित्र बनाती है, साबुन व जल से कभी चित्त की शुद्धि नहीं होती। इसलिए हमें सदा अपने चित्त को निर्मल एवं पवित्र बनाए रखना चाहिए।
यदि कभी हमें भगवान से आशीर्वाद माँगने का अवसर मिल जाय, तो हमें भगवान से “निर्मल चित्त” देने का आशीर्वाद ही माँगना चाहिए।
हरि ओम्!!!
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सह सचिव है।)
और पढ़ें : भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात-10 (ज्ञानार्जन के साधन : अहंकार)