✍ दिलीप वसंत बेतकेकर
मैं विद्यार्थी हूँ तो कैसा हूँ?
विद्यार्थी के गुण, मुख्य लक्षण मुझ में विद्यमान है क्या? ऐसे प्रश्न कभी मुझे सामने दिखते हैं क्या? यदि नहीं तो गम्भीरता से विचार करना होगा। वैसे गुण तो अनेक हैं। हम यहां पाँच मुख्य गुणों पर विचार करेंगे।
ज्ञान तृष्णा, गुरुर्निष्ठा, सदाध्ययन दक्षता,
एकाग्रता, महत्वेछा विद्यार्थी गुण पंचकम!!
ज्ञान तुष्णा (ज्ञान की प्यास), गुरुर्निष्ठा, (गुरु के प्रति निष्ठा, श्रद्धा, आदर), सुदाध्ययन दक्षता (सदैव सीखने के लिए तत्पर), एकाग्रता और महत्वेच्छा (एकाग्रता और महान इच्छा), ऐसे ये पाँच गुण विद्यार्थी के हैं। इनका पालन करने पर सुयश अवश्य प्राप्त होगा।
१. ज्ञान तृष्णा – तृष्णा अर्थात – तृष्णा अर्थात प्यास। प्यास लगने पर पानी तलाशते हैं। प्यास के कारण जी घबराता है, व्याकुल होता है। और यदि रेगिस्तान में हैं और पानी न मिले तो क्या अवस्था होगी? कितना ही धन पास में हो परन्तु वह पानी का विकल्प नहीं बन सकता, पानी का कार्य नहीं कर सकता! पानी पीने के लिए किसी भी तरह का त्याग किया जा सकता है।
जैसे यह पानी की प्यास है वैसे ही ज्ञान की प्यास लगने पर व्याकुल हो जाते हैं। ज्ञान प्राप्ति के लिए पागल से हो जाते हैं। अन्य कुछ भी वस्तु उसे आनंद, शांति नहीं दे पाती। इस हेतु किसी भी प्रकार का परिश्रम, मेहनत ही नहीं, अपितु कुष्ट झेलने के लिए मन तैयार हो जाता है। विश्वविख्यात गोमंतकीय शास्त्रज्ञ डॉ. रघुनाथ माशेलकर शाला में अध्ययनरत थे तब उनके पैरों में चप्पल तक नहीं होती थी। नौकावाहक को देने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं होते थे।
भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री स्व. लाल बहादूर शास्त्री, विद्यार्थी जीवन में सिर पर पुस्तकें रखकर पानी में चलते, तैरते हुए शाला में जाते थे। ऐसे महान व्यक्ति थे। आज भी अनेक गरीब परिवारों के बच्चे ज्ञानार्जन हेतु कितने कष्ट सहते हुए दिखाई देते हैं। कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। हम आप से ही प्रश्न पूछें- क्या वास्तव में मुझे ज्ञान प्राप्ति की प्यास लगी है?
२. गुरुनिष्ठा – हम ऐसा प्रश्न स्वयं को पूंछे मुझे सिखाने वाले, शिक्षित करने वाले शिक्षकों के बारे में क्या लगता है? उनके प्रति श्रद्धा, आदरभाव, निष्ठा अथवा अनादर कुत्सित भाव! सूर्य और सूर्य फूल (sunflower) का आपसी नाता देखा है कभी? सूरजमुखी का फूल निरंतर सूर्य को देखता रहता है। प्रातः सूर्य पूर्व दिशा से जैसे जैसे पश्चिम दिशा की ओर चलता है, सूर्य फूल भी अपनी गर्दन सूर्य की ओर रखते हुए दिशा परिवर्तन करता रहता है। निरंतर वह सूर्यमुखी रहता है। इस प्रकार हम शिक्षकाभिमुख कितने समय रहते हैं। केवल शिक्षकाभिमुख ही नहीं अपितु मन भी शिक्षक की दिशा में, उनकी वाणी की ओर नहीं रहता, उनकी वाणी को ध्यान से नहीं सुनते तो वह शिक्षा कैसे प्रभावी होगी?
३. सदाध्ययन दक्षता – कभी कभी कोई शिक्षक अवकाश में रहते हैं, तब उनके स्थान पर वैकल्पिक व्यवस्था कर दूसरे शिक्षक कक्षा में आते हैं। उस समय कक्षा में किस प्रकार का वातावरण निर्मित होता है? शिक्षक अवकाश पर अर्थात रिक्त पीरियड़! यह मालूम होने पर मूड किस प्रकार का बन जाता है? यदि कक्षा रिक्त पीरियड है तो कक्षा से बाहर जाने का ‘मूड’ तो होगा ही न? ऐसे में यदि दुसरा शिक्षक कक्षा में आकर वे अपना विषय पढ़ाने लगे तो क्या प्रतिक्रियाएं मन में होंगी? आनंद, उत्साह अथवा नाखुशी, नाराजगी? एक कार्टून देखा था। उसमें एक विद्यार्थी प्रातः शाला का गणवेश पहनकर, पीठ में बैग लटकाए, बस का इंतजार करते, बस स्टॉप पर खड़ा था। एक सज्जन ने पूछा कि – Do you go to school? उस पर विद्यार्थी जवाब देता है – No, I am sent to school. अनेक बच्चे शाला में नहीं जाते, उन्हें भेजा जाता है। सख्ती से, दबाव से शिक्षा प्राप्त नहीं होती। अध्ययन के लिए इच्छा आवश्यक है, तभी मार्ग प्रशस्त होगा।
४. एकाग्रता – जब हम किसी उत्तल लेंस (convex lens) को कपास अथवा कागज के टुकड़े पर धूप में इस प्रकार पकड़ते हैं कि सूर्य किरणे एकाग्र होकर उस टुकड़े पर आए तो वह टुकड़ा आग पकड़ता है। सामान्य रूप से टुकड़ा सालभर उसी धूप में पड़ा रहे तो आग नहीं पकड़ता। ये है एकाग्रता की शक्ति! लेंस से बाहर निकलते सूर्य किरण एकाग्र होकर हजारों गुना अधिक शक्ति प्राप्त करती हैं, जिससे कपास अथवा कागज जलने लगता है। अध्ययन में भी यही समस्या पाई जाती है- एकाग्रता का अभाव! एकाग्रता संबंध में एक अलग अध्याय है उसमें विस्तार से चर्चा करेंगे।
५. महत्वेच्छा – अभी अभी का प्रेरक उदाहरण है- अरुणिमा सिन्हा का! अरुणिमा को चलती ट्रेन से गुंडों ने बाहर फेंक दिया था। उसके बाहर गिरने के कारण उसका एक पैर पटरी पर आ गया। दुर्भाग्य से उसी समय उसी ट्रैक से एक ट्रेन गुजरी और उसका पैर कटकर अलग हो गया। अरुणिमा जीवित रही और उसे एक पैर से ही जीवन काटना पड़ा। एक पैर कृत्रिम लगाया गया। इस स्थिति में भी अरुणिमा एवरेस्ट शिखर पर जाने का सपना संजोए रखती है, महत्वाकांक्षा रखती है। जीवन का यही लक्ष्य सामने रखती है और ‘पंगु लंघयेते गिरी’ ये कहावत सार्थक बनाती है। महत्वाकांक्षा का ही यही परिणाम है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं।
हम भी ऐसा उदाहरण खोजकर स्वयं भी उच्च ध्येय सामने रखकर स्वयं ही स्वयं को प्रोत्साहित करें और लक्ष्य प्राप्ति करें! प्रेरणा को स्वयं से ही जागृत करें।
सामर्थ्य है प्रयासों का!
स्वयं के उत्थान के लिए स्वयं ही तत्पर रहना होगा।
God helps those who help themselves! यह बिल्कुल सत्य है।
चलो हम भी इसका प्रत्यक्ष अनुभव लें!!
(लेखक शिक्षाविद, स्वतंत्र लेखक, चिन्तक व विचारक है।)
और पढ़ें : शरीर आसन की स्थिति निर्दोष रहे!!
Itís hard to find knowledgeable people for this subject, but you seem like you know what youíre talking about! Thanks