नानाजी देशमुख का शैक्षिक चिंतन

✍ डॉ. आदित्य मिश्रा

‘शिक्षा’ क्या है? शिक्षा का शाब्दिक अर्थ होता है सीखने एवं सिखाने की क्रिया परंतु इसके व्यापक अर्थ को देखें तो शिक्षा किसी भी समाज में निरंतर चलने वाली सामाजिक प्रक्रिया है जिसका कोई उद्देश्य होता है और जिससे मनुष्य की आंतरिक शक्तियों का विकास तथा व्यवहार को परिष्कृत किया जाता है। शिक्षा द्वारा ज्ञान एवं कौशल में वृद्धि कर मनुष्य को योग्य नागरिक बनाया जाता है।

शिक्षा के संबंध में गांधी जी का तात्पर्य बालक और मनुष्य के शरीर, मन तथा आत्मा के सर्वांगीण एवं सर्वोत्कृष्ट विकास से है। स्वामी विवेकानंद का कहना था कि मनुष्य की अंर्तनिहित पूर्णता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा है। इसी प्रकार नानाजी ने समाज में शिक्षा, स्वास्थ्य और गामीण आत्मनिर्भरता के क्षेत्र में  विशेष काम किया। नानाजी देशमुख सिर्फ समाजसेवी और संघ के नेता नहीं थे बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य और ग्रामीण लोगों के बीच स्वावलंबन के लिए किए गए कार्यों के लिए भी जाने जाते हैं। उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में विशेष योगदान दिया।

राष्ट्रऋषि नानाजी देशमुख आधुनिक भारत के महान पुरोधा थे। वे दार्शनिक, चिन्तक, समाजसेवी एवं शिक्षाविद् थे। उनके बहुआयामी व्यक्तित्व को शब्दों की सीमा में नहीं बाँधा जा सकता है। उनका कर्तृत्व ही स्वयमेव उनका व्यक्तित्त्व है। कर्मयोगी नानाजी आज अपने इसी कर्म प्रधान एवं ओजस्वी व्यक्तित्त्व के कारण सभी के प्रेरणास्रोत हैं। उन्होंने न केवल भारत को, अपितु सम्पूर्ण विश्व को श्रम व उद्यमिता के माध्यम से उन जीवन मूल्यों से अवगत कराया जिनकी आज मानव निर्माण में महती आवश्यकता है।

वर्तमान शिक्षा व्यवस्था लोगों को शिक्षित होने के बाद भी उपयुक्त रोजगार दिला पाने में अक्षम है। इसलिए दिनोंदिन शिक्षित बेरोजगारों की कतार लम्बी हो रही है। आज एक ऐसे आदर्श शैक्षिक निदर्श (मॉडल) की आवश्यकता है जो व्यावसायिक हो, श्रम प्रधान हो तथा छात्रों में मानवीयता का सृजन कर सके। नानाजी की अन्वेषक दृष्टि ने तत्कालीन समय के शैक्षिक परिदृश्य की विसंगतियों को पहले ही अनुभूत कर लिया था। इसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु उन्होंने ऐसे प्रकल्पों की स्थापना की जो ग्रामीण बेरोजगारी का वर्तमान समय में उन्मूलन कर, उनमें स्वावलम्बन की भावना जाग्रत कर सके। अतः शिक्षा राष्ट्रीय विकास के एक सशक्त स्तम्भ के रूप में अपनी सार्थकता को सिद्ध कर सकें, इसके लिए हमें युगपुरुष नानाजी देशमुख के शैक्षिक चिन्तन को जानने, समझने एवं उस पर गहन मंथन करने की आवश्यकता है जिससे ग्रामीण भारत में शिक्षा को एक सही दिशा मिल सके।

राष्ट्रऋषि नानाजी देशमुख के शैक्षिक विचार

राष्ट्रऋषि नानाजी ने शिक्षा की मौलिक एवं अभिनव परिकल्पना प्रस्तुत की है। नानाजी ‘बाल शिक्षा’ को अत्यन्त ही महत्त्वपूर्ण मानते थे। उनका कथन है कि ‘‘जैसा बीज बचपन में बोया जाता है, वैसा ही जीवन के वृक्ष में फल लगता है। इसलिए बचपन में दी जाने वाली शिक्षा महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय में दी जाने वाली शिक्षा से अधिक महत्त्वपूर्ण है।” नानाजी का कहना था कि 21वीं शताब्दी में शिक्षा ही विकास को निर्धारित करेगी। उन्होंने कहा कि शिक्षा प्रणाली ऐसी हो जो विद्यार्थियों में क्षमता पैदा करने वाली हो। नानाजी शिक्षा को व्यावहारिक रूप प्रदान करना चाहते थे। शिक्षा के सन्दर्भ में उनका मन्तव्य था कि विश्वविद्यालयों से उपाधि पाकर या आजीविका की क्षमता अर्जित कर, स्वयं को शिक्षित मानना अपने आपको धोखा देना है। इससे तो मानव पशु समान आजीवन स्वार्थ पूर्ति में लगा रहता है। उन्होंने कहा कि वस्तुतः शिक्षा का अर्थ है-मानव सन्तान को मानवीय गुणों से सम्पन्न करना। इस सन्दर्भ में उनके द्वारा दिया गया उदाहरण दृष्टव्य है- “रामराज्य में शिक्षा का लक्ष्य मानवीय गुणें का संवर्द्धन करना था, जीविकोपार्जन की क्षमता अर्जित करना मात्र नहीं। फलस्वरूप हर एक नागरिक का जीवन नैतिकता से परिपूर्ण था।” नानाजी ने शिक्षा को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है- “मानव को स्वावलम्बी, स्वाभिमानी किन्तु विनम्र तथा अन्य मानवीय गुणों से परिपूर्ण बनाने के लिए ही शिक्षाशास्त्र का जन्म हुआ है। शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक विकास करना ही इस शास्त्र का लक्ष्य है।” वस्तुतः नानाजी शिक्षा को एक ऐसे शास्त्र के रूप में देखते थे जो मनुष्य को विभिन्न मानवीय गुणों से परिपूर्ण बना सके। इन मानवीय गुणों की सूची में उन्होंने स्वावलम्बन, स्वाभिमान तथा विनम्रता को सम्मिलित किया है। नानाजी शिक्षा के माध्यम से विद्यार्थी जीवन के विभिन्न पक्षों का विकास करना चाहते थे। अर्थात् विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास को ही उन्होंने शिक्षा पद्धति का मर्म स्वीकार किया है। इस संदर्भ में उनका कथन है कि “शारीरिक एवं आत्मिक तत्त्वों की परस्पर प्रतिकूलताओं में सामंजस्य निर्माण करने के लिए ही मनुष्य को शिक्षण की आवश्यकता होती है।” नानाजी का विश्वास था कि शिक्षा व्यक्ति को समाज में रहने योग्य बनाती है। शिक्षा की व्यवस्था जैसी होगी बच्चों का मानसिक विकास भी वैसा ही होगा। समाज को सुसंस्कृत बनाने हेतु शिक्षा में गुणवत्ता होना आवश्यक है। नानाजी शिक्षा का एक ऐसा ढाँचा खड़ा करना चाहते थे जो पूरी तरह से ग्रामीण भारत की आवश्यकताओं के अनुरूप कार्य करते हुए सामाजिक पुनर्रचना एवं ग्रामीण भारत की चुनौतियों का सम्यक समाधान प्रस्तुत कर सके। नानाजी ने शिक्षा पद्धति के मर्म को स्पष्ट करते हुए कहा है कि वर्तमान ग्रामीण भारत की चुनौतियों एवं छात्र के सर्वांगीण विकास हेतु तथा अर्थपूर्ण सामाजिक पुनर्रचना के सार्थक प्रयास को सफल बनाने वाली शिक्षा पद्धति ही आज की हमारी आवश्यकता है। वर्तमान भारतीय सन्दर्भ में यदि नानाजी के शैक्षिक चिन्तन की प्रासंगिकता को समझना है तो उनके द्वारा निर्धारित शिक्षा के उद्देश्यों, पाठ्यक्रम, शिक्षण विधियाँ, शिक्षक तथा विद्यालय आदि की संकल्पना को भी समझना होगा।

शिक्षा के उद्देश्य

भारतीय परिप्रेक्ष्य में शिक्षा की व्यापक संकल्पना को दृष्टिगत रखते हुए नानाजी देशमुख ने शिक्षा के जिन उद्देश्यों की परिकल्पना की, उनके आधार पर शिक्षा की अवधारणा को समझा जा सकता है। अतः नानाजी देशमुख के अनुसार शिक्षा के निम्नांकित उद्देश्य हैं –

  1. मानवीय गुणों का विकास
  2. बालिका शिक्षा को प्रोत्साहन
  3. अल्पसंख्यक शिक्षा का विकास
  4. आत्मविश्वास एवं नेतृत्व की क्षमता का विकास
  5. व्यावसायिक शिक्षा के माध्यम से आर्थिक स्वावलम्बन
  6. स्वावलम्बन एवं स्वाभिमान का विकास
  7. सामाजिक दायित्व बोध की भावना का विकास
  8. व्यक्तित्व का सर्वांगीण विकास

पाठ्यक्रम

नानाजी के अनुसार पाठ्यक्रम ऐसा होना चाहिये जिससे छात्र का न केवल बौद्धिक विकास हो, बल्कि छात्र का सामाजिक एवं नैतिक विकास भी किया जा सके। बौद्धिक विकास तो केवल साहित्यिक विषयों से भी हो सकता है किन्तु उनसे शारीरिक एवं आध्यात्मिक विकास सम्भव नहीं होता है। प्रचलित शिक्षा में शारीरिक एवं आध्यात्मिक विकास की उपेक्षा की गयी है। नानाजी का मन्तव्य था कि यदि पाठ्यक्रम में ‘शिल्प’ को केन्दीय स्थान दिया जाये तो प्रचलित शिक्षा के दोष दूर हो सकते हैं। अतः उन्होंने शिल्प प्रधान पाठ्यक्रम पर जोर दिया है। अतः नानाजी ने पाठ्यक्रम में ‘क्राफ्ट’ को केन्दीय स्थान दिया है। क्राफ्ट कोई भी हो सकता है। भारतीय समाज की दृष्टि से कृषि, कताई-बुनाई, लकड़ी का काम, धातु का काम आदि में से एक क्राफ्ट को चुना जा सकता है। दीनदयाल शोध संस्थान द्वारा संचालित जनशिक्षण संस्थान चित्रकूट, बीड एवं गोण्डा का प्रशिक्षण सह उत्पादन केन्द्र अपने उद्देश्यों पर खरे उतरे हैं। ‘जनशिक्षण संस्थान चित्रकूट’ द्वारा वर्तमान में 55 प्रकार के व्यावसायिक पाठ्यक्रम संचालित किये जा रहे हैं। वहाँ से अभी तक सात हजार से ज्यादा लोग प्रशिक्षित होकर स्वरोजगार शुरू कर चुके हैं। प्रशिक्षण अवधि के दौरान प्रशिक्षणार्थियों को व्यवसाय विशेष की जानकारी देने के साथ जनसंख्या नियन्त्रण, प्रदूषण, उद्यमिता विकास जैसे राष्ट्रीय और सामाजिक महत्व के विषयों पर भी जानकारी दी जाती है।

शिक्षण विधियाँ

नानाजी का मानना था कि प्रचलित शिक्षण में अध्यापक एवं छात्र में कोई सम्पर्क नहीं रहता है। अध्यापक व्याख्यान देकर चला जाता है तथा छात्र निष्क्रिय श्रोता के रूप में बैठे रहते हैं। इस प्रकार की दोषपूर्ण शिक्षा पद्धति के विपरीत नानाजी ऐसी शिक्षण पद्धति को लाना चाहते थे जिसमें छात्र और शिक्षक के मध्य अन्तःक्रिया के स्तर को बढ़ाया जा सके और छात्र निष्क्रिय श्रोता के रूप में न रहकर सक्रिय अनुसंधानकर्ता, निरीक्षणकर्ता एवं प्रयोगकर्ता के रूप में हो। उनका कहना था कि शिक्षण पुस्तकीय न होकर श्ल्पि केन्द्रित होना चाहिये। शिल्प को वे केवल मनोरंजन का साधन न मानकर चरित्र निर्माण का भी साधन मानते थे। इस प्रकार नानाजी निम्नांकित शिक्षण विधियों के पक्षधर थे –

  1. खेल द्वारा सीखना
  2. निरीक्षण विधि
  3. ज्ञानेन्द्रियों का उपयोग

नागपुर का ‘बालजगत’ एवं चित्रकूट की ‘नन्हीं दुनियाँ’ खेल पद्धति द्वारा शिक्षण के अच्छे उदाहरण हैं।

शिक्षक की परिकल्पना

नानाजी के देशज शैक्षिक चिन्तन में जिस बिन्दु पर सर्वाधिक जोर है वह है शिक्षक। नानाजी ने कहा कि “समाज में शिक्षक की भूमिका हनुमान की तरह है। यदि वह चाह ले तो समाज को धरातल से ऊँचाइयों पर ले जा सकता है, परन्तु समाज के इस शिल्पी की ताकत को न समाज तौल पा रहा है और न स्वयं शिक्षक अपनी शक्ति को पहचान पा रहा है। इसलिए शिक्षक की भूमिका सिमटती जा रही है।” नानाजी कहते थे कि समाज निर्माण में शिक्षकों को अहम् भूमिका निभाने की आवश्यकता है। शिक्षकों पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी है। उसका निर्वहन उन्हें बहुत ही सूझबूझ और समझदारी से करना होगा, तभी हम अच्छे समाज का निर्माण कर पायेंगे। वर्तमान काल में शिक्षकगण जब तक परम्परागत मूल्यवान दायित्वों का निर्वहन नहीं करेंगे तब तक समाज में सामाजिक जीवन का स्पंदन नहीं होगा। नयी पीढ़ी में देशभक्ति की भावना अंकुरित नहीं होगी। वस्तुतः अध्यापन में संलग्न महिला-पुरुष सही अर्थों में राष्ट्र निर्माता हैं।

विद्यालय

नानाजी का मत था कि संस्कारित शिक्षा गुरुकुल शिक्षा पद्धति के माध्यम से ही दी जा सकती है। गुरुकुल नगर से दूर प्रकृति के सुरम्य वातावरण में होने चाहिये, जहाँ पर गुरु-शिष्य एक साथ रहकर पठन-पाठन का कार्य करें। इससे दोनों के सम्बंध मधुर होंगे, शैक्षिक वातावरण का विकास होगा साथ ही समाज में सहजीवन का भी संचार होगा। राष्ट्रऋषि नानाजी देशमुख के शैक्षिक विचारों की उपादेयता आज पूरे देश में निजी विद्यालयों की संख्या अत्यधिक बढ़ गयी है। किन्तु इन विद्यालयों का उद्देश्य शिक्षा प्रदान करना नहीं है बल्कि इनका उद्देश्य व्यावसायिक है। शिक्षा को व्यवसायपरक होना चाहिये किन्तु उसे पैसे की अंधी दौड़ में शामिल करना राष्ट्रहित में नहीं है। शिक्षा परिवर्तन की वाहक है। शिक्षा व्यक्ति को समग्र रूप में बनाने का माध्यम है क्योंकि सम्पूर्ण विश्व का इतिहास इस बात का साक्षी है।

21वीं शताब्दी ज्ञान की शताब्दी है। सम्पूर्ण विश्व विचारों के संक्रमण काल से गुजर रहा है। जहाँ पुरानी परम्परायें नष्ट हो रही हैं, वहीं नये-नये प्रतिमान स्थापित हो रहे हैं। आज आवश्यकता है बदलते वैश्विक परिदृश्य में अपनी सार्थक एवं सशक्त भूमिका का निर्वाह करने की। हमारी शिक्षा पद्धति, जो विभिन्न दोषों से ग्रसित है तथा विभिन्न चुनौतियों का सामना भी कर रही है, इसमें परिवर्तन करने की आवश्यकता है। आज हमें एक ऐसे आदर्श शैक्षिक निदर्श (मॉडल) की आवश्यकता है जो इन चुनौतियों का सम्यक एवं सफल समाधान प्रस्तुत कर सके।

नानाजी देशमुख ने एक ऐसा ही शैक्षिक निदर्श (मॉडल) पर्याप्त चिन्तन एवं मनन के पश्चात् देश के समक्ष प्रस्तुत किया है। नानाजी शिक्षा के माध्यम से स्वावलम्बन, स्वाभिमान तथा विनम्रता जैसे शाश्वत् मानवीय मूल्यों का विकास विद्यार्थियों में करना चाहते थे। उन्होंने एक ऐसी शिक्षा पद्धति की नवरचना की जो मानवीय है, जिसमें श्रम एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व के रूप में सम्मिलित है। चूँकि भारत गाँवों का देश है, अतः गाँव का विकास आज हमारी प्राथमिक आवश्यकता है। नानाजी की शिक्षा पद्धति ग्रामोन्मुखी तथा रोजगारोन्मुखी है अर्थात् उनका शैक्षिक चिन्तन ग्रामीण विकास की अवधारणा पर आधारित है।

नानाजी के शैक्षिक विचारों में एक मानवीयता मूलक विकासशील समाज की रचना का सार्थक प्रयोग निहित है। अतः आज देश को एक ऐसे शैक्षिक निदर्श (मॉडल) की आवश्यकता है जिसके आाधार पर एक सजग और विकसित भारत को खड़ा करने के साथ देश के नौनिहालों का भविष्य भी उज्ज्वल बन सके। वर्तमान सन्दर्भ में नानाजी के शैक्षिक विचार इन आवश्यकताओं की पूर्ति का एक विकल्प हो सकते हैं।

(लेखक नानाजी देशमुख पशु चिकित्सा विज्ञान विश्वविद्यालय जबलपुर में प्रोफेसर है और विद्या भारती महाकौशल प्रान्त के मंत्री व मध्य क्षेत्र के उपाध्यक्ष है।)

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