– सार्थ इदाथिल
महान दृष्टा और विद्वान रंगाहरि जी, जिनकी बौद्धिक प्रतिभा विद्या भारती के आदर्शों और सिद्धांतों में परिलक्षित होती थी, उनका 29 अक्टूबर 2023 को 93 वर्ष की आयु में स्वर्गवास हो गया। उनका जन्म कोच्चि में हुआ था, जो जगद्गुरु आदि शंकराचार्य की पावन जन्मस्थली कालड़ी के निकट स्थित है। बचपन में उनके खेल साथी कोई और नहीं बल्कि महान आध्यात्मिक नेता स्वामी सुधींद्र तीर्थ थे। युवावस्था में, उन्हें श्री रामकृष्ण मिशन के स्वामी अगमानंद का सान्निध्य मिला, और इस प्रकार उनकी आध्यात्मिक यात्रा प्रारंभ हुई। रंगाहरि जी ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में सात दशकों तक प्रचारक के रूप में कार्य किया और राष्ट्रीय स्तर पर कई महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन किया। इसके साथ ही, उन्होंने विद्या भारती के प्रभारी के रूप में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वर्ष 1946 में जब श्री भास्कर राव कलंबी (महाराष्ट्र से केरल भेजे गए संघ प्रचारक) से उनका संपर्क हुआ, तब वे संघ से जुड़े। इस प्रकार, उन्हें डॉ. हेडगेवार की महान परंपरा और श्री गुरुजी गोलवलकर के नेतृत्व में प्रवाहित राष्ट्रवाद की धारा में कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ।
रंगाहरि जी का शैक्षिक दृष्टिकोण
रंगाहरि जी के शैक्षिक विचारों और दर्शन का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट होता है कि वे जिस सिद्धांत का प्रचार करते थे, उसे अपने जीवन में आत्मसात करते थे। वे अपने द्वारा प्रचारित शिक्षा सिद्धांतों के अनुरूप जीवन यापन करते थे। उनके द्वारा दूसरों के साथ साझा किए गए विचार उनके दैनिक जीवन में उनके कर्मों के माध्यम से प्रतिबिंबित होते थे। ‘संस्कार सिखाएं नहीं जाते, बल्कि प्रदान किए जाते हैं,’ इस प्रसिद्ध कथन की सार्थकता उनके जीवन से झलकती है।
रंगाहरि जी के पढ़ाने के ढंग को देखकर ही उनके शैक्षिक दर्शन को समझा जा सकता है। कर्म से एक राजनेता, वे एक महान दूरदर्शी और राष्ट्र के सच्चे भक्त भी थे। उन्होंने आधुनिक शिक्षा की औपचारिक शब्दावली, जैसे अनुभवात्मक शिक्षा, कहानी कहने की कला, सामूहिक शिक्षण, प्रश्न-आधारित शिक्षण आदि को अपने स्वाभाविक व्यक्तित्व में सहज रूप से समाहित कर लिया था।
इस प्रकार, वे एक आदर्श गुरु थे, जो हर समय शिक्षण को समर्पित थे और किसी भी बंधन में सीमित नहीं थे। उनकी विद्वता और शिक्षण शैली की पहचान इस तथ्य से होती है कि उन्होंने 22 देशों की यात्रा की, उनके वीज़ा में यात्रा का उद्देश्य ‘हिंदुत्व पर व्याख्यान’ लिखा जाता था, किन्तु उनके व्यक्तित्व एवं विचारों की व्यापकता ने इस औपचारिक विवरण को ही गौण बना दिया। रंगाहरि जी केवल एक शिक्षक नहीं थे, अपितु स्वयं शिक्षा का जीवंत स्वरूप थे।
सतत अवलोकन, स्वाध्याय एवं शिक्षण पद्धति
रंगाहरि जी का जीवन एक शिक्षक के लिए आवश्यक मौलिक गुणों का प्रतिबिंब था। सतत अवलोकन उनकी प्रकृति थी। उनकी आँखें, कान और मस्तिष्क सदैव खुले रहते थे, और उनके हृदय में ग्रहणशीलता का भाव उन्हें पूर्ण बनाता था। उनका मानना था कि उनके पास जो ज्ञान है, वह अधूरा है, और वे सदैव अधिक से अधिक ज्ञान प्राप्त करने की लालसा रखते थे। यह सर्वविदित है कि एक छोटा बच्चा भी बहुत कुछ सिखा सकता है, और वे इसे मानते और अनुसरण करते थे। उनकी अवलोकन शैली अत्यंत सूक्ष्म थी। वे अपने अंतिम दिनों तक, यहाँ तक कि अस्पताल में भी अपने आसपास की प्रत्येक छोटी-बड़ी बातों को गहराई से देखते रहे। उनके ज्ञान की पिपासा को तृप्त करना कठिन था।
वर्तमान युग के अनेक शिक्षक मानते हैं कि एक घंटे पढ़ाने के लिए कम से कम एक दिन तैयारी करनी चाहिए। किंतु उनकी दृष्टि भिन्न थी। वे कहते थे – “जीवन के प्रत्येक क्षण को तैयारी में बिताओ, ताकि जब जीवन माँगे या ज्ञान देने का अवसर आये, तब तुम उसे देने में सक्षम हो।” एक शिक्षक के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह आजीवन शिक्षार्थी बने रहने की मानसिकता विकसित करें। यदि यह संभव हो जाए, तो सीखना और सिखाना एक सहज कार्य बन जाएगा। जो व्यक्ति इस दृष्टिकोण को अपना लेता है, उसका शिक्षण अद्वितीय एवं विलक्षण होगा। यही रंगाहरि जी का शिक्षकों के स्वाध्याय प्रक्रिया के संबंध में दृष्टिकोण था। इसे उन्होंने ‘ज्ञान तपस्या’ कहा, जिसका उन्होंने अपने जीवन में पालन किया।
रंगाहरि जी इस दर्शन में पूर्णतः रमे हुए थे। वे ऐसे व्यक्ति थे, जिन्होंने आध्यात्मिक अनुशीलन में भी ज्ञान की खोज की। उन्होंने वेदांत-दर्शन एवं भारत की आध्यात्मिक एकता को ग्रामीण खेलों, किशोरों के मनोरंजन, एवं यहाँ तक कि जिन्हें अंधविश्वास कहा जाता है ऐसी विषयों तक में खोजा। कश्मीर से कन्याकुमारी, कच्छ से कामरूप तक, उन्होंने भारत के प्रत्येक कोने में विद्यमान ज्ञान को अपनी तीक्ष्ण पर्यवेक्षण शक्ति से पहचाना। वे ऐसे साधक थे, जिन्होंने भक्ति एवं शांति से परे ज्ञान की गहराइयों को खोजा और उनमें आनंद पाया। स्वाध्याय ही उनकी तपस्या थी। अंतिम चेतन क्षण तक वे इसे निभाते रहे।
शिक्षक के रूप में रंगाहरि जी ने अपनी दिनचर्या को ‘पठन-लेखन’ अथवा ‘लेखन-पठन’ में परिवर्तित कर दिया था। उनका जीवन स्वाध्याय को समर्पित था, जिसमें पठन एवं लेखन एक निरंतर, अनुशासित और उत्साहपूर्ण साधना के रूप में जुड़े हुए थे। उनकी दिनचर्या ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार की उनकी खोज का प्रमाण थी। इसमें प्रातःकालीन प्रार्थना, गीता का पाठ, सुबह लेखन, दोपहर में पठन, शाम को पुनः लेखन करना। वे रात्रि में पुनः पठन करते थे, जिसमें प्राचीन भारतीय ग्रंथ जैसे अर्थशास्त्र, विदुरनीति आदि शामिल थे, जिन्हें उन्होंने ‘हल्का पठन’ कहा! आत्म-साक्षात्कार की खोज में लगे एक शिक्षक के लिए इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है?
सरल किन्तु गंभीर विवेचन
अब हम उनकी ज्ञान-यात्रा के चरणों से परिचित हो चुके हैं। किन्तु यह भी जानना आवश्यक है कि उन्होंने ज्ञान की पिपासा को किस माध्यम से तृप्त करने का प्रयास किया। अनेक वैज्ञानिक निरंतर निरीक्षण करते हैं, प्रयोग करते हैं, सीखते हैं और शिक्षा प्रदान करते हैं। किन्तु ऐसा क्या है जिसने रंगाहरि जी को विशेष बनाया? उन्हें विशिष्ट बनाती है उनकी विनम्रता एवं सहजता, जिसके द्वारा वे अपना ज्ञान प्रस्तुत करते थे। सन् 2009 में, विद्या भारती की कार्यप्रणाली पर एक चर्चा के दौरान उन्होंने कहा ‘प्रत्येक प्रशिक्षण एवं सुधार की रचना उन लाभार्थियों को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए, जिनके लिए इसे तैयार किया गया है।’ उनमें सामान्य जन से जुड़ने की अद्वितीय क्षमता थी। वे अपनी संवाद शैली को परिवर्तित कर उसे इस प्रकार ढालते कि जटिल विषय भी सहजता से ग्राह्य हो सके। वे कहते थे – ‘उपदेश केवल हमारे ज्ञान का विस्तार न बने, अपितु हमें यह सोचना चाहिए कि हम अपने विचारों को कैसे प्रस्तुत करें ताकि सामान्य व्यक्ति भी उन्हें सरलता से समझ सके। यही तो सामान्य व्यक्ति के ज्ञान का विस्तार होगा। पाठ्यक्रम एवं शिक्षण पद्धति को भी इस दृष्टिकोण को ध्यान में रखकर तैयार किया जाना चाहिए।’
सरलता ही उनका मूलमंत्र था। उनके लिए यह कोई बाह्य गुण नहीं, अपितु एक आंतरिक मूल्य था। वे सदैव सोचते थे कि प्रत्येक शब्द, वाक्य और अवधारणा को अक्षरशः और भावतः कैसे सरल बनाया जाए। यह उनकी व्याख्याओं में परिलक्षित होता था, चाहे वह वेदों की व्याख्या हो अथवा महाकाव्यों की विवेचना। वे अपने अनुभवों से उदाहरण ग्रहण करते और उन्हें अत्यंत सरल भाषा में प्रस्तुत करते। उदाहरण के लिए, बृहदारण्यक उपनिषद में वर्णित लैंगिक समानता की अवधारणा को समझाने के लिए वे मूंगफली के आधे टुकड़े का उदाहरण देते थे। रंगाहरि जी एक ऐसे शिक्षक थे, जो गंभीर से गंभीर अवधारणाओं को भी सरल और स्पष्ट भाषा में, साधारण उदाहरणों के माध्यम से और अपनी मधुर मुस्कान एवं स्वर से और भी सरल बना देते थे।
आर्ष एवं आधुनिक विद्या का समन्वय
जिस काल में ज्ञान को पूर्वीय-पाश्चात्य, वैज्ञानिक-अवैज्ञानिक की सीमाओं में बांट दिया गया था, उस काल में रंगाहरि जी ने ज्ञान की एकसूत्रता एवं अंतर्निहित लय को केंद्र में रखा। उनका ज्ञान इतना गहरा और विस्तृत था कि वे इस दृष्टि से एक अग्रणी व्यक्तित्व माने जाने लगे। उन्हें कालिदास के महाकाव्यों और शेक्सपियर के प्रसिद्ध कृतियों दोनों का गहन ज्ञान था। उन्होंने खलील जिब्रान और टैगोर पर समान उत्साह से व्याख्यान दिए। उन्होंने नेहरू के ‘भारत की खोज’ और धर्मपाल के भारतीय दर्शन को समान रुचि और उत्साह के साथ पढ़ा। इस प्रकार, वे आर्ष विद्या एवं आधुनिक शिक्षा के सेतु थे, जिनकी दृष्टि में समस्त ज्ञान एक प्रवाह था, न कि विभाजित धाराएं। उन्होंने भारत की प्राचीन ज्ञान-पद्धति और आधुनिक शैक्षणिक ज्ञान दोनों की समृद्धि को स्वीकार करते हुए समान श्रद्धा के साथ ग्रहण किया। इससे यह स्पष्ट होता है कि वे उन महान विचारकों में से एक थे, जिन्होंने उस समय इस प्रक्रिया की शुरुआत की, जब प्राचीन भारतीय ज्ञान प्रणाली को अकादमिक रूप देने के बड़े प्रयास हो रहे थे।
साहित्यिक रचना में शोध प्रतिमान
उनके साहित्यिक लेखन में शोध प्रवृत्ति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। उन्होंने महाभारत के पात्रों पर पुस्तकें लिखीं। उनके उत्कृष्ट कार्यों में रामायण, पृथ्वीसूक्त, ज्ञानेश्वरी और वेदों पर महत्वपूर्ण रचनाएँ शामिल हैं। उनकी पुस्तकों में निहित ज्ञान से अधिक महत्वपूर्ण यह है कि उन्होंने इन्हें किस शैली में लिखा और उनकी व्याख्या कितनी गहरी व सारगर्भित है। वे इस बात पर बल देते हैं कि भारतीय ज्ञान प्रणाली की जड़ें इसके मूल ग्रंथों में हैं। इसे समझने के लिए केवल सतही अध्ययन नहीं, बल्कि वाल्मीकि, व्यास और अन्य ऋषियों द्वारा प्रतिपादित दार्शनिक विचारों में गहराई से उतरना आवश्यक है। आधुनिक भारतीय साहित्य और लेखक ज्ञान की आर्ष परंपरा से दूर हो गए हैं। कल्पनाशीलता और पश्चिमी शैलियों के कारण वे धर्म के मूल मूल्यों और मौलिक ज्ञान से भटक गए हैं, लेकिन रंगाहरि जी ने अपनी साहित्यिक रचनाओं में इन मूल्यों को केंद्र में रखा।
रंगाहरि जी का शोध दृष्टिकोण
रंगाहरि जी का शोध एक अग्रणी दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है, जो प्राचीन ग्रंथों में गहराई से उतरकर भारतीय साहित्यिक ज्ञान के मूल सत्य को उजागर करता है। इन कृतियों के संदर्भ में, रंगाहरि जी एक अनौपचारिक किंतु स्वाभाविक शोधकर्ता थे। उन्होंने आधुनिक शैक्षणिक जगत द्वारा प्रस्तुत विचलित, विपथित और प्रक्षिप्त अवधारणाओं एवं दर्शनों का सार निकाला और उन्हें मूल ग्रंथों के आधार पर सुधारकर सरल, स्पष्ट एवं वैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया। इस प्रकार, उन्होंने एक शोध-मॉडल प्रतिमान प्रस्तुत किया है, जिसे आधुनिक शैक्षणिक समुदाय द्वारा अनुसरण किया जा सकता है।
उनकी महाभारत और रामायण पर लिखी गई पुस्तकों को देखने से यह समझना आसान होगा। उदाहरण के लिए, भागवत पुराण में कृष्ण को बांसुरीधारी के रूप में दिखाया गया है, जबकि व्यास की महाभारत में वे सुदर्शन चक्रधारी हैं। कई लेखकों ने ‘लक्ष्मण रेखा’ का उल्लेख किया, लेकिन यह वाल्मीकि रामायण में नहीं मिलती। इसी तरह, यह ऐतिहासिक रूप से प्रमाणित तथ्य है कि दुर्योधन के गिरने पर द्रौपदी ने ताली बजाकर उपहास नहीं किया था।
रंगाहरि जी उन गिने-चुने भारतीय विद्वानों में से हैं, जिन्होंने ऐसे तथ्यों को सामने रखने और स्पष्ट करने का साहस दिखाया। उनके इस दृष्टिकोण ने उन्हें भारतीय शोधकर्ताओं में अग्रणी बना दिया और आधुनिक शोधकर्ताओं के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया।
विद्या भारती के लिए महत्वपूर्ण संदेश
वे प्रायः कहा करते थे कि विद्या भारती एक शैक्षिक संगठन है, न कि कोई संस्थान। उनके अनुसार, संस्थान निर्जीव संपत्तियाँ होती हैं, जबकि शिक्षक, छात्र, अभिभावक और शिक्षाविद मिलकर सजीव संपदा हैं। विद्या भारती की आत्मा इन्हीं सजीव संपदाओं में धड़कती है। इनमें से भी शिक्षक ऐसा वर्ग है, जो रचनात्मकता के प्रतीक होते हैं। वे प्रायः कहते थे, ‘भले ही वाटरलू में नेपोलियन हार गया, लेकिन उसे हराने वाले हाथ इंग्लैंड के विश्वविद्यालयों में तैयार हुए थे।’ शिक्षक समुदाय में शुरू होने वाला उत्साह अन्य तीन समूहों – छात्रों, अभिभावकों और शिक्षाविदों तक फैलता है। यही प्रक्रिया विद्या भारती की उत्कृष्टता का आधार है।
विद्या भारती की विशिष्टता
विद्या भारती अन्य समान विचारधारा वाले संगठनों से अलग है। यह अंतर आकार या दिखावे के कारण नहीं, बल्कि गुणवत्ता के कारण है। हालांकि इसके कई कारण हैं, लेकिन गांवों में इसकी उपस्थिति सबसे प्रमुख कारण है। इस प्रयास में शिक्षकों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है।
पुराने समय में, राजा अपनी प्रजा का स्वामी होता था। इसलिए, राष्ट्र निर्माण के लिए केवल राज्याभिषेक ही पर्याप्त था। लेकिन आज लोकतंत्र का युग है। इसलिए आधुनिक राष्ट्र निर्माण के लिए व्यक्तिगत चरित्र निर्माण और विकास आवश्यक है। इसमें ‘नागरिकों का राज्याभिषेक’ आवश्यक है। इसके लिए हमें अच्छे व्यक्तित्व वाले नागरिकों का निर्माण करना होगा। विद्यालय वह स्थान है जहाँ यह संभव होता है और शिक्षक इसके मार्गदर्शक होते हैं। विद्या भारती के शिक्षक केवल एक दृष्टि ही नहीं रखते, बल्कि एक मिशन के साथ कार्य करते हैं।
दृष्टि और मिशन में अंतर
जब कोई शिक्षक यह सुनिश्चित करता है कि छात्र अच्छे से पढ़ें और परीक्षा उत्तीर्ण करें, तो इसे ‘दृष्टि’ (Vision) कहते हैं। भारत में ऐसे कई शिक्षक हैं जो इस उद्देश्य के लिए कठिन परिश्रम करते हैं। लेकिन यदि एक शिक्षक कक्षा के बाद भी यह सोचता रहे कि ‘मेरे छात्र ने झूठ क्यों बोला?’, तो यही वास्तव में उसके मिशन-संचालित होने का अर्थ है। इसलिए विद्या भारती के शिक्षक केवल शिक्षक नहीं, बल्कि मिशनरी भी होते हैं। इसे प्राप्त करने के लिए, एक दृढ दायित्व की भावना, स्पष्ट दृष्टि और उद्देश्यपूर्ण जीवन शैली आवश्यक है। हमारा लक्ष्य शिक्षक के रूप में कार्य करना होना चाहिए। हमारा मूल दृष्टिकोण सकारात्मक होना चाहिए। कभी भी किसी छात्र को अयोग्य नहीं कहना चाहिए। यह दृष्टिकोण कि ‘मैं उससे कभी घृणा नहीं कर सकता; मुझे उससे प्रेम करना है’, एक शिक्षक की अपने छात्रों के प्रति सकारात्मक सोच को दर्शाता है।
शिक्षा पद्धति में एक सकारात्मक दृष्टिकोण, परिवेशीय/प्रचलित औपचारिक शिक्षण विधियों तथा पाठ्यक्रम के साथ सामंजस्य होना आवश्यक है। हमें इस पर विचार करना चाहिए कि उपलब्ध पाठ्यक्रम के माध्यम से एक छात्र को भारतीय संस्कृति कैसे प्रदान कर सकते हैं। ‘समानो मन्त्रः समिति: समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्’ – इस मंत्र द्वारा परिभाषित एकता और समरसता ही इसका मार्ग है। यही वह पथ है, जो शिक्षण को एक सूत्र में पिरोता है। इस मंत्र की अगली पंक्ति शिक्षकों के लिए एक निर्देश के रूप में है ‘समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति’ – अर्थात् एकीकृत भाव से समर्पित रहना, सामूहिक भावना से एकत्रित होकर ज्ञानार्जन करना। ये वे मार्ग हैं जो हमें उद्देश्य और कर्म के प्रति प्रेरित करते हैं।
एक शिक्षक को अपने विद्यार्थियों की त्रुटियां सुधारने और उनकी योग्यताओं को पहचानने के मध्य संतुलन स्थापित करना चाहिए। वही शिक्षक कुशल शिल्पकार होता है, जो पत्थर से विकारों को हटाकर उसमें सुगुणों का समावेश करता है। वह उसी प्रकार होता है, जैसे सुवर्णकार अग्नि से स्वर्ण को तपाकर उसे और अधिक परिष्कृत एवं सुदृढ़ बनाता है। यह प्रक्रिया दोषापनयन एवं गुणोपनयन (दोषों का अपहरण एवं गुणों का संवर्धन) के रूप में जानी जाती है। इन दोनों कार्यों का साथ-साथ अनुप्रयोग – दोषापनयन और गुणोपनयन – ही एक सच्चे शिक्षक को परिभाषित करता है।
शिक्षक का संबंध छात्र से माता-पुत्र के संबंध के समान होना चाहिए। महाभारत में भीष्म के प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर ने कहा था कि माता पृथ्वी से भी भारी होती है। यह कथन यह दर्शाता है कि शिक्षक का संबंध पितृवत् न होकर मातृवत् होना चाहिए। अंततः, रंगाहरि जी हमें गीता के उन दो महत्त्वपूर्ण श्लोकों की स्मरण कराते हैं, जो न केवल छात्रों, अपितु शिक्षकों के लिए भी अनिवार्य हैं – ‘श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्’ एवं ‘प्रतिप्रश्नेन सेवया’। वे इस बात पर बल देते हैं कि जो अच्छे शिक्षक श्रद्धा, समर्पण एवं सेवा भाव से ज्ञान की आराधना करते हैं, वे ही शिक्षा प्रणाली के मूलाधार होते हैं। उनका सरल और सादा जीवन, उनके दर्शन का साक्षात् प्रमाण है।
(मूल लेखन मलयालम, अंग्रेजी अनुवाद – श्रीमती पूर्णिमा आर.चंद्रन, हिंदी अनुवाद – डॉ. कुलदीप मेहंदीरत्ता।)
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