– डॉ विकास दवे
प्रिय बिटिया!
अपने इस राष्ट्र की ख्याति शांति के प्रसार के लिए विश्वभर में रही है। इतिहास के अनेक ज्ञात-अज्ञात प्रसंगों से लेकर आज तक हमने भाईचारे और शरणागत वत्सलता के अनेक उदाहरण देखे। हमने कभी शास्त्रों से अधिक महत्व शस्त्रों को नहीं दिया। इसी कारण अपना भारत वर्ष जगद्गुरु के सिंहासन को अनेक शताब्दियों तक शोभित करता रहा। याद करो इतिहास के उन क्षणों को जब अशोक ने अपने पुत्र तथा पुत्री को शांति का संदेश लेकर देश की सीमाओं के पार भेजा था। क्या आज अपनी आँखों से दूरदर्शन पर एक बस को सीमा पार करते देखकर और उसी शांति की चाह का पुन: प्रकटीकरण देखकर मन गद्-गद् नहीं हो उठता होगा?
किन्तु क्या शांति की चाह केवल एक ही पक्ष में रखने से शांति सम्भव है? निश्चय ही नहीं। मुगलकाल में मुगलों के अत्याचारों को देखकर इतिहास रो उठा। गुरु नानक देव जी की प्रारम्भ की हुई परम्परा मुगलों को अपनी सामन्तशाही इच्छाओं के पूरी होने में रोड़ा नजर आने लगी। इसके बाद प्रारम्भ हुआ, एक-एक गुरुओं और उनके सिक्खों (शिष्यों) के बलिदानों का दौर किन्तु राष्ट्र की उदारतावादी छवि को बनाए रखते हुए सबके-सब अपना रक्त माँ भारती के चरणों में अर्पित करते रहे।
यातनाएं भी इतनी अमानवीय थी कि देखने वालों के ही नहीं सुनने वालों के भी कलेजे हिल जाते थे। किसी की गर्दन काटी गई तो किसी को आरों से चीरा गया। कोई गर्म तेल के कड़ाह में डाला गया तो कोई खौलते पानी में उबाला गया। किसी को गन्ने की तरह चरखी में पेल दिया गया तो किसी के केश (सिर का जूड़ा) मोची की खुरपी से काटकर चमड़ी सहित सिर से अलग कर दिये गये। किसी को रूई में लपेटकर आग में धीमे-धीमे जलाया गया तो किसी के शरीर के एक-एक अंग क्रमश: काट-काटकर शरीर से अलग कर दिए गए। गर्म तवे पर बैठाने और शरीर की चमड़ी उधेड़ लेने जैसे जधन्य कृत्य भी उन बलिदानियों को अपने धर्म और संस्कृति से दूर न कर सका।
किन्तु दशम् गुरु, गुरु गोविन्द सिंह जी ने इसका प्रतिकार करने का निश्चय कर सन् 1619 में पंच प्यारों को साथ ले खालसा पंथ की स्थापना की। ये पंच प्यारे समाज के उन वर्गों में से थे जिन्हें समाज अछूत कहा करता था। यह एक सामाजिक क्रांति की शुरुआत थी। फिर तो हर परिवार से एक बेटा खालसा पंथ का सैनिक होने लगा। हजारों खालसा सैनिकों ने तब से आज तक धर्म रक्षा हेतु अपने प्राणों का अर्पण किया है। आज अपना देश खालसा पंथ की स्थापना के 300 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में ‘त्रिशताब्दी समारोह’ मना रहा है।
हम भी प्रेरणा लें समय आने पर धर्म एवं संस्कृति की रखा हेतु सदैव सन्नद्ध रहेंगे। मौका आने पर शास्त्र ही नहीं शस्त्रों का प्रयोग करने से भी नहीं चुकेंगे। तभी स्थापित होगी स्थायी शान्ति।
- तुम्हारे पापा
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)
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