शिशु शिक्षा – 6 – शिशु विकास की विभिन्न अवस्थाएं

– नम्रता दत्त

इस सृष्टि में जो भी सजीव जन्म लेता है वह सतत् विकसित होता है अतः उसकी अवस्थाओं में परिवर्तन होना स्वाभाविक ही है। इसमें किसी भी जीव-जन्तु की अपेक्षा मनुष्य के विकास की गति धीमी होती है। जीव-जन्तु जन्म के बाद जल्दी ही स्वावलम्बी हो जाते हैं जबकि मनुष्य की संतान को इसमें समय लगता है और उसे स्वावलम्बी बनाने में माता-पिता/परिवार जन एवं वातावरण का सहयोग रहता है। अतः शिशु के विकास की विभिन्न अवस्थाओं का ज्ञान होना अति आवश्यक है तब ही तो वे उसके सही अर्थों में सहयोगी बन सकेंगे।

विकास की दृष्टि से शैशवास्था (0 से 5 वर्ष) ही जीवन की नींव है क्योंकि जीवन के विकास का 3/4 हिस्सा विकास इसी अवस्था में हो जाता है। सामान्यतः शिशु की वृद्धि को ही विकास का पर्याय मान लिया जाता है, परन्तु वृद्धि को विकास नहीं मान सकते। इन दोनों में सूक्ष्म अन्तर है। वृद्धि का अभिप्राय शिशु की शारीरिक वृद्धि से होता है जैसे – कद एवं वजन आदि का बढ़ना परन्तु विकास, परिपक्वता आने तक धीरे धीरे व्यवस्थित, क्रमबद्ध, विशेष तथा निश्चित प्रगट होने वाला परिवर्तन है। यह आकस्मिक नहीं होता। उदाहरण – शिशु बैठता है, रेंगता है, खड़ा होता है, चलता है……………..।

मनोवैज्ञानिक हारलॉक के अनुसार – मनुष्य जीवन के लिए विकास का अर्थ है व्यवस्थित तथा समानुगत परिवर्तन जो परिपक्वता की प्राप्ति में सहायक होता है।

 शैशवास्था (0 से 5 वर्ष) में विकास की प्रक्रिया को समझने के लिए इसे तीन भागों में बांटा जा सकता है –

  1. गर्भावस्था – 0 (अर्थात् गर्भावस्था से भी पूर्व) से जन्म तक।
  2. पूर्व शैशवास्था – जन्म से तीन वर्ष तक।
  3. शैशवास्था – तीन वर्ष से पांच वर्ष तक।

विस्तार में तीनों भागों की क्रमशः चर्चा आगामी सोपानों में करेंगे। यहां संक्षेप में ‘विकास’ की सूक्ष्म जानकारी लेने का प्रयास करते हैं।

गर्भावस्था – गर्भावस्था से भी पूर्व जब दम्पति, माता-पिता बनने का विचार करते हैं तो उनके मनोभाव, आपसी सम्बन्ध एवं संतान के प्रति उनकी आस्था गर्भ धारण को प्रभावित करती है। शिशु के विकास की अवस्था का यह प्रथम चरण है। गर्भाधान के समय भी दम्पति को शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्वस्थ होना चाहिए तब शिशु का पिंड स्वस्थ बनेगा। जन्म के पूर्व गर्भावस्था मे विकास की गति बहुत तीव्र होती है। एक छोटा सा बीज नौ मास में 20 इंच लम्बा एवं 3.5 किलोग्राम का हो जाता है।

गर्भस्थ शिशु पर माता के मनोभावों, कल्पनाओं, अपेक्षाओं, संस्कारों एवं भोजन आदि का विशेष प्रभाव पड़ता है। अतः श्रेष्ठ संतान के निर्माण के शास्त्रीय 16 संस्कारों में से 02 संस्कार (पुंसवन एवं सीमन्तोनयन) गर्भावस्था में ही किए जाते हैं। अतः विकास की यह अवस्था शिशु के समग्र विकास के लिए नींव है। इस अवस्था में अन्नमयकोश से लेकर आनन्दमयकोश तक की अनुभूति गर्भ को होती है जो कि जन्म के पश्चात् नहीं होती।

कहते हैं – फसल अच्छी चाहिए तो बीज की चिन्ता करो और भवन अच्छा चाहिए तो नींव की चिन्ता करो।

निश्चित रूप से इस अवस्था के प्रति सजग और सचेत रहने की आवश्यकता है क्योंकि इसके कारण ही भावी योजनाएं फलीभूत हो पाएंगी।

पूर्व शैशवास्था – शिशु के जन्म के पश्चात् से तीन वर्ष तक की अवस्था को पूर्व शैशवास्था कहेंगे। जन्म के पश्चात जातकर्म संस्कार किया जाता है। 10 दिन के पश्चात् नामकरण संस्कार और चालीस दिन के पश्चात् निष्क्रमण संस्कार किया जाता है। दो माह तक शिशु का विकास स्थिर सा हो जाता है क्योंकि गर्भ और बाहर के वातावरण में सामंजस्य बिठाने में उसे समय लगता है। इस समय (दो माह में विकास की गति बढती हैं। वह क्रमशः करवट लेना, बैठना, रेंगना, दांत निकालना, अपनों को पहचानना आदि प्रारम्भ कर देता है। छः माह तक माता का दूध ही उसका आहार होता है। इसे क्षीरादावस्था कहते हैं। अब उसके दांत निकल आए हैं तो वह दूध के समान स्वरूप (दूध जैसा पतला) अन्न ले सकता है। इसे क्षीरादान्नादावस्था कहते हैं। इस समय अन्नप्राशन संस्कार किया जाता है। अब ज्ञानेन्द्रियों के साथ उसकी कर्मेन्द्रियां (हाथ, पैर एवं वाणी) भी सक्रियता की ओर अग्रसर होती है। तीन वर्ष की अवस्था तक वे लगभग सक्रिय हो गई हैं लेकिन पूर्णता अभी बाकी है। वह चलता है, चढ़ता है, खाना खाता है, (अन्नादावस्था) व्यवहारिक वाक्य बोल लेता है, शौच आदि बताता है, प्रश्नों के उत्तर देता है। अपनी चीज को पहचानता है, किसी को देना नहीं चाहता है। माता-पिता को उसे उचित वातावरण देने की आवश्यकता है।

शैशवास्था – तीन से पांच वर्ष का शिशु इस अवस्था में आता है। अपने स्वाभाविक गुणों के कारण विकासशील शिशु अन्तः प्रेरणा से अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए अब सक्रियता चाहता है। सक्रियता से उसे आनन्द की अनुभूति होती है अतः वह निरूद्धेश्य निष्काम भावना से बड़ों का अनुकरण करके उनके जैसा हर एक कार्य करना चाहता है। अपने कार्य में सिद्धता प्राप्त करने के लिए वह किसी योगी की भांति साधना करता है। ऐसे में जिस वातावरण में रहता है उसके संस्कार वह अनायास ही ग्रहण कर लेता है। वह कूदता है, उछलता है, दौड़ता है, फेंकता है, कैच करता है आदि आदि। अपने आप से व मित्रों से वार्ता करता है, खिलौने खेलता/बांटता है। कल्पना से कहानी सुनाता है। रिश्तों को पहचानता है।

शिशु को उसके विकास की अवस्था के अनुरूप ही संस्कारक्षम उपयुक्त वातावरण देना ही माता-पिता एवं परिवार का दायित्व है। अतः शिशु का लालन पालन सजगता से करना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। इस चुनौती की स्वीकार्यता ही देश का गौरव बढाएगी क्योंकि यह शिशु ही कल का भविष्य हैं।

इस श्रृंखला के अगले सोपान में हम पूर्व गर्भावस्था एवं गर्भावस्था पर विचार करेंगे।

(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती उत्तर क्षेत्र शिशुवाटिका विभाग की संयोजिका है।)

और पढ़ें : शिशु शिक्षा – 5 – परिवार में शिशु संगोपन (पालना) की व्यवस्था

One thought on “शिशु शिक्षा – 6 – शिशु विकास की विभिन्न अवस्थाएं

  1. बहुत सुन्दर व उपयोगी जानकारी

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