✍ दिलीप वसंत बेतकेकर
एक अत्यंत गरीब आदमी, भरी दोपहरी में, तपती धूप में, बगैर चप्पल पहने, रास्ते से जा रहा था। धूप से पैर जल रहे थे। पग-पग चलते वह ईश्वर को और अपने भाग्य को कोस रहा था। उसी रास्ते पर और लोग आलीशान, वातानुकूलित गाड़ियों से जा रहे थे, और उस गरीब आदमी को चप्पल तक नसीब नहीं थी। वह अपने शरीर और मन में भी अत्यधिक थकान, कष्ट अनुभव कर रहा था!
अचानक उसने सामने से एक आदमी आता हुआ दिखा, उसका एक ही पैर था। बगल में बैसाखी लिए अत्यंत कष्ट से वह एक एक पग चल रहा था। उसे देखते ही उस गरीब आदमी के मन में एक विचार बिजली सा कौंध गया। गाड़ियों से जाने वाले व्यक्तियों से जब वह अपनी तुलना कर रहा था तब वह स्वयं को बदनसीब मान रहा था, किन्तु उस एक पैर वाले पीड़ित को देखने पर उससे तो हम अधिक भाग्यवान है सोचकर वह सुख अनुभव करने लगा।
I had the blues, because I had shoes until upon the street I met a man who had no feet.
स्वयं की तुलना दूसरों से करना, स्पर्धा करना ये मानव की गलत आदत है। परीक्षा उपरान्त उत्तर पुस्तिका के मूल्यांकन पश्चात विद्यार्थी को उत्तर पुस्तिका परखने के लिए दी जाती है, परन्तु जिस उद्देश्य से ये उत्तर पुस्तिका दी जाती है वह एक तरफा हो जाता है, और बच्चे अपनी उत्तर पुस्तिका का मिलान दूसरों की उत्तर पुस्तिका से करने लगते हैं, तुलना करने लगते हैं, किसको कितने अंक मिले हैं? मेरे अंक क्यों काटे गए, फलां के क्यों नहीं? यही हिसाब होता रहता है अधिकतर!
इस तुलना का, स्पर्धा का परिणाम क्या यह कहने की आवश्यकता नहीं है। हताशा, निराशा! कभी कभी जलन, द्वेष और कभी तो आत्महत्या का विचार! अतः यह स्पर्धा जीवन समाप्ति तक हो जाती है। क्या तुलना, स्पर्धा नहीं होनी चाहिए क्या? दूसरों से तुलना, स्पर्धा निश्चित ही मारक; गंभीर परिणाम देने वाली! परन्तु स्वयं की तुलना स्वयं से करें तो, परिणाम अच्छे होते हैं। अर्थात तुलना, स्पर्धा निरोगी कह सकते हैं। पालक और शिक्षकों ने भी एक दूसरे विद्यार्थी की आपस में तुलना नहीं करनी चाहिए। यदि बच्चे पालक, शिक्षक की तुलना करने लगे, तो कैसा लगेगा?
पिछली परीक्षा की तुलना में इस बार मुझे कम अथवा अधिक अंक मिले हैं, और अधिक कैसे मिलेंगे ऐसा विचार, तुलना करें तो, निराशा प्राप्त नहीं होगी। मेरी स्पर्धा, अन्य किसी के साथ न होकर मेरे स्वयं से है, ऐसी दृष्टि रखें तो उत्साह बढ़ेगा। पूर्व के यश की अपेक्षा आने वाली परीक्षा में, थोड़ा सा क्यों न हो, पर, अधिक यश मिले यह संकल्प करें और यह संकल्प पूरा करने हेतु परिश्रम करें तो प्रसन्नता और संतोष प्राप्त होगा। मानो छ: माही परीक्षा में सत्तर अंक प्राप्त हुए इसका अर्थ क्या? यहां तक तो पहुंच ही गए हैं। अर्थात इससे कम अंक तो नहीं होंगे- सत्तर तक तो पहुंच ही गए हैं। सत्तर तो प्रश्न ही नहीं उठता। अतः अब अगला लक्ष्य बहत्तर पछत्तर का! एक दम नब्बे के लिए जल्दबाजी न करें। अन्य लोगों को कितने अंक मिले इससे हमें कोई मतलब नहीं, उन्हें कितने भी क्यों न मिले हो। मुझे पिछले समय से अधिक अंक मिलने चाहिए। यही, अभी, मेरा उद्धिष्ट है। तुलना, स्पर्धा दूसरों से करना अत्यंत घातक रहती है। मछली और बंदर की पेड़ पर चढ़ने की आपस में स्पर्धा नहीं हो सकती। तैरना यह मछली का बल स्थान है तो पेड़ पर चढ़ना मृत्यु स्थान है। तुलना और स्पर्धा में सदैव दूसरों की ओर देखना होता है, परन्तु स्वयं की स्पर्धा स्वयं से होने के कारण हम अपने आप में ही देखते हैं। अंतर्मुख होकर आत्म परीक्षण करना होता है। निरंतर आत्म परीक्षण करना पड़ता है।
The fastest way to kill something special is to compare it to something else.
कितना सुन्दर विचार है यह! तुलना अर्थात ‘आनंद’ को चुराने वाला चोर है, ऐसा कहते थे थिओडोर रूजवेल्ट्। दूसरों से तुलना और स्पर्धा करना शुरू हुआ तो उसका अंत नहीं है। उससे प्रसन्नता और संतोष तो मिलता ही नहीं, अपितु हवश, अशांति, चिकचिक, असंतोष ही प्राप्त होता है। इसीलिए मोह होने पर भी स्पर्धा, तुलना को टालना ही बेहतर रहेगा।
अनेक बार हम तुलना कैसे करते हैं? कोई अत्यंत कम समय में उच्च स्थान प्राप्त करता है, किन्तु हमने तो अभी शुरुआत की है, तो उससे तुलना करना अनुचित है। इसीलिए जान एकफ सावधानी का इशारा करते हुए कहते हैं – Don’t compare your – beginning to someone else middle.
प्रत्येक के अपने बल स्थान (strength) और कमजोर स्थान (weakness) होते हैं। इस बात को मानना ही पड़ेगा। स्वीकारना पड़ेगा। हम तभी यशस्वी हो सकेंगे। किसी अन्य का मार्ग, यात्रा और उद्दिष्ट भिन्न हो सकता है। उसी के अनुसार वह चलता है। हमें अपने उद्दिष्ट को दृष्टिगत रखते हुए अपनी दिशा, गति तय करनी होगी। जहां हमें बाधा का अनुभव हो, आत्मविश्वास की कमी हो, तब अवश्य हमें दूसरों से सहायता लेने में हिचकिचाना नहीं चाहिए।
स्पर्धा और तुलना में पराज्य अथवा पीछे रह जाने का भय सदैव रहता ही है। अतः स्वाभाविकतः कार्यक्षमता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। स्वयं की स्वयं से तुलना, स्पर्धा करने से आत्मविश्वास में वृद्धि होगी, अधिक अध्ययन, अभ्यास करने की प्रेरणा अंदर से जागृत होगी।
ना ही तुलना, ना ही स्पर्धा, होगा जिनसे प्राण आधा।
स्वयं से स्पर्धा, तुलना स्वयं से ना रखेगा तुमको प्यासा।
(लेखक शिक्षाविद, स्वतंत्र लेखक, चिन्तक व विचारक है।)
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