✍ दिलीप वसंत बेतकेकर
स्वामी विवेकानन्द एक बार एक छोटे से पुल से जा रहे थे, पुल के नीचे बहुते हुए पानी में अंडों के कवच भी बहुत जा रहे थे। कुछ बच्चे बंदूक से उन कवचों को निशाना बना रहे थे। परंतु किसी का भी निशाना सही नहीं लग पा रहा था। यह देखकर स्वामी जी को थोड़ी हंसी आ गई। लड़कों को गुस्सा आ गया। एक लड़के ने स्वामी जी को ललकार कर बोला- “आपको निशाना लगाना आता है क्या?” इस पर स्वामी जी बोले “देखता हूँ, प्रयास करता हूँ।” उन लड़कों ने स्वामी जी के हाथों में बंदूक थमा दी। स्वामी जी ने लगातार तीन चार छिलकों को अचूक भेदन कर दिया। वो लड़के बस अवाक रहकर देखते ही रह गए!
आपने निशाने बाजी का प्रशिक्षण लिया है क्या? बच्चों ने स्वामी जी से पूछा। नहीं तो! मैंने तो बंदूक प्रथम बार ही हाथ में ली है। स्वामी जी ने उत्तर दिया। फिर आपसे यह कैसे संभव हुआ? लड़कों ने पूछा।
स्वामी जी ने कहा- एकाग्रता। एकाग्रता से सारे कार्य संभव हो जाते हैं! स्वामी विवेकानंद एक दृष्टिक्षेप से ही पुस्तक का एक पूरा पढ़ लेते थे। पुस्तकालय से लाई पुस्तक एक दिन में ही पढ़कर वापिस कर देते थे। इतनी उच्चकोटि की एकाग्रता के धनी होते हुए भी वे कहते थे कि मुझे अभी भी अध्ययन हेतु शाला (कॉलेज) में जाने का अवसर मिला तो मैं गणित, भूगोल, इतिहास जैसे विषय नहीं पढूंगा, वरन मैं एक ही बात आत्मसात करने का प्रयास करूंगा, और वह है एकाग्रता! एक बार एकाग्रता प्राप्त हो गई तो फिर कोई भी विषय सीखना अत्यंत सहज है।
एकाग्रता सम्पूर्ण ज्ञान की चाभी है, ऐसा स्वामी विवेकानंद जी का कहना था। अर्जुन की यही एकाग्रता ही उसकी सबसे बड़ी ताकत थी। पेड़ पर बैठे पक्षी की आंख के अतिरिक्त, मछली की आंख के अतिरिक्त उसे इर्दगिर्द की कोई भी वस्तु दिखाई नहीं देती थी। इसलिए वह अपने लक्ष्य पर अचूक निशाना लगा सकता था।
अपनी सबसे प्रमुख बाधा है एकाग्रता का अभाव हमारी वैसी ही स्थिति है जैसे कोई व्यक्ति हाथ में जपमाला लिए हुए मुंह से जप करता हो किन्तु मन में ढेरों अन्य विचार चल रहे हो, उस व्यक्ति जैसे।
माला तो कर में फिरें, जीभ फिरें मुख माही।
मनुआ तो चहुं दिशा फिरे, यह तो समिरण नाही।।
अर्थात हाथ में जपमाला फिरती है, जुबान पर ‘श्री राम जय राम जय जय राम’ ये मंत्र रहता है, परन्तु मन इधर उधर भटक रहा है, मंत्र की ओर बिल्कुल ध्यान नहीं, यह कोई नाम स्मरण नहीं कहलाता!
अनेक लोगों की अध्ययन के समय यही स्थिति रहती है। आँखे भले ही पुस्तक के अक्षरों पर हो परन्तु मन कहीं और होता है। ऐसे अस्थिर मन का वर्णन संत बहिना बाई ने किया है-
मन वढाय वढाय उभ्या पीकातलं ढोर,
किती हाकला हाकला फिरी येत पीकावर
यह एकाग्रता हम कब साध सकेंगे?
जिस विषय में रुचि हो, उसमें अपने आप ही ‘एकाग्रता’ सुध जाती है, ऐसा अनुभव है। उदाहरण – खेल, टीवी आदि कभी कभी तो कोई कार्य करते हुए भी हमें समय, नींद, भूख, प्यास आदि का ध्यान नहीं रहता है। सब भूल जाते हैं। अर्थात उसमें हम ‘एकाग्र’ हो जाते हैं। अर्थात ‘एकाग्रता’ प्राप्त करना हमारे लिए असम्भव नहीं है। ‘एकाग्रता’ में वृद्धि हेतु हमें और क्या करना होगा?
ध्यान अध्ययन प्रारंभ करने के पूर्व आँखे बंद करके दो तीन मिनट से लेकर धीरे धीरे पांच मिनट तक के समय तक शांति से, बगैर हिले डुले, पीठ सीधी रखते हुए बैठे। अपनी आँखों के समक्ष अपनी इष्ट देवता की प्रतिमा का अनुभव करें तो उत्तम होगा। सारा ध्यान अंदर बाहर चलने वाले श्वासोच्छवास पर भी केन्द्रित कर बैठ सकते हैं।
प्राणायाम अभ्यास प्रारंभ करने के पूर्व शितली, सितकारी, सदंती, अनुलोम-विलोम ये चार प्राणायाम सात-आठ मिनट करने से मन शांत, स्थिर, होने में सहायता मिलती है।
मोमबत्ती अथवा अगरबत्ती जलाकर अपने समक्ष दो तीन फिट की दूरी पर, आँखों की सीध में रखकर ज्योति की ओर देखे!
‘एकाग्रता’ साधने हेतु कुछ चित्र भी मिलते हैं। सफेद कागज पर मध्य भाग में एक छोटा सा केंद्र बिंदु (वलय) बनाकर सामने दीवार पर लटकाते है। उस बिंदु की ओर कुछ समय तक स्थिर दृष्टि से देखते हैं।
पुस्तक के किसी एक पृष्ठ के शब्द गिनते हैं, यदि गिनती करते समय मन में कुछ अन्य विचार आए तो गिनती को शुरू से दोहराते हैं। धीरे धीरे दो पृष्ठ के शब्दों की गिनती करते, फिर तीन, ऐसे बढ़ते जाना! सौ से शुरू कर उलटे क्रम से अंक गिनना, सौ से शुरू कर बीच के दो अंक छोड़ते हुए उल्टी गिनती करना, उदाहरण –(1) 100, 98, 96, (2) 100, 97, 95!! कोई भी वस्तु (पेंसिल, पेन आदि) आँखों के सामने रखकर अत्यंत बारीकी से उसका निरीक्षण करना!
इसके अतिरिक्त भी अन्य मार्ग हो सकते हैं ‘एकाग्रता’ साधने हेतु!
तो शुरू करें इस ‘एकाग्रता’ अभियान को!!
(लेखक शिक्षाविद, स्वतंत्र लेखक, चिन्तक व विचारक है।)
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