✍ वासुदेव प्रजापति
भारत के लिए यह एक अप्रत्याशित घटना थी। सन् 1600 ई. में ईस्ट इंडिया कम्पनी भारत में आई। सात समुद्र पार से एक कम्पनी का भारत में व्यापार करने आना वैसे तो एक सामान्य घटना थी, परन्तु यह घटना कालान्तर में एक भयंकर संकट खड़ा करने वाली सिद्ध हुई। यह भयंकर संकट जब भारत में आया तब हाथ में तलवार लेकर मारो-काटो, लूट लो, जला डालो या नष्ट कर दो जैसी गर्जना करते हुए नहीं आया था। भारत को युद्ध में जीतना मात्र इसका घोषित उद्देश्य नहीं था। इसके उद्देश्य तो कुछ और ही थे, यह संकट तो अपने ही प्रकार का एक अपरिचित संकट था।
अंग्रेज ने छद्मवेश अपनाया
अंग्रेज ने अपना असली रूप छुपाए रखा। वह असभ्य था परन्तु सभ्य दिखाई देता था। उसकी बोली भारत के लिए अपरिचित थी परन्तु लहजे व हाव-भाव से वह सभ्य लगती थी। वह व्यापारी बनकर भारत आया था। उसके छद्मवेश को न पहचानते हुए भारत ने उसे आश्रय दिया। उसने जो माँगा, भारत ने उसे वह सब दिया। भारत में वह अतिथि था, भारत ने उसका आतिथ्य किया। उसे अपनी पद्धति से यीशु की पूजा करने हेतु चर्च बनाकर दिये। भारत में व्यापार करने की अनुमति ही नहीं अपितु सभी प्रकार की व्यापारिक सुविधाएँ भी दिलवाई।
भारत में आने के लगभग सौ वर्षों बाद तक तो वह नम्र व दीन ही बना रहा, राजाओं के सामने झुकता ही रहा। शिवाजी महाराज जैसे कुछ राजाओं ने उसकी धूर्तता पहचान कर उसे दूर ही रखा। परन्तु लड्डू में मिला हुआ जहर भी खाते समय जीभ को तो मीठा ही लगता है, लेकिन शरीर में जाकर बाद में अपना विपरीत प्रभाव दिखाता है। ठीक वैसे ही वह संकट ऊपर से देखने पर तो संकट नहीं लगता था, परन्तु अन्दर ही अन्दर वह अपना प्रभाव जमा रहा था। यदि एक साथ पर्याप्त मात्रा में विष खाया जाए तो व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, परन्तु किसी व्यक्ति को कण-कण विष खिलाया जाए तो वह तत्काल नहीं मरता अपितु अन्दर ही अन्दर खोखला होता जाता है। वैसे ही अंग्रेज नामक वह संकट जो ईस्ट इंडिया कम्पनी के रूप में भारत आया था, वह भारत की देह को विषैला बना रहा था। भारत के स्वभाव को ही बदल रहा था।
अंग्रेजों ने भारत के ‘स्व’ को बदला
यह संकट धीरे-धीरे भारत पर छा रहा था। जैसे किसी बर्तन पर धूल की परत चढ़ जाती है, वैसे बाहरी स्वरूप में नहीं छा रहा था। जिस प्रकार लोहे को जंग लगकर धीरे-धीरे उसका क्षरण होता है, उस प्रकार का क्षरण भी नहीं हो रहा था। फिर वह कैसा था? वह तो इनसे भी गहरा था। जैसे तामसी आहार जीभ को अच्छा लगता है, परन्तु जब उस आहार का रस बनकर रक्त में मिलता है तब वह संस्कार बनता है। इसलिए हमारे यहाँ कहा गया है, “जैसा खावे अन्न वैसा बने मन”। वह संकट भी भारत का मन बदलने जैसा आन्तरिक संकट था।
भारत जैसे अनुभवी, बुद्धिमान व चतुर देश के लिए यह घोर आश्चर्य की बात रही कि वह इतने गहरे संकट को उसके असली स्वरूप में क्यों नहीं समझ पाया? उसे न समझने का दोष संकट का नहीं है, संकट तो मूल में जैसा था वैसा ही रहा। अंग्रेज को तो स्वार्थ वश जो करना चाहिए था, वही किया। पराई भूमि में जिस प्रकार से अपना स्थान जमाया जा सकता है, वैसे ही उसने अपने पैर जमाये। ऐसे संकट को पहचानना तो भारत को ही चाहिए था।
भारतीयों का असंगठित होना
कुछ लोगों का मानना है कि उस समय भारत में सेकड़ों छोटे-छोटे राज्य थे। उनमें से अधिकांश राज्य छोटे-मोटे कारणों से आपस में ही लड़ते-झगड़ते रहते थे। उनमें राष्ट्रभाव का अभाव था, राष्ट्रहित के स्थान पर स्व हित का पहले विचार करते थे। इस स्वार्थवृत्ति के कारण वे राष्ट्र पर आने वाले संकट के समय भी एक नहीं होते थे। आक्रमण तो पड़ोसी राज्य पर हुआ है, हम पर थोड़े ही हुआ है, फिर हम क्यों उन दोनों के बीच में पड़े? इस संकीर्ण मानसिकता के कारण एक राजा दूसरे राजा को हारता हुआ देखता रहता था, परन्तु उसकी सहायता नहीं करता था। अंग्रेजों ने भारत की इस कमी का लाभ उठाया। वे पड़ोसी राजाओं को एक होने नहीं देते और एक-एक कर दोनों ही राज्यों को अपने हस्तगत कर लेते थे। इस प्रकार अंग्रेज अपने उद्देश्य में सफल होते गये।
कुछ लोगों का मत थोड़ा भिन्न है। उनका मानना है कि भारत में छोटे-छोटे राज्य होना केवल उस समय की घटना नहीं थी। भारत में युगों से इसी प्रकार से विकेन्द्रित शासन व्यवस्था चल रही थी, और तब से भारत एक राष्ट्र बना रहा है। अतः जिस प्रकार भारत का गुलाम होना अंग्रेजों का दोष नहीं माना जाता, उसी प्रकार भारत के असंगठित होने में भारत को दोष नहीं दिया जा सकता।
भारत को अंग्रेजियत का रोग लगा
अंग्रजों ने अपने स्वभाव के अनुसार जो-जो छल-कपट वे कर सकते थे, वह सब किया। इसके विपरीत भारत ने अपने स्वभाव के अनुसार उनके साथ जितना सद्-व्यवहार कर सकता था, वह सब किया। सद्-व्यवहार करने के उपरांत भी परिणाम जो होना था, वही हुआ। भारत को अंग्रेजियत नामक रोग लग गया। यह ऐसा दु:साध्य रोग लगा है कि भारत स्वतंत्र होने के बाद भी गया नहीं, आज तक बना हुआ है। आज भी अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों को अंग्रेज़ी संस्कृति का पालन करने में गर्व की अनुभूति होती है और भारतीय संस्कृति के प्रति हीनता बोध से ग्रसित हैं। उस समय के हमारे पूर्वजों को कोसते रहने से यह रोग दूर होने वाला नहीं है, इससे तो केवल आत्मग्लानि ही बढ़ने वाली है। इसलिए उसमें न उलझकर रोगमुक्त होने में हमारी शक्ति का विनियोग करने की आवश्यकता है। अन्यथा अपने ही लोगों में दोष ढूंढते रहना भी इस अंग्रेजियत नामक रोग का ही लक्षण है।
राज्य करना उनकी प्रथम वरीयता नहीं थीं
भारत में आने के लगभग 150 वर्ष बाद अंग्रेजों को पहली बार सन् 1756 के प्लासी के युद्ध में विजय प्राप्त हुई थी। इस विजय के बाद ही उन्होंने अन्य राज्यों पर विजय प्राप्त करनी शुरु की थी। परन्तु यहाँ एक बात हमें समझनी चाहिए कि शासन करना अंग्रेजों की प्रथम वरीयता नहीं थी। वे तो धन की खोज में भारत आए थे, येन-केन प्रकारेण धन लूटना चाहते थे। लूट करने में उन्हें कोई परहेज नहीं था। उस समय सातों सागरों में लूट करने वालों का ही बोलबाला था। लूट करना उनके लिए कोई अस्वाभाविक बात नहीं थी। इसलिए भारत में भी धन की लूट करना उनका प्रमुख उद्देश्य था, यही उनकी प्रथम वरीयता भी थीं।
सीधी-सीधी लूट तो एक ही बार हो सकती है बार-बार तो लूट नहीं की जा सकती। परन्तु अंग्रेज बहुत चालाक था, उन्होंने लूट को ही व्यापार का जामा पहना दिया। व्यापारी बनकर ही वे भारत में आए थे, व्यापार भी उनका एक बहाना ही था, और छद्मवेशी कम्पनी भी एक छलावा ही था।
राज्य हथियाना लूट में सहयोगी बना
राज्यों में सत्ता स्थापित करने से राज्य संचालन के अधिकार मिल गए। केवल संचालन ही नहीं, व्यापार करने की नीतियाँ अपने हितों के अनुरूप बनाना, उत्पादन सामग्री सस्ती खरीदना और उत्पाद मँहगे बेचना आदि कार्य बड़ी ही सरलता से होने लगे। तब उनके ध्यान में आया कि राज्य हथियाने से लूट की खुली छूट मिल जाती है। उसके बाद तो उन्होंने राज्य हथियाने के कार्य में बड़ी तत्परता दिखाई और सभी प्रकार के हथकंड़े अपनाते हुए सम्पूर्ण देश पर अपनी सत्ता स्थापित कर ली। इस कार्य में उन्हें लगभग सौ वर्ष लगे, सन् 1757 से लेकर 1857 तक की अवधि में उन्हें इस कार्य में यश मिला। सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों को विजय तो मिली, परन्तु ईस्ट इंडिया कम्पनी को बहुत बुरी मार खानी पड़ी थी। परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार ने भारत का शासन ईस्ट इंडिया कम्पनी से स्वयं के हाथों में ले लिया। इस प्रकार 1858 से लेकर 1947 तक भारत की सत्ता ब्रिटिश सरकार के हाथों में रही, अर्थात् लगभग 89 वर्षों तक ब्रिटिशों के साम्राज्यवादी शासन ने भारत को अपना गुलाम बनाये रखा।
इस प्रकार छद्मवेश के सहारे पहले अपने पैर जमाए। धीरे-धीरे यहाँ के लोगों के मन में जगह बनाई, फिर उनके मनों में यहाँ की श्रेष्ठ संस्कृति को हेय बताकर उसके प्रति अश्रद्धा खड़ी की और अंग्रेज़ी संस्कृति को महान बताकर उसे अपनाने हेतु प्रेरित किया। अंग्रेजी शिक्षा को इन सबका माध्यम बनाकर उन्होंने भारतीयों का मानस बदला और देश में अंग्रेजों की नौकरी करने वालों की एक बहुत बड़ी सेना बना डाली। इन काले अंग्रेजों की सेना ने ही अंग्रेजी शासन को बनाए रखने में सब प्रकार की सहायता की। यह सब करने के लिए भले ही उन्हें अपने ही भाइयों का खून बहाना पड़ा तो बहाया, परन्तु अंग्रेजी शासन के प्रति अपनी वफादारी निभाने से नहीं चूके। इन सब कारणों से भारत गुलाम हुआ।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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