– डॉ. बालाराम परमार ‘हँसमुख’
आजकल समाज में सभी उम्र के नर नारी में बात बात पर गाली गलौज करने की आदत बढ़ती ही जा रही है। सामान्य और सहज लगने वाली गाली गलौज लोगों की जीवन शैली का हिस्सा बन कर एक गंभीर सामाजिक समस्या बन गई है। जिसके फलस्वरूप तरुणों तरुणों की प्राथमिक और द्वितीयक समाजीकरण की प्रक्रिया दूषित हो कर उनके कोमल मन-मस्तिष्क पर नकारात्मक प्रभाव देखने को मिल रहा है। आजकल अबोध बालक भी घर आंगन गाली गलौज करने में आत्मग्लानि महसूस नहीं करते! यह सभ्य समाज के लिए चिंता करने का विषय है। गाली गलौज से द्वेष और इर्शा की प्रवृत्ति पनपतीं है,जो न केवल व्यक्तिगत संबंधों को प्रभावित करती है, बल्कि सामाजिक संबंधों में भी खटास पैदा करती है और तरुणों के मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य और आत्मसम्मान को भी नुकसान पहुंचाती है। फिल्म जगत और साहित्य रचना में बढ़ती गाली गलौज की प्रवृत्ति के कारण तरूण अपने दैनिक वातावरण में असहज महसूस करने लगते हैं और उनके आत्मविश्वास में कमी आती है।
सुसंस्कृत होने का दावा करने वाले सफेदपोश लोगों पर प्रो. सुनील जागलान द्वारा “आपके राज्य में कितने प्रतिशत गाली देते हैं”, विषय पर किये गये सर्वे का अध्ययन चौंकाने वाला खुलासा करता है। अध्ययन में पाया गया है कि भारत के सभी प्रान्तों के संभ्रांत और अप्रतिष्ठित दोनों वर्ग के लोग में अपशब्दों के प्रयोग किए जाने की प्रवृत्ति पाई जाती है।
उत्तरी राज्य दिल्ली में 80%, पंजाब में 78%, उत्तर प्रदेश और बिहार में 74%, राजस्थान में 68%, महाराष्ट्र में 58% एवं गुजरात में 55% परिवारों में गाली गलौज करने का प्रचलन है। जबकि दक्षिणी और पूर्वोत्तर राज्यों में क्रमशः प्रतिशत कम है। सिक्किम, जम्मू कश्मीर और लद्दाख में 15% लोग गाली गलौज करते हैं।
इन शोध परख आंकड़ों ने राष्ट्र निर्माताओं और भारत को विश्व गुरु बनाने की राह खोजने व प्रशस्त करने वाले चिंतकों का ध्यान आकर्षित होना और कान खड़े होना स्वाभाविक है! क्योंकि भारत की शिक्षा व्यवस्था में राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 तथा राष्ट्रीय पाठ्यचर्या 2023 में ज्ञान आधारित तथा जीवन मूल्य आधारित गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के माध्यम से देश की अगली पीढ़ी को गढ़ने की एक नई दृष्टि दी है।
फिल्मी दुनिया के चमकते सितारों, चुनाव जीत कर सरकार चलाने वाले राजनीतिक दलों के नेताओं, सफ़ेदपोश उलेमाओं, समाजवाद का चोला पहनकर मसीहा बनने वाले और अट्टालिकाओं में रहने वालों की दुनिया की शान शौकत को आमजन आदर्श मानते हैं। लेकिन अगर इन सफेदपोश लोगों के चाल चरित्र को थोड़ा खुर्रेचे तो एक आदमखोर चिंताजनक प्रवृत्ति सामने आती है, और वह यह है कि इन धवल कपड़ों की आड़ में गाली गलौज की शर्मनाक संस्कृति फल फूल रहीं हैं? आजकल फिल्मों, सोशल मिडिया पर लिखी जाने वाली सामग्री में गाली गलौज आम बात होती जा रही है।
फलस्वरूप, गाली गलौज के स्वीकारोक्ति वातावरण में पढ़े-लिखे तरुण यह मानने लगे हैं कि उन्होंने बचपन में माता-पिता, आस पड़ोस और यहां तक कि उनके अध्यापक के मुखाग्र से गलियां सुनी है और कभी-कभी खुद भी इसके शिकार हुए हैं। इसलिए इसे काम का तनाव या जोश का प्रतीक मानकर गाली बकने के आदी होते जा रहे हैं।
तरुण वर्ग गाली गलौज करने में सहज क्यों होता जा रहा है? इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार करने पर पाया गया है कि तरुण अबोध अवस्था से ही हरामी, साला, हरामखोर , कुत्ता, कमीना, नीच, सुअर, चाण्डाल, और अंग्रेजी शब्द शीट, एस्सहोल और बुलशिट आदि के साथ ही साथ इससे भी गई गुजरी आवाज़ घर-आंगन, आस-पड़ोस व बड़े बुजुर्गो से सुनते आए हैं। फिर हर्ज क्या है!!
घर-आंगन, आस-पड़ोस और समाज में ऐसी अशोभनीय प्रवृत्ति क्यों पाई जाती है, के संदर्भ में खोजबीन करने से ज्ञात होता है कि परिवार और समाज के लोग किसी के दम्भ को तोड़ने के लिए गली का प्रयोग करते हैं। अधिकांश लोग अपना काम समय पर पूरा नहीं होने के तनाव और दबाव अथवा समय की कमी के कारण आपा खो देते हैं और गलियों का सहारा लेते हैं। भारतीय समाज में गाली गलौज की बढ़ती प्रवृत्ति को देखकर हास्य-व्यंग्य कलाकार एवं कविग्राम पत्रिका के संपादक चिराग जैन इसे गली-गलौज का स्वर्ण युग मानते हैं।
दो या दो से अधिक लोगों के बीच अपशब्द या घृणित शब्द का धड़ल्ले से प्रयोग करने की प्रवृत्ति का सोशल मीडिया पर विकृत असर दिखने लगा है। अभद्रता का मामला सार्वजनिक स्थानों पर होता देख कर आपत्तिजनक टिप्पणियों पर देश के सर्वोच्च न्यायालय ने भी चिंता जताई है।
शोध और बोध में मजेदार तथ्य यह उजागर होता है कि अलग-अलग संस्कृतियों में अच्छी और बुरी गलियों का मापदंड भी अलग-अलग होता है। किसी किसी समाज में सगे संबंधियों को विशेष कर ‘मां- बहन’ से जुड़ी गालियां दी जाती है और कोई प्रतिकार नहीं होता! कुछ संभ्रांत समाज और समुदाय में जानवरों और कीड़े मकोड़े से तुलना संबंधी गाली दी जाती है। पुर्तगाली और स्पेनिश में ‘वाका और जोर्रा’ शब्दों का प्रयोग करके गाली दी जाती है।
जिसका मतलब लोमड़ी और गाय होता है। जब किसी महिला को यह गलियां दी जाती है तो इसका मतलब खराब चरित्र की महिला, और जब यही गलियां पुरुषों को दी जाती है तो इसका अर्थ चालक और ताकतवर सांड हो जाता है।”
ज्ञान पिपासा शांत करने के उद्देश्य से भारतीय प्राचीन ग्रंथों के अवलोकन के सिलसिले में श्री भर्तृहरि के वैराग्यशतक के “संकीर्णश्लोक २५” में गाली गलौज नहीं करने संबंधी एक श्लोक मिला। यथा –
‘‘ददतु ददतु गालीं गालिमन्तो भवन्तः
वयमपि तदभावाद् गालिदानेऽसमर्थाः।
जगति विदितमेतद् दीयते विद्यमानम्
न हि शशकविषाणं कोऽपि कस्मै ददाति॥’’
जिसमें गाली का प्रतिवाद अर्थात गाली को बुराई मानते हैं और समाज को नैतिक शिक्षा देते हैं कि –
“दीजिए, दीजिए गालियाँ आप तो गाली वाले हैं, उसके (अर्थात गाली के) अभाव से हम तो गाली देने में असमर्थ हैं। संसार में ये बात प्रसिद्ध है कि विद्यमान वस्तु (जो कुछ है) को ही दिया जाता है, कोई भी किसी के लिए खरगोश के सींग नहीं देता है।”
इस प्रसंग से सिद्ध होता है कि एक-दो अपवाद जैसे कि चेदि राज्य के राजा और श्रीकृष्ण के मौसेरे भाई ने राजसूय यज्ञ के दौरान श्रीकृष्ण का अपमान करते हुए भले-बुरे वचन को छोड़कर सनातन धर्म में गाली गलौज की परंपरा आदि अनादि काल से नहीं रही है।
अलबत्ता रोमन सभ्यता में 8वीं शताब्दी ईसा पूर्व में पश्चिमी रोमन कवियों द्वारा सार्वजनिक तौर पर राजनीतिक हस्तियों के लिए गलियों का प्रयोग किये जाने का प्रमाण मिलता है। जैसे कि – ‘क्या तुम मुर्गियां हो’? ‘आप अपनी परछाई से डरते हो’? ‘आप बहरे गूंगे हो’? आदि।
पाश्चात्य साहित्य का अध्ययन करने पर पता चलता है कि विलियम शेक्सपियर 16वीं और 17वीं शताब्दी के लेखक थे, जिन्होंने ‘हैमलेट’, ‘रोमियो और जूलियट’, और मैकबेथ आदि रचनाओं में गाली गलौज को भरपूर स्थान दिया गया है।
बानगी देखें – ‘वह विकृत, टेढ़ा, बुढ़ा और शुष्क है’, ‘उसका चेहरा खराब है, शरीर खराब है, हर जगह बेडौल है’, ‘दुष्ट, असभ्य मूर्ख, रूखा, निर्दयी, कलंकित करने वाला मन से बुरा है।”
फ्रांस के कवियों की रचनाओं से एक की बानगी देखें- ‘‘तुम हमें डरा नहीं सकते, अंग्रेज सूअर-कुत्तों। मूर्खों की औलाद।”
क्या कहता है मनोविज्ञान?
तरुणों पर गाली-गलौज के दुष्प्रभाव को और गहराई से समझने के लिए मनोवैज्ञानिक नजरिया से परखने पर ज्ञात होता है कि गाली गलौज का युवाओं पर नकारात्मक प्रभाव बहुत गंभीर हो सकता है।

गाली गलौज से युवाओं में आत्मसम्मान और आत्मविश्वास कम हो सकता है, जिससे वे अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने में असमर्थ हो सकते हैं।
गाली गलौज के आदि होने पर युवाओं में आक्रामकता और हिंसा की प्रवृत्ति बढ़ सकती है, जो उनके व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को बर्बाद कर सकता है।
गाली गलौज से युवाओं के सामाजिक संबंधों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, जिससे वे अपने दोस्तों, परिवार और समाज से दूर हो सकते हैं।
गाली गलौज के आदि होने के कारण युवाओं में तनाव, चिंता और अवसाद जैसी मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं, जो उनके भविष्य को अंधेरे में धकेल सकतीं हैं।
समाज में गाली गलौज को बढ़ावा देने वाले कुछ समूह जैसे कि पुलिस, ड्राइवर, चोर-उचक्के और धनाढ्य घमंडी। इस समूह के लोग बिना गाली दिए ठीक से कोई बात ही नहीं कर पाते? उन्हें एहसास नहीं होता कि कब उनके मुंह से गाली निकल गई।
सरकार, समाज और परिवार की भूमिका क्या हो?
संविधान के अनुसार हमारे देश में कानून का राज है। प्रत्येक नागरिक के लिए कानून का पालन अनिवार्य होता है। इस संदर्भ में गाली गलौज के खिलाफ संसद और विधानसभाओं में ‘सी आर पी सी’की धारा 154 के तहत ‘एफ आर आई’ दर्ज करने तथा भारतीय दंड संहिता की धारा 294 कानून और नीतियों का सार्वजनिक रूप से प्रचार प्रसार किये जाने के प्रावधान पर युवाओं के चाल चरित्र निर्माण पर केंद्रित फिर से गंभीरतापूर्वक विचार किया चाहिए और उनका पालन नहीं करने वालों पर कठोर दंड का प्रावधान होना चाहिए। कार्यालय एवं सार्वजनिक स्थानों पर गाली देने को पूर्णतः गैर कानूनी घोषित कर देना चाहिए। यह सभ्य समाज की मांग है।
ज्ञातव्य है कि बालक के अंदर गुणों के विकास में समाजीकरण प्रक्रिया अहम भूमिका निभाती है। अतः समाज के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि वह सामुदायिक रूप से सकारात्मक और सम्मानजनक व्यवहार को बढ़ावा दे। सार्वजनिक स्थान पर एकत्रिकरण के समय उच्च कोटि के आचरण का प्रदर्शन करें और अच्छे आचरण, उज्जवल चाल चरित्र वाले सज्जन को सार्वजनिक रूप से सम्मानित किये जाने की प्रथा शुरू की जानी चाहिए।
परिवार बालक की प्रथम पाठशाला है। अतः घर के मुखिया को परिवार में गाली गलौज से बचने के लिए एक सकारात्मक और सम्मानजनक वातावरण निर्माण करने की जवाबदेही लेनी चाहिए। बच्चों को गाली गलौज के नकारात्मक प्रभाव के बारे में शिक्षित करते रहना चाहिए और उनके साथ संवाद करने और उनकी भावनाओं को समझने के लिए समय निकालना चाहिए।
इस तरह परिवार, सरकार, समाज और समुदायिक धार्मिक एवं सांस्कृतिक संस्थाओं के मिले-जुले प्रयास से प्रत्येक स्तर पर प्रेम, सौहार्द , भाई-चारा, सहिष्णुता और सहजता का व्यवहार करके आदर्श वातावरण तैयार कर हम हमारे तरुणों को गाली गलौज के इस नासूर बनी सामाजिक बुराइयों से बचा सकते हैं।
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