– गोपाल माहेश्वरी
“जय जय श्रीमन्नारायण” कहते हुए परिवार के पुरोहित जी ने घर में प्रवेश किया। घर में एकदम शांति पसर गई। बच्चे बड़े सभी बैठक में पुरोहित जी के आसपास एकत्र होकर उन्हें प्रणाम करते हुए बैठ गए। माँ सीधा सामान ले आई। एक थाली में पर्याप्त आटा, घी, गुड़, चावल, दाल और मसाले आदि रखे थे। आम का मौसम था। केलों की ऋतु थी इसलिए दस बारह पके हुए केले भी रखे हुए थे। यह सब भोजन बनाने की कच्ची सामग्री सीधा कहलाती है ऊपर से इस पर कुछ दक्षिणा भी रखी जाती है। पुरोहित जी हर पूर्णिमा और अमावस्या को हमारे यहाँ सीधा लेने आते हैं।
चौड़े ललाट पर बड़ा-सा रामानंदी तिलक, घुटे हुए सिर के बीचोंबीच मोटी-सी चोंटी, गले में कमलगट्टे की लंबी माला और तुलसी की कंठी, कांधे पर लाल अंगोछा,सफेद धोती यह वेशभूषा बच्चों के लिए आश्चर्यजनक लगती जिसे बड़े श्रद्धा में परिणत करने के प्रयास में हर बार आंशिक सफलता पा रहे थे।
पुरोहित जी ने कपड़े की अलग-अलग पोटलियों में सारी सामग्री बांधी फिर खाली थाली में थोड़ी मिश्री व तुलसी पत्र रखे और “नारायण मंगल करें। लक्ष्मी जी प्रसन्न रहें” का आशीष दिया।
सामान्यतः अन्य घरों में पुरोहित जी इस सब के साथ विदा ले लेते थे लेकिन इस घर में दादाजी का विशेष अनुरोध रहता था कि आप पधारें हैं तो कोई पुराण कथा भी सुनाते जाइए जिससे टी वी मोबाइल की दुनिया में रमे रहने वाले इन बच्चों को कुछ धर्म-संस्कृति के संस्कार भी बने रहे।
पुरोहित तो स्वयं चिंचित होते थे आने वाली पीढ़ियां परम्पराओं को भुलाकर आधुनिकता के नाम पर प्रायः दिशाहीन हो रही है। ऐसा लगता है आने वाले कुछ वर्षों में न पुरोहितों की न ही यजमानों की पीढ़ियां दिखाई देंगी। इसलिए यह प्रस्ताव उनमें आशा की किरण जगाता था और वे बालसुलभ शैली में वाणी के पर्याप्त उतार-चढ़ाव के साथ कोई न कोई पुराण कथा सोचकर ही आते थे। उनकी कहानी कहने की कला वास्तव में अद्भुत थी कि बच्चे मोहित होकर सुनते रहते।
आरंभ सीताराम राधेश्याम के कीर्तन की प्रतियोगिता से होता। बच्चों के दो दल बनाए जाते। एक कहती सीताराम दूसरी जैसे उसके उत्तर में कहती राधेश्याम। ऐसा लगता झगड़ा हो रहा है बच्चों में जीतने का यह उत्साह देखने लायक होता। थोड़ी देर बाद पुरोहित जी के संकेत पर जय-जय श्री सीताराम जय-जय श्री राधेश्याम के जयकारों के साथ बच्चा मंडली शांत बैठ जाती। यह पुरोहित जी की अपनी सूझ थी अन्यथा सामान्य कथा भागवत में होने वाले कीर्तन बच्चों को भला कितना आकर्षित कर पाते।
आज पुरोहित जी ने यह कीर्तन झगड़ा शांत कर कहा “आज कथा कहने के पहले रक्षाबंधन करेंगे। आज श्रावणी पूर्णिमा है न?”
“रक्षाबंधन? वह तो शाम को होगा भुआ आएंगी, यह शीला भी हमको राखी बांधेंगी।” मुकुल ने कहा।
“आप किसको रक्षाबंधन करवाओगे?” शीला ने आश्चर्य व्यक्त किया।” हम बांधेंगे आप सबको राखी।” पुरोहित जी ने मुस्कुराते हुए कहा।
“आप तो लड़के हो? राखी तो हम लड़कियां बांधती हैं अपने भाइयों को।” साधना की हँसी छूट गई यह कहते हुए।
पुरोहित जी ने पालकी मारी और बताने लगे” रक्षाबंधन केवल भाई-बहनों का त्यौहार नहीं है। बल्कि हर उस व्यक्ति का संबंध इससे है जो किसी से रक्षा की अपेक्षा रखता है। इसीलिए रक्षाबंधन केवल श्रावणी पूर्णिमा को ही हो ऐसा भी आवश्यक नहीं है, बस भाई बहन का संबंध पवित्र, स्नेहभरा और कर्तव्यपूर्ण बना रहे इसलिए इस दिन वार्षिक रक्षाबंधन तो हो ही सही ऐसी परंपरा है।”
“तो रक्षाबंधन भाई-बहनों के अतिरिक्त भी किन्हीं के बीच होता है?” मुकुंद ने जिज्ञासा से पूछा।
“हाँ बेटा! पहला रक्षा बंधन तो पति-पत्नी के बीच ही हुआ था?” पुरोहित जी ने हँसते हुए कहा।
“वह कैसे?” शीला और साधना के मुंह से एक साथ निकला।
पुरोहित जी ने बताया “बहुत पुरानी बात है भयानक राक्षसों ने अपने आतंक से तीनों लोकों में हाहाकार मचा दिया था और देवराज इन्द्र अपनी देवसेना के साथ भी उन्हें हराने में बार-बार असफल हो रहे थे। तब अपने पति की रक्षा के लिए उनकी पत्नी शचि ने एक अभिमंत्रित रेशम का धागा इन्द्र की कलाई पर बांध दिया। इससे न केवल इन्द्र की रक्षा हुई बल्कि वे विजयी भी हुए। उस दिन श्रावणी पूर्णिमा थी तब से यह दिन रक्षाबंधन का दिन कहलाता है।”
“तो भाई-बहनों की राखी कब आरंभ हुई आपको यह भी पता है क्या?” अभी तक चुपचाप बैठी मानसी ने पूछा।
पुरोहित जी हँसे “बिल्कुल पता है। बताएं, सुनोगे सब?”
ऐसी रोचक कथा कौन न सुनना चाहेगा? सबने हाँ भर दी तो पुरोहित जी ने घुटने पर बायां हाथ रखा और दाहिने को उठाते हुए कहने लगे।” पिछली बार हमने वामन अवतार की कथा सुनाई थी, वह याद है या भूल गए?”
“याद है जिसमें राजा बलि ने भगवान वामन को तीन पग धरती दान दी थी और भगवान छोटे से बच्चे से बहुत बहुत बहुत बड़े हो गए थे। तब दो पग में धरती आकाश सब नाप लिए और तीसरा पग के लिए नापने के लिए बलि ने अपना मस्तक झुकाकर आगे कर दिया था।” मुकुंद ने सुना दिया।
“फिर क्या हुआ था?” पुरोहित जी ने पूछा।
“मैं बताऊं” कहते हुए साधना बताने लगी “बलि को भगवान ने पाताल का राजा बना दिया और वरदान मांगने को कहा तो बलि ने उन्हें अपना द्वारपाल यानी पहरेदार बनने का वचन ले लिया।”
“एकदम ठीक” कहते हुए पुरोहित जी ने कथा का सूत्र पकड़ा “अब वैकुंठ खाली। भगवान पाताल में। लक्ष्मी जी घबराईं, पाताल जा पहुंची। बलि को कहा ‘मैं आपको राखी बांधने आई हूँ।’ अब कोई भी नारी किसी को राखी बांधना चाहे तो भारतीय संस्कृति में न इससे बड़ा धर्म है न इससे बड़ा सम्मान। जन्म के बाद माँ बेटे के बाद यदि स्त्री पुरुष का सबसे पवित्र रिश्ता है तो भाई-बहन का। बलि ने स्वीकृति दे दी। रक्षा बंधन संपन्न हुआ। अच्छा मुकुल और मुकुन्द! बताओ तुम राखी बंधवाकर क्या करते हो?”
“बहनों को उपहार देते हैं?” दोनों बोले।
“बलि ने लक्ष्मी जी को उपहार मांगने को कहा। अब वे तो स्वयं धन संपत्ति की देवी उन्हें क्या चाहिए था पर वे बोलीं भैया! मेरे पति मुझे लौटा दो।
बलि मुस्कुरा उठे पूरे साल के लिए नहीं चार माह तो ये मेरे यहाँ ही रहेंगे। लक्ष्मी जी मान गईं।”
बच्चों ने तालियां बजाईं। अब पुरोहित जी ने अपने पास से पचरंगी मौली के रक्षासूत्र निकाले और सबकी कलाई पर बांधने लगे। वे मंत्र पढ़ते जा रहे थे जिसमें राजा बलि का रक्षाबंधन वाला ही उल्लेख था। मंत्र था-
येन बद्धो बलीराजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे माचल माचल।।
अर्थात् जिस सूत्र से महाबलवान राजा बलि को बांध लिया यानी वचनबद्ध कर लिया गया था उसी सूत्र से मैं तुम्हें अचल रक्षा के लिए आबद्ध करता हूँ या करती हूँ।
दादाजी ने बताया “पुरोहित जी घर घर जाकर रक्षाबंधन करते हैं हर पूजा-पाठ यज्ञ अनुष्ठान के पहले रक्षासूत्र के रूप में कलावा बंधवाकर हम उस काम की संकल्पपूर्ति के लिए वचनबद्ध होते हैं, व्रत बद्ध होते हैं।”
तभी राघव काका भी शाखा से वहाँ आ गए। बोले “तुम पूछ रहे थे न संघ की शाखा पर सब एक दूसरे को रक्षाबंधन क्यों बांधते हैं। इसलिए कि हम सब एक दूसरे की रक्षा का संकल्प लें। भगवा ध्वज को रक्षासूत्र बांधकर हम राष्ट्र, धर्म, संस्कृति और समाज की रक्षा का संकल्प लेते हैं।”
सभी बच्चे आज रक्षाबंधन के व्यापक स्वरूप को जानकर प्रसन्न थे।
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(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ बाल मासिक पत्रिका के कार्यकारी संपादक है।)