– वासुदेव प्रजापति
भारतीय संस्कृति में व्रत, पर्व एवं उत्सवों का विशेष महत्व है। ये हमारी लौकिक और आध्यात्मिक उन्नति के सशक्त साधन हैं। इनसे हमें आनन्द और उल्लास के साथ ही उदात्त जीवन जीने की प्रेरणा प्राप्त होती है। वास्तव में सम्पूर्ण सृष्टि का उद्भव आनन्द से ही है और यह सृष्टि आनन्द में ही स्थित भी है। भारतीय पर्वों के मूल में इसी आनन्द और उल्लास का पूर्ण समावेश है।
भारतीय संस्कृति का यह लक्ष्य है कि जीवन का प्रत्येक क्षण पर्व एवं उत्सवों के आनन्द व उल्लास से परिपूर्ण हो। इन पर्वों में हमारी संस्कृति की विचारधारा के बीज छिपे हुए हैं। आज भी अनेक विघ्न-बाधाओं के बीच हमारी संस्कृति सुरक्षित है और विश्व की सम्पूर्ण संस्कृतियों का नेतृत्व भी करती है। इसका एकमात्र श्रेय हमारी पर्व परम्परा को ही है। ये पर्व समय-समय पर सम्पूर्ण समाज को नई चेतना प्रदान करते हैं तथा दैनिक जीवन की नीरसता को दूर करके जन जीवन में उल्लास भरते हैं और उच्चतम दायित्वों का निर्वाह करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं।
रक्षाबंधन का विधान
श्रावण मास की पूर्णिमा को रक्षाबंधन का पर्व मनाया जाता है। इस दिन व्रती प्रातः सविधि स्नान करके देवता,पितर व ऋषियों का तर्पण करता है। तत्पश्चात ऊनी,सूती या रेशमी पीतवस्त्र लेकर उसमें सरसों, सुवर्ण, केसर, चन्दन, अक्षत और दूर्वा रखकर बांध लेता हैं। फिर गोबर से लिपे स्थान पर कलश स्थापन कर उस पर रक्षासूत्र रखकर उसका यथाविधि पूजन करता हैं और विद्वान ब्राह्मण से उस पूजित रक्षासूत्र को दाहिने हाथ में बॅंधवाता हैं। रक्षासूत्र बांधते समय ब्राह्मण अधोलिखित मंत्र बोलता है –
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:।
तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।
जिस रक्षा के सूत्र द्वारा दानवों में श्रेष्ठ, महाबलशाली राजा बली को बांधा गया, उसी प्रकार में तुम्हें बांध रहा हूँ। तुम धर्म की रक्षा करना। तत्पश्चात ब्राह्मण को दक्षिणा देकर विदा किया जाता है।
रक्षाबंधन के दिन एक सावधानी रखने का विधान शास्त्रों में बताया गया है। यदि उस दिन भद्रा हो तो उसका त्याग कर देना चाहिए। भद्रा में श्रावणी और फाल्गुनी दोनों मनाना वर्जित हैं, क्योंकि श्रावणी से राजा का और फाल्गुनी से प्रजा का अनिष्ट होता है।
भद्रायां द्वे न कर्तव्ये श्रावणी फाल्गुनी तथा।
श्रावणी नृपतिं हन्ति ग्रामं दहति फाल्गुनी।।
शास्त्रों में रक्षाबंधन पर्व मनाने का विधान तो यही बताया गया है, किन्तु आज इसका स्वरूप पूर्णतया बदल गया है। हमने इसमें निहित रक्षाभाव को भूलाकर इसे मात्र अर्थ (उपहार) से जोड़ दिया है, जो सबमें स्वार्थभावको जगाता है।
रक्षाबंधन का वर्तमान स्वरूप
रक्षाबंधन का आज का स्वरूप हम सबकी जानकारी में है। इस पर्व को हमने केवल बहन-भाई तक सीमित कर दिया है। श्रावणी की दुर्लभ और आदरणीय ‘रक्षापोटलिका’ के स्थान में (जो रेशमी पीतवस्त्र में सरसों, स्वर्ण, केसर, चन्दन, अक्षत व दुर्वा से बनाई जाती थी) आज बाजार में दो रुपये से लेकर दो हजार रुपयों तक की एक से बढ़कर एक आकर्षक राखियां बनी-बनाई मिल जाती हैं। भोली बहन अपनी सामर्थ्य के अनुसार बाजार से राखी खरीद लाती है और उसे भाई की कलाई पर बांध देती है। भाई भी बहन को अच्छा सा उपहार देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेता है। न बहन रक्षा के भाव से राखी बांधती है और न भाई राखी बॅंधवाते समय बहन की रक्षा का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेता है। इस प्रकार यह पर्व केवल लेन-देन का पारिवारिक पर्व बनकर रह गया है।
रक्षाबंधन का व्याप केवल परिवार तक सीमित नहीं है। इस दिन केवल बहन ही भाई को राखी बांधती है, ऐसा नहीं है। संस्कृति की रक्षा का भाव लेकर ध्वज (गुरु) को रक्षासूत्र बांधा जाता है। राष्ट्र रक्षा के भाव से राजा को रक्षासूत्र बांधा जाता है। साहित्य रक्षा के भाव से शास्त्रों को रक्षासूत्र बांधने का विधान है। अर्थात् रक्षाबंधन राष्ट्र, धर्म-संस्कृति, साहित्य व परिवार भाव की रक्षा का उत्तरदायित्व लेने का पर्व है।
रक्षाबंधन राष्ट्र रक्षा का पर्व है
जब-जब भी राष्ट्र पर संकट आता है तो यह पर्व हमें राष्ट्ररक्षा का संकल्प लेने की प्रेरणा देता है। राष्ट्ररक्षा के सम्बन्ध में यह कथा बहुत प्रचलित है –
प्राचीन काल में एक बार बारह वर्षों तक देवासुर संग्राम होता रहा। इसमें देवताओं का पराभव हुआ और असुरों ने स्वर्ग पर अधिकार कर लिया। दु:खी, पराजित और चिन्तित इन्द्र देवगुरु बृहस्पति के पास गए और कहने लगे कि इस समय न तो मैं यहां सुरक्षित हूँ और न यहां से कहीं निकल सकता हूँ। ऐसी दशा में मेरा युद्ध करना ही अनिवार्य है, जबकि अब तक के युद्ध में हमारा पराभव ही हुआ है।
इस बारे वार्तालाप को इन्द्राणी शचि भी सुन रही थी। शचि ने सब इन्द्र से कहा कि कल श्रावणी पूर्णिमा है, मैं विधान पूर्वक रक्षासूत्र तैयार करूंगी। आप उस रक्षासूत्र को स्वस्ति वाचन पूर्वक ब्राह्मणों से बॅंधवा लीजिएगा। ऐसा करने से आप अवश्य विजयी होंगे। दूसरे दिन इन्द्राणी ने विधि-विधान से रक्षासूत्र बनाकर इन्द्र को दिया। इन्द्र ने सभी देवों की उपस्थिति में रक्षा विधान और स्वस्तिवाचन पूर्वक रक्षासूत्र बॅंधवाया। सब देवों में शक्ति का संचार हुआ। सबने संगठित होकर दानवों पर प्रबल आक्रमण किया, परिणामस्वरूप देवों की विजय हुई। स्वर्गलोक पर पुनः देवों का आधिपत्य स्थापित हो गया।
इस देवीय विजय के उपलक्ष्य में यह रक्षाबंधन का पर्व तब से मनाया जाने लगा। राष्ट्र रक्षा निमित्त आज भी सीमा जन कल्याण समिति एवं पूर्व सैनिक सेवा परिषद जैसे संगठनों के कार्यकर्त्ता प्रतिवर्ष रक्षाबंधन के दिन सीमा पर जाकर वहां तैनात सैनिकों को रक्षासूत्र बांधते हैं। रक्षासूत्र बांधने वाले और बॅंधवाने वाले दोनों ही राष्ट्र रक्षा से संकल्पित होकर स्वयं को धन्य मानते हैं।
रक्षाबंधन स्वाध्याय का पर्व है
वैदिक धर्म में स्वाध्याय की सर्वोपरि प्रधानता और महिमा बार-बार वर्णित की गई है। स्वाध्याय से यह शरीर ब्रह्म प्राप्ति के योग्य बन जाता है। इसलिए इसमें सदैव प्रवृत्त रहने के लिए कहा गया है – “स्वाध्याये नित्ययुक्त: स्यात्” (मनु.६\८) चारों आश्रमों में प्रथम आश्रम ब्रह्मचर्य की सृष्टि मात्र स्वाध्याय के लिए ही हुई है। ब्रह्मचर्य की समाप्ति के अवसर पर समावर्तन के समय स्नातक को आचार्य “स्वाध्यायान्मा प्रमद:” और “स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्“ का उपदेश देते हैं कि आगे चलकर गृहस्थाश्रम में भी सदैव स्वाध्याय करते रहो।
गृहस्थ के पश्चात वानप्रस्थ का भी प्रधान कर्म स्वाध्याय और तप ही रह जाता है। संन्यासी का समय भी परमतत्व चिन्तन और उपदेश के अंगीभूत स्वाध्याय में ही व्यतीत होता है। संन्यासी के लिए आज्ञा है – “संन्यसेत्सर्वकर्माणि वेदमेकं न संन्यसेत्“ अर्थात् संन्यासी भले ही सब कर्मों को त्याग दें, किन्तु वेद को कभी न त्यागे। स्वाध्याय को इतना महत्त्व देने का उद्देश्य यही है कि जिस प्रकार शरीर की स्थिति और उन्नति अन्न से होती है, उसी प्रकार सारे शरीर के राजा मन का उत्कर्ष और शिक्षण स्वाध्याय से होता है।
जो वस्तु जिसको प्रिय होती है, उसी से उसकी पूजा और तृप्ति की आज्ञा है। इस विषय में मनुस्मृति के निम्नलिखित श्लोक प्रमाण हैं –
स्वाध्यायेनार्चयेतर्षीन् होमैर्देवान् यथाविधि।
पितॄंछ्राद्धैश्च नॄनन्नैर्भूतानि बलिकर्मणा।।
स्वाध्याये नित्ययुक्त: स्याद्दैवे चैवेह कर्मणि।
अर्थात् स्वाध्याय से ऋषियों की, होम से देवों की, श्रद्धा से पितरों की, अन्न से मनुष्यों की बलिकर्म- अन्न प्रदान से प्राणियों की यथाविधि पूजा करें। अतः रक्षाबंधन के दिन हमें स्वाध्याय द्वारा अपने ऋषियों की पूजा करनी चाहिए।
रक्षाबंधन चातुर्मास परम्परा का पर्व है
हमारे देश की प्राचीन परम्परा रही है कि यहां नित्य वेदपाठ होता था। वर्षाकाल में तो वेद के पारायण पर विशेष बल दिया जाता था। इसका कारण यह था कि हमारा देश कृषि प्रधान देश है। यहां की प्रजा आषाढ़ और श्रावण में कृषि कार्य में व्यस्त रहती है। श्रावण की जुताई-बुवाई आषाढ़ से प्रारम्भ होकर श्रावण के अन्त तक समाप्त हो जाती है। उधर ऋषि-मुनि, संन्यासी और महात्मा वर्षा के कारण अरण्य और वनस्थली को छोड़कर ग्रामों के निकट आकर रहने लगते थे और वहीं वेदाध्ययन, धर्मोपदेश तथा ज्ञानचर्चा में अपना चतुर्मास बिताते थे। श्रद्धालु लोग उनके पास जाकर वेदाध्ययन और उपदेश श्रवण में अपना समय लगाते थे और इनकी सेवा करते थे। इसलिए यह समय ऋषितर्पण भी कहलाता है।
यह वेदाध्ययन श्रावण की पूर्णिमा को प्रारम्भ किया जाता था। इस दिन अपने गुरु को रक्षासूत्र बाॅंधने की परम्परा भी है। श्रावणी पर्व का गुरु, वेदाध्ययन व स्वाध्याय से सीधा सम्बन्ध है। चिरकाल के पश्चात् वेद के पठन-पाठन का प्रचार कम हो जाने पर चारमास तक नित्य वेदपारायण की परिपाटी उठ गई, फलत: आज लोग श्रावण पूर्णिमा को एक दिन ही वेदाध्ययन कर अपना कर्तव्य पूर्ण हुआ मान लेते हैं। अतः श्रावणी पर्व मनाने का उत्तम तरीका यही है कि वेदादि सच्छास्त्रों का स्वाध्याय हम इस पर्व से अवश्य प्रारम्भ करें।
रक्षाबंधन यज्ञोपवीत धारण का पर्व है
रक्षाबंधन के साथ नये यज्ञोपवीत के धारण और पुराने को छोड़ने की परम्परा भी जुड़ी हुई है। गृहसूत्रों के आधार पर परिपाटी है कि प्रत्येक उत्तम यज्ञ-यागादि के समय नया यज्ञोपवीत धारण किया जाय। उसी आधार पर रक्षाबंधन के दिन यज्ञोपवीत बदलने की परिपाटी बनी हुई है।
यज्ञोपवीत के तीन सूत्र पितृऋण, देवऋण और ऋषिऋण आदि कर्तव्यों का बोध करवाते हैं। उपनयन, यज्ञोपवीत तथा व्रतबन्ध आदि पद इस सम्बन्ध में विशेष महत्त्व के हैं। आचार्यकुल में विद्यार्थी लाया जाता है, अतः यह व्रतबन्ध है। ऋग्वेद में कहा गया है कि जो यज्ञोपवीत – तन्तु यज्ञों का प्रसाधक है, उसको हम धारण करें। अतः प्रत्येक का यह कर्तव्य है कि अपनी संस्कृति को स्मरण करते हुए स्वाध्याय को अपने जीवन का अभिन्न अंग बनाने में तत्पर रहें तथा कम से कम वर्ष में एक बार रक्षाबंधन को विधि-विधान से मनाकर वर्षभर में जाने-अनजाने होने वाले अपराधों का प्रायश्चित द्वारा निराकरण कर लें।
स्वामी विवेकानंद जी ने अपने उद्बोधन में एक बार भारतीय संस्कृति की पर्व-परम्परा की महत्ता बताते हुए रक्षाबंधन के सम्बन्ध में कहा था कि यह पर्व भाई की पवित्रदृष्टि व नारी रक्षा का पर्व है। राष्ट्र व संस्कृति की रक्षा का पर्व है। पापों के प्रायश्चित हेतु हेमाद्रि संकल्प का पर्व है। यज्ञोपवीत धारण करने का पर्व है और ऋषिकल्प पुरोहित से व्रतशीलता में बॅंधने का पर्व है। आओ! इस रक्षाबंधन पर्व को हम अर्थ के बन्धन से मुक्त कर, इसे पुनः नारी रक्षा, राष्ट्र रक्षा एवं वेदादि सच्छास्त्रों के स्वाध्याय का पर्व बनाने का शिव संकल्प लें।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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