सिद्ध शिरोमणि बाबा मस्तनाथ (सन् 1707-1807)

– प्रोफेसर बाबूराम (डी.लिट्.)

आपगा, दृषद्वती और सरस्वती देव-नदियों के मध्य बसे क्षेत्र को हरियाणा कहा जाता है। इस क्षेत्र को आदि सृष्टि का जनक माना जाता है। विश्व के सर्वप्रथम और मानवता की धरोहर ‘ऋग्वेद’ की रचना-स्थली भी हरियाणा रहा है। इसीलिए हरियाणा विश्व का प्राचीनतम क्षेत्र है। हरियाणा की सांस्कृतिक और साहित्यिक परंपरा प्राचीन काल से गौरवशाली रही है। यह धरती ऋषियों-मुनियों, नाथ-सिद्ध योगियों, साधु-सन्तों-भक्तों की पावन धरा रही है। रोहतक में आठवीं शताब्दी में प्राचीन मठ की स्थापना सिद्ध योगी चौरंगीनाथ ने की। वैदिक परंपरा की प्रतिक्रिया स्वरूप बौद्ध-परंपरा का आविर्भाव हुआ। बौद्ध धर्म से महायान, हीनयान, वज्रयान, सहजयान तथा तांत्रिक विचारधारा विकसित हुआ। इसी समय नाथ सम्प्रदाय का विकास हुआ और नाथ सम्प्रदाय के प्रेरणामूलक तत्त्वों को ग्रहणकर सन्त-परंपरा अवतरित हुई। इस विशाल परंपरा की एक दिव्य और अनूठी विभूति हैं- 8वीं शताब्दी में महासिद्ध चौरंगीनाथ द्वारा स्थापित सुप्रतिष्ठित प्राचीनमठ अस्थल-बोहर, रोहतक (हरियाणा) के जीर्णोद्धारक सिद्ध शिरोमणि श्री बाबा मस्तनाथ।

जीवन-परिचय

श्री बाबा मस्तनाथ जी का अलौकिक अवतरण सन् 1707 में हुआ माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि गुरु गोरखनाथ इनके रूप में अवतरित हुए थे। अवतरण की कथा सचमुच बड़ी अनोखी और चमत्कारिक है, जो महंत चांदनाथ योगी द्वारा प्रकाशित अस्थल-बेहर मठ का इतिहास और महाकवि शंकरनाथ के ‘श्री मस्तनाथ चरित’ महाकाव्य में सुन्दर और विस्तृत चित्रित-वर्णित है। सिद्ध शिरोमणि योगीराज बाबा मस्तनाथ जी का जीवन-चरित योग की अनेक सिद्धियों के चमत्कारों से परिपूर्ण है। एक बार रोहतक के केसरीहट्ट गाँव का रेवारी जाति का धनी व्यपारी सबला व्यापार के सिलसिले में यमुना के तट-बन्ध क्षेत्र के वन से गुजर रहा था। वन में उसे एक दर्शनी सन्त यति (गुरु गोरखनाथ) मिले। श्रद्धा-नमन के बाद सबला ने यति के समक्ष सन्तान न होने की बात कही। यति ने धर्मपरायण व्यापारी सबला को पुत्र होने का वरदान दिया। सालों बीत जाने पर भी सबला के घर सन्तान पैदा नहीं हुई। इधर सर्वज्ञ गुरु गोरखनाथ जी को अपने वरदान की बात याद आई। त्रिकालदर्शी नाथ उलझन में पड़ गए। सबला के भाग्य में सन्तान का योग ही नहीं था। अपने वरदान की टेक रखने के लिए रूप बदल लेने की सिद्धि प्राप्त गुरु गोरखनाथ ने बाल-रूप धारण कर सबला दम्पत्ति को सन्तान सुख उपलब्ध कराने का निश्चय किया और पुनः व्यापार-यात्रा पर निकले सबला दम्पत्ति को एक वर्ष के शिशु के रूप में सुनसान वन में पडे़ मिल गए। यहाँ-वहाँ पूछताछ कर लेने पर जब सबला दम्पत्ति की उस शिशु के माता-पिता का पता नहीं चला, तो उन्होंने उसे ईश्वर का उपहार समझकर स्वयं पाल लेने का निश्चय कर लिया। बालक के घर में आते ही सबला के घर में धन-धन्य की वर्षा होने लगी। उस सारस्वत पालित पुत्र का नाम मस्त-मस्ता रख दिया। जैसे-जैसे मस्ता बड़ा होने लगा, उसके विचित्र व चमत्कारिक आचरण को लेकर सबला-सम्पत्ति और सभी ग्रामवासी आश्चर्यचकित होने लगे। पिता के आदेश पर मस्ता गाँव के ग्वाल-बालों के साथ वन में गाएं चराने जाता है परन्तु पिता उसे गाँव में खेलता हुआ देखते हैं। उधर ग्वाल-बालों का कहना रहता है कि मस्ता तो सारा दिन उनके साथ रहता है। इसी तरह की अनेक चमत्कारिक घटनाएँ घटित होती रहती हैं। मस्ता प्रायः अपने में ही मस्त रहने लगा। गाँवभर में यह चर्चा होने लगी कि मस्ता कोई सामान्य बालक नहीं है। यह तो कोई चमत्कारी सिद्ध पुरुष है। इसका भेद जान पाना कोई संभव नहीं है। कविवर शंकरनाथ ने इसी तथ्य का चित्रण किया है- “सिद्ध औलिया जगत में, बिरले कोई होय। बाल-रूप बिछेरे सदा, भेद न पावै कोय।।”

बालक मस्ता के अप्रतिम लक्षणों को देखकर 12 वर्ष की अल्पायु में ही उसे ‘आईपंथ’ के प्रतापी सिद्ध-नाथ नरमाईनाथ की शरण में भेज दिया, जिन्होंने गुरु मंत्रदेकर सन् 1707 में मस्ता को विधिवत शिष्य बनाकर उसका नाम मस्ताई बाबा रख दिया, फिर 12 वर्ष तक औघड़ रूप में तपश्चर्या करने के उपरान्त हरियाणा के सुप्रसिद्ध तीर्थ पिहोवा में गुरु नरमाई नाथ ने इन्हें सन् 1731 में कानों में चीरा दिलवाकर मस्ताई बाबा से दर्शनी मस्ताई नाथ बना दिया था तथा दीक्षा के अवसर पर सार रूप में अद्वैत की शिक्षा देते हुए समझाया- “ढूंढन दूरि न जाऊ तुम, खोज करो तन माहीं। ब्रह्म अनादि है तुहीं, दूजा कोऊ नाहीं।।” अतः इनका समय विक्रम संवत् 1764 से 1864 तक माना जाता है।

वाणी

सिद्ध शिरोमणि श्री बाबा मस्तनाथ जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर आधारित ग्रन्थ ‘श्री मस्तनाथ चरित’ है, जिसे मस्तनाथ अद्भुत लीला-ग्रन्थ भी कहा जाता है। काव्य शास्त्रीय दृष्टि से इस चरित प्रधान काव्य ग्रन्थ को महाकाव्य की संज्ञा प्रदान की गई है। इस महाकाव्य में 24 सर्ग हिन्दी और 26 सर्ग संस्कृत दोनों भाषाओं में लिखित हैं। इस ग्रन्थ के प्रथम सर्ग में मंगलाचरण के साथ गुरु गोरखनाथ के अवतार रूप में योगीराज बाबा मस्तनाथ का वर्णन है। द्वितीय सर्ग में बाबा मस्तनाथ जी की विचित्र और चमत्कारिक बाल-लीलाएं वर्णित हैं। तृतीय सर्ग में श्री बाबा जी के गाए चराने और अपने ग्वाल मित्रों की प्यास बुझाने का चित्रण है। चतुर्थ सर्ग में सिद्ध पुरुषों की तरह देव-गन्धर्वों के साथ गोष्ठी वर्णन है- “बैठे योगी धूनी लगाए, देव-गन्धर्व सबी जहं आए।” पांचवें सर्ग में बाबा मस्तनाथ गुरुदीक्षा लेकर नाथपंथ में शामिल हो गए- “आना जाना धावना, चौरासी मिटि जाए, छूटि जात सब भरम ना, साहब सतगुरु पाय।।” छठे सर्ग में बाबा जी के लोक कल्याण का वर्णन है। सातवें सर्ग में बाबा जी के अनेक चमत्कारों का वर्णन है, जैसे बोहर में आकर वर्षा करके लोगों के कष्ट दूर करना। आठवें सर्ग में अपंगी स्त्री को बेर देना। नौवें सर्ग में अपने शिष्यों को भारतीय ज्ञान परंपरा से परिचित कराकर उनका उद्धार करना। दसवें सर्ग में सीलका का उद्धार करना, ग्यारहवें सर्ग में योगीराज को भर्तृहरि के दर्शन कराना, तेरहवें सर्ग में सूखे वृक्ष को हरा कर वृद्ध दम्पत्ती को संतान प्रदान करना, चौदहवें सर्ग में पाईदेवी का घमण्ड चकनाचूर करना और उसे अवधूतिनी बनाना, पन्द्रहवें सर्ग में मरी हुई गाय को जीवित करना, सोलहवें सर्ग में मृत रूप धारण कर केशधारी सरदारों को अहिंसा का उपदेश देना, सत्रहवें सर्ग में आलमशाह को परचा देकर सत्ता परिवर्तन कराना, अठारहवें सर्ग में पिचोपा गाँव को परचा देकर वहाँ के लोगों को सत्संगति का उपदेश देना, उन्नीसवें सर्ग में राजा-सूरज सिंह को परचा देना, बीसवें सर्ग में राजा भीम सिंह का अन्त व मान सिंह को राजा बनाना, इक्कीसवें सर्ग में शिष्य धड़ीनाथ का वर्णन तथा खीड़वाली गाँव में सहतीर को धूने में लगाने की कथा, बाइसवें सर्ग में रणपत धाता को दीक्षा देकर नाथ सम्प्रदाय में विधिवत योगी बनाना, तेइसवें सर्ग में बाबा जी का अन्तरर्धान व समाधि लेना तथा अंतिम चौबीसवें सर्ग में उनकी शिष्य परम्परा का वर्णन है।

इन सभी कथाओं के माध्यम से भारतीय चिन्तन परंपरा के सनातन जीवन मूल्यों की विस्तृत व्याख्या और उन्हें अपने जीवन में धारण करने का सनातन-संदेश है। इस महाकाव्य में गुरुसेवा, हठयोग, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, धर्म, सत्य व जनकल्याण, भक्ति, माता-पिता की सेवा, सुसंगति जैसे नैतिक मूल्यों का वर्णन है। सिद्ध-योगी बाबा मस्तनाथ जी के जीवन की एक-एक घटना भारतीय ज्ञान परंपरा, कर्म, ज्ञान और भक्ति की प्रेरणा देती है- “जग में जीवन हैगा थोरा, ताते सुनो वचन यह मोरा। हिंसा सकल जीव की त्यागो, भक्ती में तुम हरकी लागो।”

बाबा मस्तनाथ मठ रोहतक

भारतीय ज्ञान परंपरा के संवाहक

भारतीय ज्ञान परंपरा के स्रोत गुरु गोरखनाथ के अनुयायी बाबा मस्तनाथ भी ज्ञान परंपरा के संवाहक माने जाते हैं। उनका ज्ञान भारत की अध्यात्म और योगी-नाथ-सिद्ध परंपरा की एक मुख्यधारा है। चौरंगीनाथ की तपोस्थली के योगीराज बाबा मस्तनाथ मठ के ‘विधेयम जन सेवनम्’ ने भारतीय ज्ञान परंपरा की मूल चेतना को प्रभावित किया है। इसलिए भारतीय ज्ञान परंपरा में योगी बाबा मस्तनाथ का महत्त्वपूर्ण योगदान है। वे अनेक सिद्धियों के स्वामी थे। उनकी सत्प्रेरणा से ही अस्थल-बोहर का प्राचीन मठ जनमानस को योग मार्ग के ज्ञान में प्रवृत्त कर रहा है। इस मठ का सम्पूर्ण ज्ञान हठयोग-साधना, कर्मयोग-साधना एवं राष्ट्रभाव से समर्पित रहा है। बाबा मस्तनाथ जी के ज्ञान की शिक्षाएं इस प्रकार हैं- अहिंसा, अद्वैत, आत्मज्ञान, योग-साधना, सामाजिक समरसता, गोसेवा, अध्यात्म, भारत बोध, आडम्बर-विरोध, गुरु-सेवा, वैराग्य, जनकल्याण आदि इन सभी शिक्षाओं का ज्ञान-ग्रन्थ ‘श्री मस्तनाथ चरित’ है, जिसके द्वारा योगी मस्तनाथ का ज्ञान लोकमानस में सर्वत्र फैल रहा है। इनकी साधना के समन्वय के फलस्वरूप सन्त परम्परा का उद्भव हुआ। इसीलिए उनकी वाणी में ज्ञान के बिना भक्ति, भक्ति के बिना मुक्ति, सहनशीलता, आत्मानुशासन, सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, तपस्या, क्षमा, करुणा, साहस, संतोष, सत्संग, सेवा, परोपकार, अध्यात्म भारतीय ज्ञान के सभी मूल्य विद्यमान हैं। यही बाबा मस्तनाथ चरित का परम लक्ष्य है। श्री बाबा जी के भारतीय ज्ञान का शंखनाद आज भी गुंजायमान है- “कलौ कुत्तो वेदवार्ता श्रद्धा दानं दया दमः। सत्यं सुशीलतार्ज्यार्ज्या सतां सङ्गोअपि दुर्लभः।।”

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि नाथ-सिद्ध-सन्तों की इसी परंपरा में चौरंगीनाथ द्वारा स्थापित प्राचीन मठ अस्थल बोहर में सन्त बाबा मस्तनाथ का गुरु गोरखनाथ के अवतार के रूप में आविर्भाव हुआ। उनके जीवन और साधना में 24 सर्गों पर आधारित ‘श्री मस्तनाथ चरित’ जनकल्याण सेवा हेतु एक चरित प्रधान काव्य है, जिसमें बाबा मस्तनाथ के दिव्य चरित- वैराग्य, चमत्कार, उपदेशों, अध्यात्म, वैराग्य, गुरु-सेवा, योग-साधना, दर्शन, गोरक्षा, भक्ति, अभिव्यंजना-शिल्प के भाषा-शैली, अलंकार-छन्द, बिम्ब-प्रतीक, रस, शब्द-शक्ति, मुहावरे-लोकोक्ति, सूक्ति आदि का सटीक व सार्थक प्रयोग हुआ है। उनकी वाणी साहित्य, संगीत और साधना की त्रिवेणी है। सिद्ध शिरोमणि मस्तनाथ जी का साहित्य राष्ट्र को समर्पित है और मानवता के लिए प्रकाश-स्तम्भ है।

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(लेखक पूर्व आचार्य एवं अध्यक्ष, हिन्दी-विभाग, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र; पूर्व अधिष्ठाता (डीन), मानविकी संकाय, अध्यक्ष, विवेकानन्द व्यंक्तित्व विकास केन्द्र, चौधरी बंसीलाल विश्वविद्यालय, भिवानी; सम्प्रति : प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिन्दी-विभाग,बाबा मस्तनाथ विश्वविद्यालय, रोहतक (हरियाणा) है।)

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