✍ वीरेंद्र कुमार शर्मा
इतिहास में कभी-कभी ऐसा होता है कि कोई ऋषि सत्ता एक साथ बहुआयामी रूपों में प्रकट होती है एवं करोड़ों ही नहीं, पूरी वसुधा के उद्धार तथा चेतनात्मक धरातल पर सबके मनों का नए सिरे से निर्माण करने आती है। परम पूज्य गुरुदेव पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य को एक ऐसी ही सत्ता के रूप में देखा जा सकता है जो युगों-युगों में गुरु एवं ऋषि सत्ता दोनों ही रूपों में हम सबके बीच प्रकट हुई, 80 वर्ष का जीवन एक विराट ज्योति प्रज्वलित कर उस सूक्ष्म ऋषि चेतना के साथ एकाकार हो गई जो आज युग-परिवर्तन को सन्निकट लाने को प्रतिबद्ध है।
आश्विन कृष्ण त्रयोदशी विक्रमी सम्वत् 1967 (20 सितंबर 1911) को स्थूल शरीर से आँवल खेड़ा ग्राम, जनपद आगरा में जन्में श्रीराम शर्मा जी का बाल्यकाल एवं कैशौर्य काल ग्रामीण परिसर में ही बीता। वे जन्में तो थे एक ज़मींदार घराने में थे किंतु उनका अंतःकरण मानव मात्र की पीड़ा से सतत विचलित रहता था। साधना के प्रति उनका झुकाव बचपन में ही दिखाई देने लगा। वे अपने सहपाठियों को, छोटे बच्चों को अमराई में बिठाकर स्कूली शिक्षा के साथ-साथ सुसंस्कारिता अपनाने वाली आत्मविद्या का शिक्षण दिया करते थे। छटपटाहट के कारण हिमालय की ओर भाग निकलने व पकड़े जाने पर उन्होंने संबंधियों को बताया कि हिमालय ही उनका घर है एवं वहीं वे जा रहे थे। किसे मालूम था कि हिमालय की ऋषि चेतनाओं का समुच्चय बनकर आई यह सत्ता वस्तुतः अगले दिनों अपना घर वहीं बनाएगी।
वे जाति-पाति का कोई भेद नहीं जानते थे। जातिगत मूढ़ता भरी मान्यता से ग्रसित तत्कालीन भारत के ग्रामीण परिसर में एक अछूत वृद्ध महिला की जिसे कुष्ठ रोग हो गया था, उसी के टोले में जाकर सेवा कर उन्होंने घर वालों का विरोध तो मोल ले लिया पर अपना व्रत नहीं छोड़ा। उस महिला ने स्वस्थ होने पर उन्हें ढेरों आशीर्वाद दिए।
पंद्रह वर्ष की आयु में वसंत पंचमी की वेला में सन 1926 में उनके घर की पूजा स्थली में, जो उनकी नियमित उपासना का तब से आगार थी जब से महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी ने उन्हें काशी में गायत्री मंत्र की दीक्षा दी थी, उनकी गुरु सत्ता का आगमन हुआ अदृश्य छाया धारी सूक्ष्म रूप में। उन्होंने प्रज्वलित दीपक की लौ में स्वयं को प्रकट कर उन्हें उनके द्वारा विगत कई जन्मों में संपन्न क्रियाकलापों का दिग्दर्शन कराया तथा उन्हें बताया कि वे दुर्गम हिमालय से आए हैं एवं उनसे अनेकानेक ऐसे क्रियाकलाप कराना चाहते हैं, जो अवतारी स्तर की ऋषिसत्ताएँ उनसे अपेक्षा रखती हैं।
यह कहा जा सकता है कि पूज्य गुरुदेव (पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य) कि जीवन यात्रा का यह एक महत्वपूर्ण मोड़ था, जिसने भावी रीति-नीति का निर्धारण कर दिया। पूज्य गुरुदेव अपनी पुस्तक हमारी वसीयत और विरासत में लिखते हैं कि “प्रथम मिलन के दिन समर्पण संपन्न हुआ। दो बातें गुरु सत्ता द्वारा विशेष रूप से कही गई – संसारी लोग क्या करते हैं और क्या कहते हैं, उसकी ओर से मुँह मोड़ कर निर्धारित लक्ष्य की ओर एकाकी साहस के बलबूते चलते रहना एवं दूसरा यह कि अपने को अधिक पवित्र और प्रखर बनाने की तपश्चर्या में जुट जाना – जौ की रोटी व छाछ पर निर्वाह कर आत्मानुशासन सीखना। इसी से वह सामर्थ्य विकसित होगा जो विशुद्धतः परमार्थ प्रयोजनों में नियोजित होगी। वसंत पर्व का यह दिन गुरु अनुशासन की अवधारणा से ही हमारे लिए नया जन्म बन गया। सद्ग़ुरु की प्राप्ति हमारे जीवन का अनन्य एवं परम सौभाग्य रहा।”
राष्ट्र के परावलंबी होने की पीड़ा भी उन्हें उतनी ही सताती थी जितनी कि गुरुसत्ता के आदेशानुसार तप कर सिद्धियों के उपार्जन की ललक उनके मन में थी। उनके इस असमंजस को गुरु सत्ता ने ताड़कर परावाणी से उनका मार्गदर्शन किया की युग धर्म की महत्ता व समय की पुकार देख-सुनकर तुम्हें अन्य आवश्यक कार्यों को छोड़कर अग्निकांड में पानी लेकर दौड़ पड़ने की तरह आवश्यक कार्य भी करने पड़ सकते हैं। इसमें स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाते संघर्ष करने का भी संकेत था। सन 1927 से 1933 तक का समय उनका एक सक्रिय स्वयंसेवक-स्वतंत्रता सेनानी के रूप में बीता। छह-छह माह की उन्हें कई बार जेल हुई। जेल में भी वे जेल के निरक्षर साथियों को शिक्षण देकर स्वयं अंग्रेजी सीख कर लौटे।
सन 1935 के बाद उनके जीवन का नया दौर शुरू हुआ, जब गुरु सत्ता की प्रेरणा से वे श्री अरविंद से मिलने पांडिचेरी, गुरुदेव ऋषिवर रवींद्रनाथ टैगोर से मिलने शांतिनिकेतन तथा बापू से मिलने साबरमती आश्रम, अहमदाबाद गए। सांस्कृतिक, आध्यात्मिक मोर्चे पर राष्ट्र को कैसे परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त किया जाए, यह निर्देश लेकर अपना अनुष्ठान यथावत चलाते हुए उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश किया। सतत स्वाध्यायरत रहकर उन्होंने अखंड ज्योति नामक पत्रिका का पहला अंक 1938 की वसंत पंचमी पर प्रकाशित किया। पत्रिका के साथ-साथ “मैं क्या हूँ” जैसी पुस्तकों का लेखन आरंभ हुआ। स्थान बदला, आगरा से मथुरा आ गए।
इसी बीच हिमालय के बुलावे भी आए, अनुष्ठान भी चलता रहा जो पूरी विधि-विधान के साथ 1953 में गायत्री तपोभूमि की स्थापना 108 कुंडीय यज्ञ व उनके द्वारा दी गई प्रथम दीक्षा के साथ समाप्त हुआ। 1958 में सहस्त्र कुंडीय यज्ञ के माध्यम से लाखों गायत्री साधकों को एकत्र कर उन्होंने युग निर्माण योजना एवं गायत्री परिवार का बीजारोपण कर दिया। इस कार्यक्रम में दस लाख व्यक्तियों ने भाग लिया, इन्हीं के माध्यम से देशभर में प्रगतिशील गायत्री परिवार की दस हज़ार से अधिक शाखाएँ स्थापित हो गयीं। संगठन का अधिकाधिक कार्यभार पूज्यवर परम वंदनीय माता जी को सौंपते चले गए एवं 1959 में पत्रिका का संपादन उन्हें देकर पौने दो वर्ष के लिए हिमालय चले गए। युग निर्माण योजना व युग निर्माण सतसंकल्प के रूप में मिशन का घोषणा पत्र 1963 में प्रकाशित हुआ। पूरे देश में 1970-71 में पाँच 1008 कुंडीय गायत्री यज्ञ आयोजित हुए। सन 1971 तक उनकी कार्य स्थली मथुरा रही। तत्पश्चात स्थाई रूप से विदाई लेते हुए एक विराट सम्मेलन जून 1971 में परिजनों को विशेष कार्यभार सौंप परम वंदनीया माता जी को शांतिकुंज हरिद्वार में अखंड दीप के समक्ष तप हेतु छोड़कर स्वयं हिमालय चले गए। एक वर्ष बाद वे गुरुसत्ता का संदेश लेकर लौटे एवं अपनी आगामी बीस वर्ष की क्रिया-पद्धति बताई। ऋषि परंपरा का बीजारोपण, प्राण प्रत्यावर्तन, संजीवनी व कल्प साधना सत्रों का मार्गदर्शन जैसे कार्य उन्होंने शांतिकुंज में संपन्न किए।
परम पूज्य गुरुदेव ने सूक्ष्मीकरण में प्रवेश कर 1985 में ही पाँच वर्ष के अंदर अपने सारे क्रियाकलापों को समेटने की घोषणा कर दी। इस बीच कठोर तप साधना कर मिलना-जुलना कम कर दिया तथा क्रमशः क्रिया-कलाप परमवंदनीया माता जी को सौंप दिए। राष्ट्रीय एकता सम्मेलनों, विराट दीप यज्ञों के रूप में नूतन विद्या को जन-जन को सौंपकर राष्ट्र देवता की कुण्डलिनी जगाने हेतु उन्होंने अपने स्थूल शरीर छोड़ने और सूक्ष्म में समाने की, विराट से विराटतम होने की घोषणा कर गायत्री जयंती 2 जून, 1990 को महाप्रयाण किया।
साधना में जीवन, राष्ट्र को स्वतंत्र बनाने की अदम्य आकांक्षा, स्वाध्यायशीलता इतनी कि मानों सभी कुछ लेखन-कार्य का सहस्त्राधिक शोध-सहायकों के माध्यम से हुआ हो, समाज में छाए पीड़ा-पतन-पराभव के प्रति मन में तीव्र कसक तथा वैज्ञानिक अध्यात्मवाद रूपी दर्शन के प्रतिपादन द्वारा युगचिंतन को नए आयाम प्रदान करना, ये कुछ ऐसी विलक्षणताएँ हैं, जो एक व्यक्ति में एकसाथ कदाचित ही देखने को मिलती हैं। संवेदना इतनी घनीभूत हो कि वही हर श्वास में मानवमात्र के प्रति करुणा बनकर छलके, ऐसा कुछ जीवनक्रम हम सब के पूज्यवर पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य का रहा।
यदि उनसे आज भी कोई साक्षात्कार करना चाहे तो उन्हें उनके द्वारा लिखे गए उस विराट परिमाण में उपलब्ध साहित्य के रूप में के देखा जा सकता है। वे अपने वजन से अधिक भार के बराबर लगभग 3200 से अधिक पुस्तकों के रूप में अपने विचारों को लिखकर गए हैं।
भारतवर्ष जगदगुरु रहा है, सैकड़ों महामानव, संस्कृति-पुरुष इस धरती पर जन्म लेते रहे हैं। जब भी इतिहास लिखा जाएगा तब युग-निर्माण योजना के प्रवर्तक आचार्य श्रीराम शर्मा के जीवन क्रम को न केवल स्वर्णाक्षरों में मण्डित देखा जा सकेगा, लाखों-करोड़ों व्यक्ति उनके जीवन से प्रेरणा पाते हुए भारतीय संस्कृति को विश्व-संस्कृति के रूप में परिणित करते देखे जा सकेंगे। ईश्वर-समर्पित जीवन लोक-सेवा करते हुए कैसे जिया जा सकता है, राष्ट्र सेवा सही अर्थों में किस प्रकार धर्म तंत्र के माध्यम से संभव है तथा श्रद्धा का समाजीकरण किस प्रकार किया जा सकता है, यह तथ्य वेदमूर्ति तपोनिष्ठ पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य के जीवनक्रम, उनके द्वारा रचित साहित्य एवं की गई स्थापनाओं में सहज ही देखकर अपने जीवन में भी अंगीकृत किया जा सकता है।
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