गीता प्रेस, गोरखपुर का सांस्कृतिक अवदान

✍ अवनीश भटनागर

(श्रद्धेय भाई जी – श्री हनुमान प्रसाद जी पोद्दार की जन्मजयंती (17 सितम्बर) पर उनके द्वारा स्थापित वैचारिक क्रान्ति के आधार स्तम्भ की शताब्दी के अवसर पर….)

आधुनिकता के नाम पर पाश्चात्यीकरण की पट्टी आँखों पर बाँध कर जिन लोगों ने गीता-प्रेस के साहित्य को ‘आक्रामक हिन्दुत्व का प्रचारक’ कहा उन्होंने यह क्यों नहीं समझा कि हिन्दुत्व प्रचार के इस साहित्य ने कभी किसी का धर्मान्तरण कराने की या किसी अन्य देश की भूमि हथियाने की शिक्षा नहीं दी, केवल मानवीय तत्व के विकास का प्रयास किया।

सनातन हिन्दुत्व के आचार-व्यवहारों तथा जीवन मूल्यों को विगत एक शताब्दी से घर-घर तक पहुँचाने में अहर्निश सेवारत गीता प्रेस, गोरखपुर कर्मचारी विवाद के चलते पिछले कई वर्षों से चर्चा में रहा। ‘स्यूडो सेकुलरिज्म’ के मनःरोग से ग्रस्त और मीडिया में शीर्ष पर छा जाने को हाथ-पैर मारते अनेक पत्रकारों-राजनेताओं ने इस अवसर को हाथों-हाथ लिया। स्वयं को ‘ओपीनियन मेकर्स’ समझने का भ्रम पाले उन कीबोर्ड वीरों को इस समाज के उन असंख्य लोगों का ‘ओपीनियन’ गीता प्रेस के अवदान के विषय में बदलने में विफलता ही मिलने वाली है, जिन्होंने माँ की गोदी में लेटे-लेटे रामचरितमानस की चौपाइयाँ सुनीं और अक्षर ज्ञान होने के बाद ‘अच्छे बच्चे सच्चे बच्चे’, ‘वीर बालक’, ‘वीर बालिकाएँ’, ‘हमारे ऋषि-मुनि’, ‘साहसी और ईमानदार बच्चे’ जैसी गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित पुस्तकें पढ़ कर बचपन बिताया। इन पुस्तकों में बिना किसी परहेज के सभी देशों-धर्मों-जातियों-सम्प्रदायों के चरित्रों की कथाएँ हैं; उनके सद्गुणों को नई पीढ़ी को हस्तान्तरित करने का उपक्रम है। यदि लक्ष्यित पाठक वर्ग इस देश का है तो उसकी प्रेरणा के लिए इस देश के महापुरुषों की कथाओं-प्रसंगों का प्रतिशत कुछ अधिक होगा ताकि वे अपने से लगें। यह उन पुराने दिनों की बात है जब न तो हिन्दू बुजुर्गों को अन्य धर्मों-देशों के महापुरुषों के जीवन चरित्रों से बच्चों को कुछ सीखने की प्रेरणा लेने में कोई आपत्ति थी जो प्रायः बच्चों को उपहार में गीता प्रेस की ये छोटी-छोटी पुस्तकें दिया करते थे और न ही हमारे उन मुस्लिम-ईसाई मित्रों के माता-पिता को, जो स्कूल की लाइब्रेरी या कभी-कभी अन्य मित्रों से ये पुस्तकें ले जाते थे और रस लेकर उन्हें पढ़ते थे। यह वह पुरातनपंथी, दकियानूस कालखण्ड था जब देश में ऐसे स्वनामधन्य पत्रकारों-शोधकर्ताओं का उदय नहीं हुआ था जिन्होंने गीता प्रेस द्वारा प्रकाशित साहित्य में ’आक्रामक हिन्दुत्व’ और ’मेकिंग ऑफ हिन्दू इण्डिया’ जैसे तत्व खोज निकाले।

 सन् 1923 में स्थापित गीता प्रेस ने निःस्वार्थ सेवा, कर्तव्यबोध, प्रभुनिष्ठा, प्राणिमात्र के कल्याण की कामना तथा आत्म-परिष्कार जैसे सत् विचारों का साहित्य के माध्यम से प्रचार करते हुए केवल भारत में ही नहीं विदेशों में भी रहने वाले अनेक भारतीयों तथा उन विदेशियों के लिए, जो हिन्दू धर्म को समझना चाहते हैं, के बीच अपना स्थान बनाया है। स्थापना से अब तक लगभग 60 करोड़ पुस्तकें, जिनमें 11 करोड़ प्रतियाँ श्रीमद्भगवद्गीता और 9 करोड़ से अधिक रामचरितमानस की हैं, अपने आप में एक रिकार्ड है, किसी भी प्रकाशनगृह के लिए एक आकाश कुसुमवत स्वप्न। इस सफलता का कारण हिन्दुत्व की कट्टरता या आक्रामकता नहीं, बल्कि साफ-सुन्दर-शुद्ध छपाई के साथ-साथ अत्यन्त कम मूल्य भी है। जब आज कोई ‘फुटपाथिया’ समझा जाने वाला उपन्यास भी 80-100 रुपये में और साधारण स्थानीय पत्रिकाएँ और समाचार पत्र, जिनकी आय का बड़ा साधन उनमें छपने वाले ऊल-जलूल विज्ञापन हों, भी 8-10 रुपये में उपलब्ध हो रहा हो, क्या कोई लागत विश्लेषक 2-3 रुपये में हनुमान चालीसा या श्रीविष्णुसहस्रनाम या 5-10 रुपये में बालोपयोगी कोई पुस्तक देने का हिसाब बता सकेगा? कार्टून, टी.वी.-वीडियो-मोबाइल गेम के इस युग में जब बच्चों में पढ़ने की आदत ही समाप्त होती जा रही हो, गीता प्रेस द्वारा 11 करोड़ के आस-पास बालोपयोगी पुस्तकों की ब्रिकी का आँकड़ा कल्पना से परे प्रतीत होता है।

कुल 1600 प्रकाशनों में से लगभग आधी पुस्तकें गीता प्रेस ने हिन्दी और संस्कृत में छापी हैं। शेष मराठी, गुजराती, बंगला, कन्नड़, तेलुगु, उड़िया, तमिल आदि भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी में हैं। गीता प्रेस से प्रकाशित होने वाली मासिक पत्रिका ‘कल्याण’ तथा ‘कल्याण कल्पतरु’ अँग्रेजी के प्रकाशन का प्रारम्भ 1600 प्रतियों से अगस्त 1955 में हुआ जो कि आज लगभग ढाई लाख परिवारों तक पहुँचती हैं। बिना कोई सरकारी अनुदान लिए, बिना कोई विज्ञापन छापे और यहाँ तक कि बिना किसी जीवित व्यक्ति का चित्र छापे इतना बड़ा प्रकाशन संस्थान चलाना आज किसी आश्चर्य से कम नहीं है।

पुस्तक प्रकाशन के अतिरिक्त ऋषिकेश स्थित गीता भवन तथा आयुर्वेद संस्थान, चुरू (राजस्थान) में स्थित वैदिक विद्यालय, हस्तनिर्मित वस्त्र विभाग, आपदा राहत के समय काम करने वाला गीता प्रेस सेवादल आदि भी गीता प्रेस द्वारा ही संचालित अन्य कार्य हैं।

नये खोजी पत्रकारों ने अति उत्साह में गीता प्रेस के साहित्य को ‘आक्रामक हिन्दुत्व का प्रचार करने वाला’ निरूपित करने के पीछे जो विभिन्न तर्क गढ़े हैं उनमें एक यह भी है कि कल्याण ने महामना मालवीय जी पर विशेषांक छापा, पं. नेहरू पर नहीं क्योंकि गीता प्रेस के संस्थापक स्व. हनुमान प्रसाद पोद्दार (भाई जी) नेहरू जी को अधर्मी मानते थे। उनकी इस शोध में यदि यह तथ्य भी उन्होंने जोड़ा होता कि जब 1936 में गोरखपुर क्षेत्र में भयंकर बाढ़ के दौरान पीड़ित क्षेत्र के अवलोकन के लिए पं. नेहरू वहाँ आये और अँग्रेज कलेक्टर की इस धमकी के कारण कि जो कोई नेहरू जी का साथ देगा, उसका नाम विद्रोहियों की सूची में लिखा जायेगा, जब बड़े-बड़े उद्योगपति और कांग्रेस के नेता नेहरू जी का साथ देना छोड़ उन्हें परिवहन तक उपलब्ध कराने का साहस नहीं जुटा पाये, तब नेहरू जी को अपनी कार से भ्रमण कराने का साहस हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने ही किया था।

सामाजिक सुधार और जागृति का संदेश देने वाली पुस्तकें – नारी शिक्षा, विवाह में दहेज, सिनेमा-मनोरंजन या विनाश, तथा शिक्षा पद्धति में सुधार के लिए वर्तमान शिक्षा आदि पुस्तकों की रचना भाई जी ने उस समय की, जब ये विषय समाज में बड़े विरोध का कारण बन सकते थे परन्तु उसकी परवाह न करते हुए गीता प्रेस ने इसे प्रकाशित किया। पत्रकार बन्धुओं ने आक्रामक हिन्दुत्व का आरोप मढ़ने से पहले यदि इन पुस्तकों को भी देख लिया होता तो वे अपने अनुसंधान में निष्पक्ष हो सकते थे।

सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति दुरैस्वामी राजू के शब्दों में, “गीता प्रेस के लोग आध्यात्मिकता की बुनियादी सेवा कर रहे हैं और भारतीय धरोहर की कुछ इस प्रकार रक्षा कर रहे हैं जिसका विश्व के इतिहास में उदाहरण मिलना कठिन है।”

100 वर्षों से सद्साहित्य के प्रचार-प्रसार की सतत मौन साधना में रत यह प्रकाशन संस्थान देश के लिए, केवल हिन्दू श्रद्धालुओं के लिए ही नहीं अपितु सद्विचारग्राही प्रत्येक व्यक्ति के लिए गौरव का केन्द्र है। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने गोरखपुर की जनसभा में अपने उद्गार इन शब्दों में व्यक्त किये, “गीता प्रेस ने हमारी महान सांस्कृतिक विरासत, हमारे ऋषि-मुनियों के चिन्तन और हमारे ज्ञानियों की सांस्कृतिक रचनाओं को अक्षरदेह देने का कार्य किया है।” परन्तु यह बात तो हमारे उन छद्म सेकुलरवादी मित्रों की शोध को ही पुष्ट करने वाली है क्योंकि ‘आक्रामक हिन्दुत्व’ के उनके आरोप से तो स्वयं प्रधानमंत्री भी कहाँ मुक्त हैं?

(लेखक विद्या भारती के अखिल भारतीय महामंत्री है।)

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