✍ वासुदेव प्रजापति
भारत में आदिकाल से श्रेष्ठ समाज व्यवस्था रही है। श्रेष्ठ समाज में दो विशेष बातें होती हैं, एक समृद्धि और दूसरी संस्कृति। जिस समाज में इन दोनों का सन्तुलन होता है, वहाँ समृद्धि एवं संस्कृति दोनों ही फलती-फूलती है। भारत के दीर्घकालीन इतिहास ने इस बात को सिद्ध करके दिखाया है।
समृद्धि व संस्कृति का संतुलन
भौतिक वस्तुओं की विपुलता को समृद्धि कहते हैं। विपुलता के साथ-साथ उन वस्तुओं की गुणवत्ता, उपयोगिता तथा मूल्यवान होना भी आवश्यक है। ये सभी वस्तुएँ हमारे उपभोग के लिए होती हैं, इनका अच्छी तरह, मन भरकर पूर्ण उपभोग करना ही वैभवमय जीवन जीना माना गया है। अर्थात् वैभव सम्पन्न जीवन में उच्च स्तर की भौतिक सामग्री और उसका पूर्ण उपभोग दोनों साथ-साथ चलते हैं।
भौतिक सामग्री की विपुलता तीन बातों पर निर्भर करती है। एक है प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धि, दूसरी है निर्माण करने की कुशलता और तीसरी है कल्पनाशीलता व निर्माणक्षम बुद्धि। इस निर्माणक्षम बुद्धि में सृजनशीलता जुड़ने से कारीगरी कला में बदल जाती है। ये तीनों ही बातें महत्वपूर्ण हैं, इनमें से एक भी कम हो तो सामग्री की गुणवत्ता और विपुलता में कमी हो जाती है। भारत की चिरन्तन समृद्धि का राज यही है कि हमारे यहाँ ये तीनों ही बातें सदैव पर्याप्त मात्रा में रहीं हैं।
कारीगरी और बुद्धि दोनों मिलकर प्राकृतिक संसाधनों को आवश्यक सामग्री में परिवर्तित करते हैं। परिवर्तित होने के बाद ही वह सामग्री हमारे लिए उपयोग में लाने योग्य बनती है, इसे ही हम उत्पादन कहते हैं। उत्पादन के साथ वितरण का काम भी जुड़ा हुआ है। उत्पादित सामग्री को जिन्हें चाहिए उन तक पहुँचाने की व्यवस्था ही वितरण कहलाती है। उत्पादन और वितरण की प्रक्रिया और पद्धति का नियमन करने वाली व्यवस्था संस्कृति है। संस्कृति के नियमन में रहकर प्राप्त की हुई समृद्धि हमेशा सुरक्षित व चिरन्तन बनी रहती है।
श्रमनिष्ठा का महत्व
सामग्री के निर्माण में श्रमनिष्ठा का सर्वाधिक महत्व है। जब श्रमनिष्ठा होती है तब व्यक्ति उत्पादन में अपने पूर्ण व्यक्तित्व के साथ जुड़ा रहता है। उसका मन पवित्र भाव से, रुचि के साथ, प्रसन्नतापूर्वक कर्तव्य भाव से काम में जुड़ा रहता है। उसकी बुद्धि सामग्री निर्माण में मार्गदर्शक बनती है। उसका हृदय कल्पनाशील बनकर निर्माण में लगता है। अर्थात् श्रम निष्ठा होने से व्यक्ति तन, मन, बुद्धि व हृदय पूर्वक निर्माण में अपनी सम्पूर्ण प्रतिभा को झोंक देता है। तब जो वस्तु निर्माण होती है वह केवल भौतिक वस्तु मात्र नहीं होती, उसमें जीवित कारीगर की जीवन्तता विद्यमान होती है। ऐसी जीवन्त वस्तु का उपभोग करने वाले को केवल भौतिक सुख ही प्राप्त नहीं होता वरन भावात्मक तृप्ति भी मिलती है।
श्रम निष्ठा होने के लिए आवश्यक बिन्दु है कि कारीगर अपनी उत्पादन प्रक्रिया का मालिक हो, नौकर नहीं। वह स्वेच्छा और स्वतंत्रता पूर्वक अपना काम करने वाला हो। नौकरी करने वाला स्वेच्छा से व स्वतंत्रतापूर्वक काम नहीं कर सकता। इसलिए हमारे देश में उत्पादन के क्षेत्र में नौकरी की प्रथा कभी नहीं रही। यदि कभी किसी को रखा भी तो नौकर के रूप में नहीं, परिवार के एक सदस्य के रूप में ही रखा और उसे पूर्ण स्वतंत्रता दी।
अंग्रेजों ने इस श्रम निष्ठा का नाश कर दिया और नौकरशाही को जन्म दिया। अंग्रेजों के लिए तो पूरे देश की जनता ही नौकर थी। चाहे वह उच्च प्रशासनिक अधिकारी हो या एक चपरासी हो दोनों उनके नौकर ही थे। उत्पादन के क्षेत्र में तो सब उनके मजदूर थे, उनके साथ तो गुलामों जैसा व्यवहार करते थे। कोड़ों की मार के साथ-साथ गाली-गलौच, तिरस्कार, अपमान आदि के द्वारा सब प्रकार से परेशान किया जाता था। उनकी नजर में भारत के लोग उनके लिए अनपढ़, जंगली व कुली मात्र थे। उन्हें जान-बूझकर नौकरों, मजदूरों और गुलामों की तरह रखा जाता था।
श्रम की अप्रतिष्ठा की गई
अंग्रेज राजा थे, वे स्वयं काम नहीं करते थे, भारतीय प्रजा गुलाम थीं इसलिए काम करती थीं। अतः उन्होंने हमारे मन-मस्तिष्क में यह बात बैठा दी कि जो काम करता है वह गुलाम होता है और जो काम करवाता है वह मालिक होता है। अर्थात् काम करना तुच्छ कर्म है जबकि काम करवाना श्रेष्ठ कर्म है। यह काम करने व करवाने की प्रक्रिया सौ वर्षों तक चली, इन सौ वर्षों में काम करना निम्न है और काम करवाना श्रेष्ठ है, यह बात हमारे दिल व दिमाग में गहरी बैठा दी गई।
इसका दुष्परिणाम बहुत घातक हुआ। उस समय के लोगों को लगने लगा कि हमारा अपना पैतृक काम तो निम्न स्तर का है और नौकरी करके दूसरों पर हुकम चलाना और उनसे काम करवाना श्रेष्ठ है। इसलिए उस समय की अधिकांश युवा पीढ़ी ने अंग्रेजों का नौकर बनना स्वीकार कर लिया। उस समय की पीढ़ी ने ही नौकरी को श्रेष्ठ नहीं माना अपितु स्वतंत्र भारत की आज की युवा पीढ़ी भी नौकरी को ही श्रेष्ठ मानती है। आज भी वे श्रमसाध्य अपना पैतृक काम करना हेय मानते हैं और श्रम न करने वाली नौकरी को श्रेष्ठ मानते हैं। इस प्रकार अंग्रेजों ने हमारे देश में जो श्रम के प्रति एक श्रेष्ठ भाव था उसको समाप्त कर दिया।
यंत्रों ने श्रम का महत्व घटाया
इंग्लैण्ड में 19वीं शताब्दी में औद्योगिक क्रान्ति हुई। अनेक यंत्रों के आविष्कार हुए और उनकी सहायता से कारखाने स्थापित होने लगे। उन कारखानों में वस्तुओं का विपुल मात्रा में उत्पादन होने लगा। उस समय यह औद्योगिक क्रान्ति सबको ही अद्भुत लगी, लोग इसे “न भूतो न भविष्यति” कहते थे। आज भी अनेक लोग इसके गुणगान करते हैं, परन्तु ऐसा मानने वाले लोग भी हैं जो इसे आर्थिक क्षेत्र का आतंक भी मानते हैं।
ये यंत्र व कारखाने इंग्लैंड से भारत में आए। केवल भारत ही नहीं तो पूरी दुनिया में गए। ये जहाँ-जहाँ भी गए, वहाँ-वहाँ, नई-नई सांस्कृतिक समस्याएँ खड़ी करने लगे। पहली समस्या नौकरी की थी, कारखाने में मालिक तो एक ही होता था, शेष सभी छोटे-बड़े नौकर होते थे। ये नौकर भी दो प्रकार के होते हैं, एक व्यवस्था देखने वाले और दूसरे प्रत्यक्ष काम करने वाले, जिन्हें कारीगर या मजदूर कहा जाता है। अर्थात् एक वर्ग प्रत्यक्ष काम करने वाला और दूसरा वर्ग उनसे काम करवाने वाला और इन दोनों के ऊपर तीसरा इनको वेतन देने वाला मालिक। कैसी विचित्र व्यवस्था कि काम नहीं करने वाला काम करने वालों का नियमन करता है, उन पर नियंत्रण रखता है, उन्हें डाँटता है उनका अपमान भी करता है और उन्हें स्वयं से हीन समझता है। इसलिए कि काम करने वाला कनिष्ठ है और काम करवाने वाला वरिष्ठ है। जबकि वे दोनों ही मालिक के नौकर हैं।
नौकरी के दुष्परिणाम
नौकरी को ‘व्हाइट कॉलर जोब’ कहा जाता है। यह ऐसा वर्ग है जिसके कपड़े गन्दे नहीं होते। जो काम करने से थकता नहीं, क्योंकि उसके काम में मेहनत नहीं करनी पड़ती, पसीना नहीं बहाना पड़ता। उसे यंत्रों की आवाज से परेशान नहीं होना पड़ता, यंत्रों से उसे किसी प्रकार का भय भी नहीं होता, जो अपमानित होने से भी बचा रहता है। नौकरी करना सरल है, आरामदायक है और नौकरी उसे दूसरों को डाँटने का अधिकार भी देती है, इसलिए नौकरी बहुत अच्छी है। इस मानसिकता के अनेक दुष्परिणाम हुए हैं, जिनमें सबसे प्रमुख है, श्रम की अप्रतिष्ठा। श्रम की अप्रतिष्ठा आज देश को बहुत बड़ी हानि पहुँचा रही है। परिश्रम करना हीनता का सूचक बन गया है। इसलिए परिश्रम नहीं करना आज प्रतिष्ठा का, सुख का व गौरव का पर्याय बना हुआ है। अधिकांश लोग इसे सही व व्यावहारिक मानते हैं, अतः यह रोग दिनोदिन अनेक रूप धारण कर फैल रहा है।
नौकरी का दूसरा दुष्परिणाम यह है कि नौकरी करने वाला दूसरे का काम करता है और दूसरे के लिए करता है। परिणामस्वरूप उसे काम करने का सन्तोष व सुख बिल्कुल नहीं मिलता। इसके विपरीत जो व्यक्ति अपना काम करता है उसमें जिम्मेदारी की भावना होती है। उसमें अच्छा काम करने की ललक होती है, काम पूर्ण करने का लक्ष्य होता है, उपलब्धि का गर्व होता है, स्वामित्व का गौरव होता है, इससे भी बढ़कर अच्छे से अच्छा करने की अर्थात् उत्कृष्टता प्राप्त करने की प्रेरणा होती है। अपना काम करने में आनन्द प्राप्त होता है, इसलिए कि काम भी अपना है और काम का फल भी अपना है। नौकरी करने वालों के लिए ये सब कहाँ? उन्हें तो केवल मजबूरी में यह सब करना पड़ता है, आत्मिक आनन्द व आत्म-गौरव उनसे कोसों दूर रहते हैं। नौकरी वाला तो अन्य किसी के द्वारा नियोजित होता है, अधिकांश तो मनुष्यों द्वारा भी नहीं जड़ व्यवस्था के द्वारा नियोजित होते हैं। न काम उसका, न काम का फल उसका मात्र वेतन ही उसका होता है। मनौवैज्ञानिक और आत्मिक दृष्टि से यह व्यक्ति व समाज की बड़ी भारी क्षति है। नौकरी उसके गौरव व आनन्द का नाश करने वाली है।
नौकरी करने वाले की सदैव यह इच्छा रहती है कि स्वयं काम नहीं करना, और दूसरों से काम करवाना। यह इच्छा सब ओर दिखाई देती है। यदि दूसरों से काम करवाना हाथ में नहीं है तो क्या हुआ, स्वयं काम नहीं करना तो अपने ही हाथ में है। हर कोई कर्मचारी काम कैसे टाल सकते हैं, इसका अवसर ही खोजता रहता है। बिना कुछ मिले काम नहीं करना, यही इच्छा उसकी रहती है। वेतन के लिए काम नहीं वह तो उसका अधिकार है, काम करवाना है तो कुछ देना अनिवार्य है अन्यथा काम नहीं होता। वे वेतन को तो अपना मानते हैं किन्तु काम को अपना नहीं मानते हैं। यह कैसी विसंगति निर्माण हुई है, जो देश के विकास में रोड़ा बनी हुई है।
परिवार में नौकर रखने की विवशता
श्रम की अप्रतिष्ठा के परिणामस्वरूप घर के लोग भी घर का काम करना नहीं चाहते और बच्चों से करवाते नहीं। अरे! वे पढ़ाई कर रहे हैं, उन्हें मत छेड़ो पढ़ाई करने दो। न काम करवाते हैं और न काम करना सिखाते हैं, क्योंकि घर में काम करने वाले नौकर हैं। उच्च व मध्यम वर्ग के परिवारों में यही स्थिति है। उन परिवारों के बालक क्या बालिकाएँ भी घर का काम करना हेय मानती हैं और काम करने से दूर भागती हैं।
जब घर के काम से बड़े और बच्चे सभी मुँह मोड़ते हैं तब घर की गृहिणी को विवश होकर नौकर रखना ही पड़ता है। परन्तु वे नौकर क्या काम करते हैं, कैसा काम करते हैं? इसकी वे पूछताछ नहीं करते क्योंकि वे स्वयं नहीं जानते कि अच्छा काम किसे कहते हैं और कैसे होता है। आज तो स्थिति यह हो गई है कि नौकर को डाँटना भी असम्भव है। पहले घरों में नौकर नहीं होते थे, घर के काम घर के लोग मिल-जुल कर करते थे। कभी घर में कोई विशेष प्रसंग उपस्थित होने पर अथवा बीमारी में नौकर रखते भी थे तो वे नौकर कम सहयोगी अधिक होते थे। घर के साथ उनका पारिवारिक सम्बन्ध बनता था, और वे घर के लोगों के साथ मिलकर आनन्द से काम करते थे। परन्तु आज नौकरों ने घर के लोगों का काम अपने हाथ में ले लिया है। घर के लोग पूर्णतया उन पर निर्भर हो गए हैं। नौकर नहीं आया तो काम करना पड़ेगा, इस भय से उसका मन रखना पड़ता है, डाँटना तो दूर उसकी खुशामद करनी पड़ती है। नौकर भी घरवालों की यह विवशता समझता है। नौकर को वेतन से मतलब होता है, काम से या घर से नहीं, इसलिए वह भी जैसे तैसे काम पूरा कर अगले घर चला जाता है। इस प्रकार न तो घर के लोगों में श्रम के प्रति निष्ठा है और न नौकरों में ही काम को निष्ठापूर्वक करने की भावना है। यह सारी परिस्थिति श्रम की अप्रतिष्ठा तथा नौकरी की प्रतिष्ठा के कारण बनी है।
नौकरी की प्रतिष्ठा को आज की शिक्षा भी खाद-पानी देने का काम ही कर रही है। इसके कारण स्थिति दिन प्रतिदिन और अधिक बिगड़ती जा रही है। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी कम कुशल, कम कार्य करने वाली, बुद्धिहीन व भावना रहित होती जा रही है। इसे रोकना समय की माँग है और यह श्रम की पुनः प्रतिष्ठा से ही संभव हो सकता है। इसीलिए हम विद्यालय में गाते हैं –
“श्रमनिष्ठा कल्याणी है।”
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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