✍ वासुदेव प्रजापति
हमारी मान्यता है कि अव्यक्त परमात्मा ने इस सृष्टि की रचना की है। इस सृष्टि में केवल मनुष्य ही नहीं हैं, अन्य प्राणी भी हैं। प्राणियों की भाँति वृक्ष-वनस्पति हैं, पर्वत तथा नदियाँ भी हैं। गृह-नक्षत्र हैं तो पंचमहाभूत भी हैं। यह सृष्टि उस अव्यक्त परमात्मा का ही व्यक्त रूप है। परमात्मा के इन सभी व्यक्त रूपों में मनुष्य उसका सर्वश्रेष्ठ व्यक्त रूप है, इसीलिए उसे व्यक्ति कहते हैं। यहाँ एक स्वाभाविक जिज्ञासा होती है कि व्यक्ति ही सर्वश्रेष्ठ क्यों हैं? व्यक्ति सर्वश्रेष्ठ इसलिए है कि ईश्वर ने उसे अपनी प्रतिकृति बनाया है। उसे जन्मजात ऐसी ऐसी विलक्षण क्षमताएँ, शक्तियाँ एवं सम्भावनाएँ दी हैं, जो अन्यों में नहीं हैं, जैसे – कुशल कर्मेन्द्रियाँ व अनुभवजन्य ज्ञानेन्द्रियाँ, सक्रिय मन, तेजस्वी बुद्धि, कर्ता, ज्ञाता व भोक्तापन वाला अहंकार और निर्मल चित्त जैसे सक्रिय साधन केवल मनुष्य को ही मिले हैं। मनुष्य में यह अद्भुत संभावना है कि वह इन सब क्षमताओं व शक्तियों का यथायोग्य विकास करके नर से नारायण बन सकता है। शिक्षा के द्वारा इन क्षमताओं व शक्तियों का विकास होता है, यह भारत ने सिद्ध करके दिखाया है। किन्तु जब अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा के स्थान पर पश्चिमी शिक्षा देनी प्रारम्भ की तो उसके दुष्परिणामों के फलस्वरूप भारतीयों की ईश्वर प्रदत्त इन क्षमताओं व सम्भावनाओं का विकास होना तो दूर अपितु नाश ही हो रहा है। यहाँ हम अपनी उन दुर्बलताओं पर विचार करेंगे, जिनका मूल कारण पश्चिमी शिक्षा है।
हमारी दुर्बलताएँ
अंग्रेजी संस्कृति को अपनाने के कारण भारतीय प्रजा अपाहिज बन रही है। यंत्रों के अन्धाधुन्ध प्रयोग तथा श्रम की अप्रतिष्ठा जैसे कारणों से भारतीयों की मूल क्षमताओं व शक्तियों का नाश हो रहा है। जो उसे दिखाई नहीं दे रहा है यदि दिखाई दे भी रहा है तो वह उन्हें बचाने की स्थिति में नहीं है। यह स्थिति हम सब भारतीयों के लिए अत्यन्त चिन्तनीय विषय है।
- जन्म विषयक दुर्बलता
पूर्वकाल में भारत की माताओं ने एक से बढ़कर एक नरपुंगवों को जन्म दिया है, परन्तु आज स्थिति यह हो गई है कि संतान माँ की कोख में बिना दवाइयों के आता ही नहीं है। ये दवाइयाँ जैविक नहीं होती, कृत्रिम प्रक्रिया से गर्भ को रोकने का प्रयत्न होता है। अनेक बार वे जीवित शरीर के साथ समरस नहीं हो पाती, फलतः जन्म के पहले से ही कठिनाइयों का क्रम शुरु हो जाता है।
आज गर्भावस्था में ही मधुमेह, रक्तचाप और हृदय की ओर जाने वाली रक्तवाहिनियों में अवरोध जैसी बीमारियाँ लग जाने का अनुपात बढ़ रहा है। जन्मजात बीमारियों का जन्म के बाद ठीक होना असम्भव जैसा है। परिणामस्वरूप बच्चों की जन्मजात शारीरिक व मानसिक क्षमताएँ कम होती हैं। जो बालक-बालिकाएँ कम क्षमताओं के साथ ही जन्म लेते हैं, जन्म के बाद उनकी क्षमताओं को बढ़ाना सम्भव नहीं होता।
- टीवी के प्रयोग से दुर्बलता
शिशु के जन्म लेने के बाद घर का वातावरण, माता का आहार-विहार और शिशु के लालन-पालन का तरीका तथा उसके खिलौने भी उसके विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। परन्तु आजकल इनका स्थान मोबाइल, कम्प्यूटर और टीवी ने ले लिया है। शिशु को भोजन करवाते समय भी टीवी या मोबाइल दिखाना अनिवार्य हो गया है, यदि उसे नहीं दिखाओगे तो वह रोयेगा और भोजन नहीं करेगा इसलिए दिखाते हैं, या माँ को नौकरी पर जाना है, जल्दी है इसलिए भी टीवी चालू करदेते हैं। परन्तु यह सब करने से उसकी क्षमताओं व शक्तियों का क्षरण होता है, जो उस समय माता-पिता के ध्यान में ही नहीं आता और बाद में पछताना पड़ता है।
- बौद्धिक शक्तियों की दुर्बलता
जैसै-जैसे शिशु की आयु बढ़ती है, वैसै-वैसे उसकी स्मरणशक्ति, ग्रहणशक्ति, कार्यशक्ति व रोग प्रतिरोधक शक्ति का विकास होना चाहिए, परन्तु आज इन सब कारणों से विकास होना तो दूर, उनकी वे शक्तियाँ क्षीण होती जाती हैं। बोली हुई सीधी सरल बात भी समझ में नहीं आती, कही हुई बात का मर्म वह पकड़ नहीं पाता, कार्य-कारण सम्बन्ध को जान नहीं पाता, विचारों की मौलिकता का न होना, बुद्धि के चमत्कार देखकर भी आनन्द की अनुभूति न होना आदि बातें बुद्धि की दरिद्रता ही तो है। हमारा सर्व सामान्य युवा वर्ग इस बौद्धिक दरिद्रता का शिकार है।
- मन की दुर्बलता
आज का युवा वर्ग हमेशा मन का रंजन करना चाहता है। हर प्रकार की विलास की वस्तुओं से तुरन्त आकर्षित हो जाता है। छोटे से आकर्षण को भी रोक नहीं पाता और निकृष्ट वस्तुओं के प्रति भी लालायित रहता है। वह हल्के और असंस्कारी तरीकों से खुशी प्रकट करता है। ये सभी असंयमित मन के लक्षण हैं। मन की शिक्षा के स्थान पर मात्र मन का रंजन करने से मन दुर्बल ही होता है। मन की दुर्बलता के कारण छोटी-छोटी बातों में तनाव हो जाना, कहीं पर जरा-सी बाधा आ गई तो तुरन्त उत्तेजित हो जाना, कभी असफलता की आशंका खड़ी हुई तो हताश हो जाना और ऐसे में कभी विपरीत परिस्थिति उपस्थित हो गई तो उसका सामना करने के स्थान पर आत्महत्या कर लेना जैसी आत्मघाती वृत्ति बड़ी मात्रा में पनप रही है, जो मन की दुर्बलता के कारण है।
- स्वार्थ वृत्ति की दुर्बलता
मनुष्य का मन ही यदि विकृत है तो ऐसा व्यक्ति कभी भी स्वार्थ से ऊपर नहीं उठ सकता। स्वार्थ पूर्ति के लिए खुशामद करना, अपमान भी सह लेना, बलवान से द्वेष रखना और निर्बल को दबाना, छीन सकते हैं तो छीनने में या लूटने में संकोच नहीं करना, छल-प्रपंच व बेईमानी से परहेज नहीं करना, उनके स्वभाव में आ गया है। लोगों के प्रति दया, करुणा और अनुकम्पा न होना विकृत मन के ही लक्षण हैं। किसी में श्रद्धा न होना, किसी का विश्वासपात्र न बनना, धोखाधड़ी करके पैसा कमाना, दवाइयों में, खाद्य सामग्री में निसंकोच मिलावट करना। डॉक्टरों, होटल मालिकों द्वारा रोगियों व निर्धनों के प्रति अमानवीय व्यवहार करना, स्वार्थ वृत्ति की पराकाष्ठा ही तो है।
- सुविधाओं की दुर्बलता
जनता को गैस सिलेंडर, राशन, बिजली-पानी आदि मुफ्त सुविधा देकर, विद्यार्थियों के लिए सरल प्रश्नपत्र बनाकर, गलत उत्तरों के भी अंक देकर, परीक्षा में किसी को भी अनुत्तीर्ण न कर, विद्यार्थियों को मोबाइल, लेपटॉप व स्कूटी जैसी निशुल्क सामग्री देकर, उनके लिए सब प्रकार की सुविधाएँ उपलब्ध करवाकर, हम उनके शरीर, मन, बुद्धि को कसने के स्थान पर सुविधाभोगी बना रहे हैं। सुविधाभोगी बन जाने से वे आलसी बन जाते हैं, उनमें जुझारू वृत्ति समाप्त हो जाती है। इस प्रकार अधिक सुविधाएँ देकर हम दिन प्रतिदिन उनकी शक्तियों को क्षीण करने का काम ही कर रहे हैं।
दुर्बलताओं का कारण पश्चिमी शिक्षा
दुर्बलता का कारण पश्चिमी शिक्षा है, यह कहते ही इसके पक्षधर खड़े हो जाते हैं। व्यक्ति की इन दुर्बलताओं का पश्चिमी शिक्षा से क्या लेना-देना? क्या ये सब यूरोप या अमेरिका कर रहा है? यहाँ जिन-जिन दुर्बलताओं का उल्लेख किया गया है, ऐसी सभी दुर्बलताएँ उन देशों में कम हैं। इतने दुर्गुण व इतनी दुर्गति वहाँ नहीं हैं। भारत में यह स्थिति लाने वाले भारतीय ही हैं, फिर व्यर्थ में पश्चिमी शिक्षा पर यह आरोप लगाना कहाँ तक उचित है?
यह बात सत्य है कि प्रथम दृष्टया भारत की इस दुर्गति के कारण भारतीय ही हैं, ऐसा लगता है। परन्तु यह भी सत्य है कि इन सब दोषों की जनक और इनका निवारण नहीं करने वाली तो शिक्षा ही है। भारत में दी जाने वाली शिक्षा भारतीय शिक्षा नहीं है। हम अभी भी शिक्षा के पश्चिमीकरण से मुक्त नहीं हो पाए हैं। ये सभी समस्याएँ उसी पश्चिमी शिक्षा से ही जन्मी हुई हैं।
एक और बात है, क्या खाद्य पदार्थों में मिलावट करना किसी पाठ्यक्रम में सिखाया जाता है? क्या देशद्रोह किसी विद्यालय में सिखाया जाता है? क्या चोरी करना कोई अध्यापक सिखाता है? ऐसा तो बिल्कुल नहीं है, फिर भी हम समाज की दुर्गति का दोष शिक्षा के माथे पर ही मढ़ते हैं, यह सच है।
इन सब बातों का उत्तरदायित्व शिक्षा का ही होता है। शिक्षा के द्वारा हम जो सिद्धांत बालकों को सिखाते हैं, उन्हीं सिद्धांतों के आधार पर व्यवहार होता है, “जैसा सिद्धांत वैसा व्यवहार” यह सार्वभौम सिद्धांत है। यदि हमने पश्चिम का सिद्धांत सिखाया कि “अर्थशास्त्र का नैतिकता से कोई सम्बन्ध नहीं है”। तो व्यापार में सब कुछ चलता है, जैसा अप्रामाणिक व्यवहार सिखाने की जरूरत नहीं पड़ती वह स्वतः करने लगता है। व्यक्ति कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र है, यह सिखाने से उसे स्वार्थी बनने के लिए और कुछ भी सिखाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। पश्चिम के व्यक्ति केन्द्री समाज रचना का सिद्धांत सिखाने से व्यक्ति स्वार्थी ही बनता है। पश्चिम में श्रम के प्रति निष्ठा नहीं, उनका मानना है कि काम करने वाला छोटा और काम करवाने वाला बड़ा होता है। यदि यह सिद्धांत सिखाया गया तो शोषण करने की कला अलग से नहीं सिखानी पड़ती, वह अपने आप शोषण करना सीख जाता है।
हमारे देश में सभी पठनीय विषयों का आधार सांस्कृतिक है, जबकि पश्चिम में वे भौतिक आधार को मान्य करते हैं। इसका सीधा सा परिणाम यह होता है कि सांस्कृतिक सिद्धांत पढ़ने वालों का व्यवहार सदैव संस्कृति निष्ठ होगा, जबकि भौतिक सिद्धांतों को सीखने वालों का व्यवहार संस्कृति व धर्म विरोधी ही होगा। हमने आज तक धर्मनिरपेक्ष भारत में शिक्षा को धर्म व संस्कृति से दूर ही रखा और पश्चिमी शिक्षा ही देते रहे। इसलिए पश्चिमी शिक्षा ही सब प्रकार के सामाजिक व सांस्कृतिक दूषणों का मूल स्रोत है। साथ में हम भी दोषी इसलिए बन जाते हैं कि हमने आज तक भारतीय शिक्षा न देकर पश्चिमी शिक्षा ही दी है। भला, बबूल के पैड़ से आम कैसे मिलेंगे? यदि हम अपने देश से इन दोषों को मिटाना चाहते हैं तो हमें अपनी नई पीढ़ी को भारतीय शिक्षा ही देनी होगी। भारतीय शिक्षा प्राप्त कर ही नई पीढ़ी संस्कृतिनिष्ठ व्यवहार करने वाली बनेगी।
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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