– डॉ विकास दवे
प्रिय बिटिया!
आपसे पूर्व की चिट्ठी में चन्द्रशेखर आजाद पर चर्चा के दौरान कहा था कि बचपन वह समय है जब यदि आप मन में दृढ़ संकल्प कर ठान लें तो ऐसा कोई कार्य नहीं हो सकता जो आप न कर सकें। शायद आपको अटपटा लगा होगा कि ऐसा भी कहीं होता है? कई बार हम असफल क्यों हो जाते हैं? इस माह हम हनुमान जयंती मनाने जा रहे हैं। यूं तो अपने विद्यालयों में आप प्रार्थना में ‘हनुमान जनको व्यासो, वशिष्ठस्य सुको बली’, कहकर प्रतिदिन अपने आदर्श के रूप में हनुमान जी को स्मरण करते ही है। कई विद्यालयों में मंगलवार को हनुमान चालीसा और सुंदर कांड के पाठ भी हनुमान जी के स्मरण का माध्यम है।
आप जानते ही हैं हनुमान जी का बचपन अपने आप में किसी गौरव गाथा से कम न था। सूर्य के तेज को तुच्छ समझकर खिलौना जान अपने मुँह में छिपा लेने जैसा अद्भुत कार्य उन्होंने अपने बचपन में ही कर दिखाया था। तभी तो आज हम गौरव से झुककर गाते हैं –
“बाल समय रवि भक्ष लियो, तब तिनहुँ लोक भयो अंधियारों।”
यह शक्ति कहाँ से आई? वही दृढ़ निश्चय और मन में ठान लेने वाली बात है। यदि बाल समय में असंभव को संभव कर दिखाने की मन में न होती तो क्या डॉ. हेडगेवार भी अपने बचपन में वह सब कर पाते जो उन्होंने किया? दूर किले पर स्थित अंग्रेजी साम्राज्य के प्रतीक ध्वज को उताकर वहाँ अपना ध्वज फहराने की मन में ठान कर जब केशव ने अपने घर से किले तक सुरंग खोदने का कार्य प्रारंभ किया होगा तब अन्य व्यक्तियों को यह कार्य भी सूर्य को मुँह में छिपाने जैसा असंभव कार्य लगा होगा। किन्तु आप जानते हैं कि बाल हनुमान ने वक्त आने पर सूरसा राक्षसी को अपना विराट स्वरूप दिखाया था और बालक केशव ने अपने व्यक्तित्व के साथ कृतित्व को एक विराट स्वरूप प्रदान किया। कहने का अर्थ यही है कि हमारे देश का बचपन सदैव ही मन में ठान कर बड़े से बड़ा कार्य करता रहा है। आओ हम भी दृढ़ निश्चय कर प्रण लें कि हमारा बचपन भी ऐसा स्वरूप धारण करके जिसे कल हमारी आने वाली पीढिय़ाँ अपने गौरव का प्रतीक मानें। बिल्कुल हनुमान जी और बालक केशव की तरह। निश्चय ही आप भी सागर लाँघने जैसे कार्य सहज कर पाओगी।
अन्त में श्रद्धेय सरल जी के शब्दों में –
यह अजब देश है, इसमें यौवन तो यौवन,
बचपन भी अपनी कुछ विशेषता रखता है।
बचपन लपटें पीता, काँटो पर चलता है,
जीवन के कड़वे फल भी बचपन चखता है।
बालक हो या बालिका, नहीं कुछ अंतर है,
बलिदान और वीरता सभी की थाती है।
हर उमर यहाँ करके दिखलाती कुछ कमाल,
हर उमर हँस कर बली चढ़ जाती है।
-तुम्हारे पापा
(लेखक इंदौर से प्रकाशित ‘देवपुत्र’ सर्वाधिक प्रसारित बाल मासिक पत्रिका के संपादक है।)