– ऋचा चारण
राजस्थान की धरा केवल वीरता की गाथाओं से ही नहीं गूँजती, बल्कि उसमें भक्ति की मधुर वीणा भी अनहद नाद करती है। चित्तौड़ की दुर्गम प्राचीरों और रणभूमि की ध्वनियों के बीच कहीं एक कोमल स्वर गूँजता है – वह स्वर है मीरा (1503-1546) का। वह मीरा, जिसने अपनी साधना से भक्ति को नया आयाम दिया; वह मीरा, जिसने अपने आँसुओं से गीतों की गागर भरी; और वह मीरा, जिसने समाज की रूढ़ियों को ठुकराकर केवल कृष्ण को ही अपना सर्वस्व माना।
मध्यकाल का वह समय अंधकारमय था। समाज रूढ़ियों की जकड़ में कैद था, धर्म कर्मकांड और पाखंड के बोझ तले दबा था, और नारी के जीवन की साँसें पर्दे और पराधीनता की दीवारों में कैद थीं। यही वह युग था जब विदेशी आक्रमणों की तलवारें भारत की आत्मा को लहूलुहान कर रही थीं। ऐसे कठिन समय में मीरा ने जन्म लिया और अपने गीतों से, अपने जीवन से और अपने विद्रोह से पूरे युग को झकझोर दिया।
कुड़की ग्राम (जोधपुर) की यह राजकन्या बचपन से ही कृष्ण की मूरत में खो जाती थी। उनके लिए वह श्याम केवल भगवान न थे, बल्कि जीवन साथी थे, आत्मा के आधार थे। विवाह हुआ मेवाड़ के भोजराज से, परंतु मन का बंधन तो पहले ही श्रीकृष्ण से बँध चुका था। पति की मृत्यु के बाद जब राजपरिवार ने उन्हें परंपराओं की कैद में बाँधना चाहा, तो मीरा ने समाज की मर्यादाओं को ठुकराकर अपना मार्ग स्वयं चुना। विष का प्याला भेजा गया, साँप की टोकरी दी गई, किंतु कृष्ण-प्रेमिनी मीरा ने सबको चरणामृत समझकर पी लिया। यह केवल आस्था नहीं, बल्कि जीवन के प्रति एक अद्वितीय दर्शन था – विष को अमृत में बदल देना।
मीरा का विद्रोह तलवार उठाने का विद्रोह नहीं था। वह प्रेम का विद्रोह था, आत्मा की स्वतंत्रता का विद्रोह था। जब समूचा समाज कहता रहा कि एक रानी का मंदिरों में जाकर भजन गाना अपमानजनक है, तब मीरा ने निर्भीक स्वर में उत्तर दिया –
“चाहे जगत करे निंदा सारा, मैं तो गिरधर के संग खेलूँगी।”
यह स्वर केवल एक स्त्री का स्वर नहीं था, यह उस मध्ययुगीन समाज की दीवारों पर हथौड़े की चोट थी।
मीरा का काव्य उनके जीवन का दर्पण है। उनके गीतों में वियोग की वेदना है, पीड़ा की लहर है, और साथ ही माधुर्य का ऐसा रस है कि हृदय अपलक सुनता रह जाए। जब वे कहती हैं –
“माई री, मैंने लियो गोविन्दो मोल”
तो यह केवल एक भावुक स्त्री की पुकार नहीं है, यह आत्मा का परमात्मा से मिलन है। उनकी भाषा में राजस्थानी की सोंधी मिट्टी है, ब्रज की मधुरता है और लोकभाषा की सहजता है। यही कारण है कि मीरा के पद साधु-संतों की चौपाल से लेकर जन-जन के कंठ तक उतर गए।
भक्ति-आन्दोलन की परंपरा में मीरा का स्थान अद्वितीय है। कबीर ने भक्ति को निर्गुण स्वर दिया, सूर ने वात्सल्य में डुबोया, तुलसी ने मर्यादा का आलोक फैलाया, पर मीरा ने उसमें माधुर्य का अमृत घोला। वे किसी पंथ की अनुयायी नहीं थीं, किसी सीमित संप्रदाय में बँधी नहीं थीं। उन्होंने एक चर्मकार संत रविदास को अपना गुरु मानकर यह सिद्ध कर दिया कि भक्ति में ऊँच-नीच का कोई स्थान नहीं।
मीरा की साधना केवल कृष्ण तक सीमित नहीं, बल्कि वह प्रेम का सार्वभौमिक संदेश है। वे कहती हैं कि प्रेम ही सच्चा धर्म है, प्रेम ही जीवन का आधार है। उनके लिए कृष्ण वह माध्यम थे, जिनसे वे सम्पूर्ण जगत को आलिंगन देना चाहती थीं। उनके गीतों में न कोई द्वेष है, न कटुता; वहाँ केवल करुणा है, क्षमा है और माधुर्य है।
यदि हम मीरा की तुलना अन्य भक्त कवयित्रियों से करें, तो आंडाल में भी वही कृष्णप्रेम झलकता है, अक्कमहादेवी में समाज-विरोध की वही ज्वाला है, लल्लेश्वरी में तप की वही गहराई है। परंतु मीरा इन सबसे अलग हैं क्योंकि उनके गीतों में संघर्ष के बीच भी मधुरता है, आँसुओं में भी गान है, और पीड़ा में भी उल्लास है। वे केवल कवयित्री नहीं, बल्कि युग की नारी की आत्मा हैं।
मीरा का प्रभाव केवल राजस्थान तक सीमित नहीं रहा। उनके पद गुजरात में, बंगाल में, कर्नाटक में गाए गए, यहाँ तक कि सिख साहित्य की ग्रंथावलियों में भी उनका स्थान मिला। मीरा ने कोई सम्प्रदाय नहीं बनाया, कोई संस्था नहीं खड़ी की, पर उनकी वाणी ने असंख्य हृदयों में प्रेम और भक्ति की ज्योति जला दी।
वास्तव में, मीरा केवल राजस्थान की पयस्विनी नहीं, भारत की भक्ति-गंगा की अनूठी धारा हैं। उन्होंने संसार को यह सिखाया कि स्त्री केवल परंपरा की मूर्ति नहीं, वह प्रेम की साधिका भी है; समाज की कैदी नहीं, बल्कि आत्मा की स्वतंत्र उड़ान भी है।
आज भी जब हम मीरा के पद गाते हैं –
“पायौ जी मैंने राम रतन धन पायौ”
तो लगता है कि सदियों बाद भी मीरा हमारे बीच जीवित हैं। उनका यह खजाना भौतिक नहीं, बल्कि आत्मिक है, और यही धरोहर उन्हें अमर बनाती है।
मीरा के बिना राजस्थान केवल वीरता की कथा होता; पर मीरा ने उस कथा में कोमलता का अध्याय जोड़ा। वे आज भी हमें यह सिखाती हैं कि जीवन के विष को भी अमृत बनाया जा सकता है, यदि हृदय में प्रेम और विश्वास हो।
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(लेखिका बालिका आदर्श विद्या मंदिर माजीवाला-बालोतरा में हिंदी अध्यापिका है।)