✍ प्रशांत पोळ
वराह मिहिर के पश्चात, लगभग 200 वर्षों के बाद, पाराशर ऋषि ने ‘कृषि पाराशर’ ग्रंथ लिखा। प्राचीन कृषि शास्त्र का संकलन और उस पर भाष्य, ऐसा इस ग्रंथ का स्वरूप है। यह ग्रंथ बहुत बड़ा नहीं है, परंतु जिस शास्त्र शुद्ध पद्धति से और अत्यंत वैज्ञानिक तरीके से भारतीय कृषक खेती करते थे, उसका विस्तार से वर्णन हैं, और ठोस प्रमाण भी!
पाराशर ऋषि की दृढ धारणा थी कि, बारिश की पूर्व सूचना, या बारिश की पूरे वर्ष की रूपरेखा, अगर वर्ष के प्रारंभ में ही पता चलती है, तो उसके अनुसार ‘कौन सा अनाज लेना ठीक रहेगा’ यह तय कर सकते है। इसलिये वे लिखते है-
वृष्टिमूला कृषिः सर्वा वृष्टिमूलं च जीवनम।
तस्मादादौ प्रयत्नेन वृष्टिज्ञानं समाचरेत्।।
अर्थात, संपूर्ण कृषि का मूल कारण वृष्टि (बारिश) है। वृष्टि अपने जीवन का भी मूलाधार है। इसीलिए, प्रारंभ में ही वर्षा का पूर्ण ज्ञान होना आवश्यक है।
ऋषि पाराशर के मतानुसार, दो या तीन दिन के बारिश के पूर्वानुमान का किसान को कतई उपयोग नहीं है। किंतु उसे पूरे वर्ष का बारिश का पैटर्न (आकृति बंध) अगर पता चलता है, तो किसान उस हिसाब से अपने खेती का नियोजन कर सकता है।
पूरे वर्ष के बारिश के पैटर्न का अनुमान निकालने के लिए, पाराशर ऋषि ने एक विधि विकसित की थी। इस विधि के अनुसार, पौष महीने के 30 दिन के वायु (हवा) की गति और दिशा के आधार पर, पूरे वर्ष के बारिश का पैटर्न तैयार कर सकते है। 30 दिन के घंटे होते हैं, कुल 30×24 = 720 घंटे। इन 720 घंटों को 60 घंटों का एक भाग करके विभाजित किया, तो बारा भाग तैयार होते हैं। अर्थात, बारा महिने। इन बारा भागों में, प्रत्येक भाग के प्रत्येक दिन, (अर्थात तीस दिन) सुबह-शाम वायु की गति और दिशा का अध्ययन किया, तो पूरे वर्ष में आने वाले बारिश का पैटर्न निश्चित रूप से विकसित कर सकते है। हर भाग को एक मास (एक महिना) माना, तब 12 भागों का मैपिंग बारा महिने में कर सकते है। एक भाग के दो घंटों को एक दिन माना जायेगा। (कुल साठ घंटे अर्थात तीस दिन)। उन दो घंटों में से पहला घंटा दिन और बाद का घंटा रात।
सार्ध्द दिनद्वयं मानं कृत्वा पौषादिना बुधः।
गणयेन्मासिकीं वृष्टिमवृष्टिं वानिलक्रमात।।
(वृष्टिखंडः / 21)
अर्थात पौष माह के पहले ढाई दिन में (अर्थात 60 घंटों में), अगर हवा पश्चिम और उत्तर दिशा में बह रही हो, तो उस कालखंड से संबंधित महीने के उस दिन बारिश होगी।
कितना अद्भुत है यह सब..!
मजेदार बात यह है कि, ‘कृषि पाराशर’ इस संस्कृत ग्रंथ का हिंदी अनुवाद करने वाले रामचंद्र पांडे ने, सन 1966 में ‘कृषि पराशर’ ग्रंथ में दिये हुए विधि से, काशी नगर में प्रयोग किया। इस प्रयोग में उन्हें काशी नरेश डॉक्टर विभूती नारायण सिंह और काशी के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के प्राध्यापक डॉक्टर धुनीनाम त्रिपाठी का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ।
विश्वविद्यालय के छत पर टेंट लगाकर, प्रतिदिन उन्होंने हवा की (वायु की) गति और दिशा का अध्ययन किया। ऐसा ही अध्ययन, काशी के रामनगर चौक में रहने वाले डॉक्टर आनंद स्वरूप गुप्त के छत पर भी किया गया। दोनों जगह के अध्ययन के आधार पर, उन्होंने पूरे वर्ष की बारीश की तालिका तैयार की। सन 1967 में पूरे वर्ष, प्रतिदिन, उस तालिका के अनुसार ग्रहों/नक्षत्रों की आकाशीय स्थिति, वृष्टि, अनावृष्टि आदि का अध्ययन किया गया। रामचंद्र पांडे लिखते है कि, ‘इसका परिणाम अच्छा मिला। सीमित संसाधनों को लेकर किये गये प्रयोग के अनुसार, वार्षिक बारिश का अनुमान 76 प्रतिशत सही रहा!
यह सभी अर्थो मे अद्भुत है। न कोई सेटेलाइट, न कोई वेदर सेन्सिंग उपकरण।।। ढेड हजार वर्ष पहले, हमारे विद्वान पुरखो ने किये हुए निरीक्षणों के आधार पर निकाला गया सटिक अनुमान।।!
दुर्भाग्य से शिक्षा क्षेत्र ने यह प्रयोग आगे नही बढाया। विश्वविद्यालय के फाईलों मे कही दब गया।
पाराशर ऋषि ने बादलों के चार प्रकार का वर्णन किया है।
- आवर्त 2. समर्थ 3. पुष्कर 4. द्रोण
आवर्तश्चैव संवर्तः पुष्करो द्रोण एव च।
चत्वरो जलदः प्रोक्ता आवर्तादि यथा क्रमम।।
(वृष्टिखंडः / 15)
इन बादलों से कब पानी गिर सकता है, या यूं कहे, किस प्रकार के बादल से, किस प्रकार का पानी, और कब गिर सकता, या नहीं गिर सकता, इसका भी विस्तार से वर्णन उन्होंने किया है। किसानों ने इन बादलों का अध्ययन करना चाहिए, ऐसा उन्होंने लिखा है।
पाराशर ऋषि ने अधिक अनाज कब आ सकता है यह भी लिखकर रखा है।
चित्रास्वातीविशाखासु ज्यैष्ठेमासी निरभ्रता।
तास्वेव श्रावणे मासि यदि वर्षति वासवः।।
तदा संवत्सरो धन्यो बहुशस्य फलप्रदः।।
(वृष्टिखंडः / 48)
अर्थात, जेठ के माह में चित्रा, स्वाती, विशाखा नक्षत्रों के समय आसमान निरभ्र होगा, साफ होगा। इन तीन नक्षत्रों के ही समय, सावन माह में अगर बारिश आती है, तो यह वर्ष अनाज के अधिकतम उत्पादन का वर्ष होता है।
महत्वपूर्ण बात यह है कि, पाराशर ऋषि ने खेत जोतने के लिए आदर्श हल कैसा होना चाहिये, इसका शास्त्र शुद्ध वर्णन किया है। ‘कृषि पाराशर’ इस ग्रंथ का दुसरा भाग ‘कृषि खंड’ है। इसके 34वें श्लोक में उन्होंने हल के आठ प्रमुख अंग बताये है।
ईषायुगहलस्थाणुर्नि यौलस्तस्य पाशिकः।
अड्डचल्लश्च शौलश्च पच्चनीच हलाष्टकम्।।
(कृषिखंडः / 34)
अर्थात,
- ईषा 2. युग 3. हलस्थाणू 4. निर्योल 5. पाशिकाये 6. अड्डचल 7. शौल और 8. पच्चनी
यह हल के आठ अंग है।
ग्रंथ के 35 से 42 श्लोकों में हल के प्रत्येक अंग का आवश्यक नाप और वर्णन दिया है। आदर्श हल के ‘इंजिनियरिंग डिटेल्स’ इसमें मिलते है।
‘सर्वोत्तम बीजों के संग्रहण’ को पाराशर ऋषि ने अधिक महत्त्व दिया है। इस ग्रंथ के 900 वर्षों के बाद, संत तुकाराम जी ने कहा है –
शुद्ध बीजापोटी। फळे रसाळ गोमटी।।
अर्थात, शुद्ध बीज बोने से रसदार फल मिलते हैं और उत्तम दर्जे का अनाज प्राप्त होता है।
पाराशर ऋषि ने बीजों से संबंधित अनेक सूचनायें तथा बहुत सी आवश्यक जानकारी भी दी है।
माघे व फाल्गुने मासि सर्वबीजानि संहरेत्।
शोषयेदातपे सम्यक् नैवाधो हो विनिधापयेत।।
(कृषिखंडः / 77)
अर्थात, माघ और फाल्गुन माह में, सभी बीजों का संग्रहण करना चाहिये। उन्हें धूप में व्यवस्थित सुखाना चाहिए। लेकिन उन्हें नीचे नहीं रखना चाहिए।
अगले अनेक श्लोकों में बीज संग्रहण और बीज वपन (अर्थात बीजों को बोना) की शास्त्र शुद्ध जानकारी दी है। अनाज तैयार होने के बाद, उसको निकालने की विधि भी विस्तार से दी है। पाराशर ऋषि लिखते है कि, ‘खेती-किसानी करने वाले व्यक्ति को खेती के साथ-साथ आसपास के प्रकृति के स्वभाव की भी पूरी जानकारी होना आवश्यक है।’
आज से 1200 वर्ष पूर्व, अत्यंत वैज्ञानिक पद्धति से होने वाली खेती के तंत्र का यह डॉक्युमेंटेशन है। विश्व में सबसे अच्छी खेती भारत कर रहा था और इसलिये समृद्ध था, संपन्न था।
ये हुआ केवल खेती के बारे में।।। लेकिन खेती से संबंधित वृक्ष, फलों के पेड़, आदि के बारे में भी हमारे पूर्वजों का वैज्ञानिक ज्ञान जबरदस्त था। वह उन्होंने लिखकर भी रखा है।
‘वृक्षायुर्वेद’ इस नाम से अलग अलग काल खंडों में ग्रंथ लिखे गये है। चाणक्य के कालखंड में तक्षशिला विश्वविद्यालय जब अपने पूर्ण वैभव पर था तब, अर्थात, आज से 2400 वर्ष पहले, ‘वृक्षायुर्वेद’ नाम का ग्रंथ, ‘शालीहोत्र’ ने लिखा था। शालीहोत्र मूलतः आद्य पशु चिकित्सकों मे से एक थे। उनका घोडों से संबंधित अध्ययन सबको आश्चर्यचकित करने वाला हैं। उनके ‘वृक्ष आयुर्वेद ग्रंथ’ में कुल 12 अध्याय है। भूमि निरुपणा, बीजोत्पविधी, पादप विविक्षा, रोपण विधान।।। आदि। इसमें उन्होंने जहां पेड़ लगाने है, उस जगह की, उस जमीन की परीक्षा, वहां के अंतर्गत जल स्त्रोतों की जानकारी, दो पेड़ों के बीच में कितना अंतर होना चाहिये, मृदा का, मिट्टी का वर्गीकरण और विश्लेषण, (परीक्षण और soil selection), नए वृक्षों के लिए जननतंत्र, बीजों पर प्रक्रिया (Seed Treatment), पेड़ों पर होने वाले रोग, आदि विषयों का विस्तार से वर्णन किया है।
आगे चल कर, पाचवीं शताब्दी में वराहमिहिर ने ‘बृहत्संहिता’ में ‘वृक्षायुर्वेद’ इसी नाम से एक अध्याय लिखा है। इस 55वें अध्याय में कुल 31 श्लोक है, जो वृक्ष लगाने और उद्यान के संबंधित विषय का विस्तार से विवेचन करते है।
बाद में ग्यारहवीं शताब्दी में सूरपाल ने ‘वृक्षायुर्वेद’ इसी नाम से ग्रंथ लिखा, जो प्रसिद्ध है। इसकी ताम्रपट पर लिखी हुई एक ही मूल प्रति उपलब्ध है, वह भी ब्रिटन के ऑक्सफर्ड युनिव्हर्सिटी के बोडेलियन ग्रंथालय में। इस ग्रंथ में सुरपाल ने औषधीय पौधों को शास्त्रीय पद्धति से कैसे लगाते है, उनके क्या गुणधर्म है, इसके बारे में विस्तार से लिखा है। इसमें उन्होंने तुलसी, नीम, पलाश, जामुन, आंवला आदि अनेक औषधीय वृक्षों की जानकारी दी है। कौन से वृक्ष घर के आसपास लगाना चाहिए और कौन से नहीं लगाना चाहिए, इसकी जानकारी दी है।
मजेदार बात यह है कि, सुरपाल ने बीज से वृक्ष बनने की प्रक्रिया कैसी होती हैं, इसका विस्तार से वर्णन किया है। यह आज से 900 वर्ष पहले का ग्रंथ है। इस ग्रंथ के बहुत बाद, पाश्चात्य जगत ने इस प्रक्रिया को ठीक से जाना। Carl Linnaeus जैसे वैज्ञानिकों ने ‘बीज से वृक्ष’ बनने की प्रक्रिया पर काम किया। किंतु हमारे यहाँ, ग्यारहवीं शताब्दी में, ॠषि सुरपाल ने यह पूरी प्रक्रिया विस्तार से समझायी हैं!
कुल मिलाकर, हजारों वर्षों से हमारे देश में अत्यंत वैज्ञानिक और शास्त्र शुद्ध पद्धति से खेती की जाती थी। खेती और बारिश का तालमेल उस जमाने में खोजा गया था। उसी के अनुसार खेती होती थी। इसीलिए विपुल मात्रा में अनाज निकलता था। आज के जैसे आधुनिक संसाधन ना होते हुए भी, हमारे पुरखों ने यह सब कैसे खोजा होगा, यह आज भी रहस्य है!
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