महात्मा बुद्ध का शिक्षा दर्शन

 – डॉ कुलदीप मेहंदीरत्ता

भारत देश में समय-समय पर संत, ऋषि-मुनि तथा अनेक महापुरुषों ने अवतार लिया है। प्राचीन काल से ही संसार ने भारत को विश्वगुरु अथवा जगद्गुरु के नाम से पहचाना तो इसका सबसे बड़ा कारण यहाँ जन्मे महापुरुष और उनकी आध्यात्मिक तथा ज्ञान साधना ही थी। महापुरुषों का तो जीवन ही अपने आप में स्वयमेव पूर्ण शिक्षा दर्शन होता है। भारत की पवित्र भूमि पर जन्मे और विश्व में प्रतिष्ठित हुए शांतिप्रिय बौद्ध पन्थ के प्रणेता भगवान बुद्ध का नाम अविस्मरणीय तथा प्रात:स्मरणीय है।

बुद्ध काल में शिक्षा केंद्रों का विकास विहारों और संघ में हुआ। यहाँ शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान प्राप्ति, सामाजिक और आध्यात्मिक विकास के साथ साथ विद्यार्थी का चरित्र निर्माण करना था। मुक्ति अथवा निर्वाण प्राप्त करना महात्मा बुद्ध के अनुसार जीवन का उच्चतम लक्ष्य था और जो बिना आध्यात्मिक उन्नति के प्राप्त होना सम्भव नहीं था। इसलिए महात्मा बुद्ध ने शिक्षा प्रणाली में नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों पर अत्यंत बल दिया। महात्मा बुद्ध हिन्दू धर्म में उपजी बुराइयों जैसे जाति प्रथा, कर्मकांड और बलि प्रथा के अत्यंत विरोधी थे और शिक्षा के माध्यम से इन कुरीतियों का अंत करना चाहते थे।

व्यक्ति के विकास की बजाय समाज की प्रगति और विकास पर उन्होंने अधिक बल दिया। समष्टि की चेतना में व्यष्टि का समावेश स्वयमेव सम्भव है और निर्वाण की प्राप्ति सभी का अधिकार और कर्त्तव्य है ऐसी दृष्टि से समाज हित को सर्वोपरि रखने की उनकी दृष्टि थी।

महात्मा बुद्ध ने मनुष्य को श्रेष्ठ जीवन के लिए अष्टांगिक मार्ग का ज्ञान दिया। वास्तव में इन्हें ही बुद्ध के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य माना जा सकता है। जो कि इस प्रकार है –

  1. सम्यक दृष्टि : (सम्यक शब्द का अर्थ है सही, उचित, उपयुक्त, शुद्ध आदि) सम्यक दृष्टि का अर्थ है कि हम जीवन के दुःख और सुख का सही अर्थ में अवलोकन करें। चार आर्य सत्यों को समझें। (आर्यसत्य चार हैं- (1) दुःख: संसार में दुःख है, (2) समुदय: दुःख के कारण हैं, (3) निरोध : दुःख के निवारण हैं, (4) मार्ग : निवारण के लिये अष्टांगिक मार्ग हैं।)
  2. सम्यक संकल्प : यदि दुःख से छुटकारा पाना हो तो दृढ़ संकल्प कर लें कि आर्य मार्ग पर चलना है।
  3. सम्यक वाक : यदि मनुष्य की वाणी में शुचिता और सत्यता नहीं है तो दुःख निर्मित होने में ज्यादा समय नहीं लगता।
  4. सम्यक कर्म : कर्म की शुद्धि आवश्यक है। आचरण की शुद्धि क्रोध, द्वेष और दुराचार आदि कुवृतियों का त्याग करने से सम्भव है।
  5. सम्यक आजीविका : किसी अन्यायपूर्ण उपाय के स्थान पर न्यायपूर्ण जीविकोपार्जन ही उचित और शुभ है।
  6. सम्यक प्रयास : जीवन में शुभ के लिए और स्वयं को सुधारने के लिए निरंतर प्रयास करते रहना चाहिए।
  7. सम्यक स्मृति : चित्त में एकाग्रता के भाव से मानसिक योग्यता/ क्षमता पाना।
  8. सम्यक समाधि : उपरोक्त सात मार्ग के अभ्यास से चित्त की एकाग्रता द्वारा निर्विकल्प प्रज्ञा की अनुभूति होती है। इसे निर्वाण अथवा मुक्ति के रूप में व्याख्यायित किया जा सकता है।


बौद्ध शिक्षा दर्शन में पाठ्यक्रम का स्वरूप
– चार आर्य सत्य, अष्टांगिक मार्ग के माध्यम से नैतिक जीवन, सम्यक संकल्प, सम्यक कर्म द्वारा सम्यक आजीविका प्राप्त करने की शिक्षा, भगवन बुद्ध तथा बौद्ध विद्वानों के ग्रंथों का ध्ययन सम्मिलित था। प्रारम्भिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में विभिन्न विद्याओं- शब्द विद्या (व्याकरण आदि), न्याय विद्या, शिल्प विद्या, चिकित्सा विद्या, हेतु विद्या (तर्कशास्त्र) तथा आध्यात्म विद्या (दर्शन) का अध्ययन-अध्यापन सम्मिलित था।  उच्च शिक्षा के पाठ्यक्रम में विद्यार्थियों को बौद्ध दर्शन, हिन्दू दर्शन, जैन दर्शन, अन्य धर्मशास्त्र, तत्वमीमांसा, तर्कशास्त्र, संस्कृत, पाली, खगोल विज्ञान, ज्योतिष, चिकित्सा, विधि, राजनीति, प्रशासन, तांत्रिक दर्शन आदि का अध्ययन करवाया जाता था।

बौद्ध शिक्षा दर्शन में शिक्षक-आचार्य की संकल्पना – विश्व की प्रत्येक जीवन पद्धति में गुरु अथवा शिक्षक को अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थान दिया है इसी प्रकार बौद्ध शिक्षा दर्शन में भी शिक्षक की महती भूमिका है। आचार्य का दायित्व था कि विशेषकर जीवन के आध्यात्मिक पक्ष से जुड़े विषयों जैसे सम्यक संकल्प, सम्यक कर्म, सम्यक वाणी, सम्यक प्रयास, सम्यक स्मृति से समयक समाधि तक की विद्यार्थी की ज्ञान यात्रा का मार्गदर्शन करना। आचार्य से कनिष्ठ उपाध्याय नामक दायित्व था जो किसी एक विषय का विशेषज्ञ होता था और आजीविका का शिक्षण भी प्रदान करता था। छोटे-छोटे समूहों में बैठकर विद्यार्थी सूत्रों को कंठस्थ कर, स्मरण कर, चर्चा आदि के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करते थे। एक बार संघ में प्रवेश के बाद उसकी देखभाल का दायित्व आचार्य का उत्तरदायित्व था।

बौद्ध शिक्षा दर्शन में विद्यार्थी की संकल्पना – बौद्ध शिक्षा दर्शन में प्रवज्या नमक संस्कार के अंतर्गत विद्यार्थी को आठ वर्ष की आयु में बौद्ध संघ में प्रवेश करना पड़ता था। सर मुण्डाने, गेरुआ वस्त्र धारण करने के बाद भिक्षु से प्रवेश का आग्रह करना पड़ता था। उपयुक्त पात्र को प्रवेश के पश्चात् कड़े नियमों का पालन करना होता था। बीस वर्ष की आयु तक शिक्षा ग्रहण करने के पश्चात सभी संन्यासियों के सामने विद्यार्थी की परीक्षा ली जाती थी। इस परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर विद्यार्थी को संघ का सदस्य माना जाता था और आगे की शिक्षा के लिए पात्र समझा जाता था।

इस प्रकार महात्मा बुद्ध तथा परवर्ती दर्शन में शिक्षा विद्यार्थी के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के विकास पर केन्द्रित थी। नैतिक-अध्यात्मिक अर्जन पर बल, कड़ा अनुशासन, आजीविका कमाने के लिए हस्त-कौशल की शिक्षा, शारीरिक दंड का अभाव, तर्क-आधारित शिक्षा आदि ये सभी तत्त्व हैं जिन्हें आधुनिक शिक्षा शास्त्री एक आदर्श शिक्षा प्रणाली में आवश्यक समझते हैं। बौद्ध कालीन शिक्षा का महत्व तथा प्रभाव इस बात से समझा जा सकता है कि यातायात के संसाधनों के अभाव में संसार के कोने-कोने से विद्यार्थी यहाँ शिक्षा ग्रहण करने आये।

उत्तर वैदिक युग के बाद भारतीय शिक्षा के विकास क्रम में महात्मा बुद्ध, उनकी शिक्षाओं, उनके अनुयायियों तथा उनके भक्त शासकों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। वास्तव में यह भारत का वही समय था जब शिक्षा व्यवस्था को बड़े पैमाने पर संस्थागत स्वरूप प्रदान किया गया था। यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि बौद्ध युग के आगमन के साथ नालंदा, तक्षशिला, विक्रमशिला, बल्लभी, ओदंतपुरी, नादिया, अमरावती, नागहल्ला और सारनाथ जैसे शिक्षा के महान अंतरराष्ट्रीय केंद्र प्रमुखता में थे। चीन, नेपाल, तिब्बत, मंगोलिया आदि स्थानों से विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करने यहाँ आते थे। वास्तव में भारत को विश्वगुरु कहलाने में इन शिक्षा केन्द्रों को अप्रतिम योगदान है।

(लेखक चौधरी बंसीलाल विश्वविद्यालय, भिवानी (हरियाणा) में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष है।)

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