– रवि कुमार
कोरोना महामारी से फैले संकट से देश व विश्व उभरने का प्रयास सतत कर रहा है। एक वर्ष से अधिक हो गया है इस महामारी को। प्रतिदिन नए आंकड़े देखने व सुनने को मिलते है। सोशल मीडिया पर नित नया ज्ञान बांटा जा रहा है। इस महामारी से लड़ने के लिए विभिन्न डॉक्टरों की अलग अलग प्रकार के सुझाव व परामर्श की वीडियो भी व्हाट्सएप्प ग्रुपों में घूम रही है। अपनी इम्युनिटी को बूस्ट कैसे किया जाए इसके बारे में भी अनेक प्रकार की बातें आ रही है। जब से यह महामारी पनपी है तब से जनजीवन से जुड़ी दो विषयों की चर्चा सर्वत्र हुई है। वो दो विषय है – स्वास्थ्य और अर्थ। दोनों जीवन के महत्वपूर्ण तत्व है। इस लेख में हम इन दोनों तत्वों के बारे में विस्तृत विचार करेंगे।
जीवन स्वस्थ रहा तो सब कुछ अच्छा रहता है। स्वास्थ्य का सम्बन्ध शारीरिक व मानसिक दोनों से ही है। स्वास्थ्य के लिए श्रीमद भगवत गीता में लिखा है – “युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नाव बोधस्य योगो भवति दु:ख”।। आहार-विहार सब ठीक रहा तो स्वास्थ्य अच्छा ही रहेगा। केवल शारीरिक स्वास्थ्य ही नहीं, मानसिक स्वास्थ्य भी ठीक रहेगा। आहार विहार के कुछ नियम है, उन्हें पालन करना आवश्यक है।
आहार अर्थात जो हम ग्रहण करते है। शरीर पांच तत्वों से मिलकर बना है। ये पांच तत्व है – भूमि, जल, वायु, अग्नि और आकाश। जल व वायु के अलावा जो हम ठोस रूप में ग्रहण करते है वह भूमि तत्व है। शेष दोनों तत्व सूर्य के प्रकाश व वायुमंडल से हमें प्राप्त होता है। शरीर में जल तत्व ठीक रहे इसके लिए शुद्ध जल ग्रहण करना और पर्याप्त मात्रा (दिन में 5-6 लिटर) में ग्रहण करना आवश्यक है। सामान्यतः दिनभर में मनुष्य 2-3 लिटर ही ग्रहण करता है और सर्दी में तो वह भी कम हो जाता है। वायु पर्याप्त मात्रा में फेफड़ों में जाए और शुद्ध वायु ग्रहण करे इसके लिए प्रयास करना। आजकल घरों व कार्य स्थलों की बनावट एवं मनुष्य की जीवन शैली ऐसी हो गई है कि वह शुद्ध वायु के संपर्क में ही कम रहता है।
आहार में तीसरा महत्वपूर्ण तत्व है भोजन। मनुष्य ने अपनी रसोई को आधुनिकता के नाम पर बदल दिया है और इसका प्रभाव सीधे उसके स्वास्थ्य पर पड़ा है। स्थान स्थान पर चिकित्सकों की संख्या बढ़ रही है और साथ ही रोगियों की संख्या व बिमारियों की संख्या में भी बढ़ोत्तरी हो रही है। उसका बड़ा कारण है मनुष्य की रसोई पारम्परिक से आधुनिक होना। वस्तुकला नयी हो सकती है लेकिन नियम व पथ्य पुराने ही रहेंगे। आज मनुष्य विरुद्ध आहार लेता है, बेमौसमी वस्तुएं ग्रहण करता है और बेसमय खाता है और इसका प्रभाव धीरे धीरे स्वास्थ्य पर पड़ता रहता है। पुरानी कहावत है – प्रातः का भोजन राजा की तरह, दोपहर का भोजन सामान्य नागरिक की तरह और रात्रि का भोजन भिखारी की तरह करना चाहिए। इसका सम्बन्ध मात्रा और पाचन शक्ति से जुड़ी जठर अग्नि से है। जो खाया उसके पाचन के लिए लिए जठर अग्नि का प्रज्ज्वलित होना आवश्यक है। प्रातः जठर अग्नि सर्वाधिक सक्रीय रहती है और रात्रि में सबसे कम सक्रिय। आजकल मनुष्य ने उल्टा क्रम बनाया है। प्रातः सबसे कम खाता है और रात्रि में सबसे अधिक। भोजन में सभी पोषक तत्व मिले इसका ध्यान रखना आवश्यक है। आयुर्वेद के अनुसार वात-पित्त-कफ का बढ़ना या घटना ही सभी रोगों का कारण है। पांच तत्वों के शरीर में संतुलन बिगड़ने से ही वात-पित्त-कफ बिगड़ता है। अतः आहार ठीक रहे इसके लिए अपनी रसोई को पारम्परिक रसोई बनाने की आवश्यकता है।
अग्नि और आकाश तत्व के लिए सूर्य का प्रकाश पर्याप्त मिलता रहे और प्राकृतिक वायुमंडल के निकट रहे, इसका ध्यान रखे।
विहार का सम्बन्ध हमारी दिनचर्या से है। हमारी दिनचर्या में नींद, विश्राम, खेल, व्यायाम आदि को स्थान मिला है या नहीं? यह सब नियत व ठीक समय पर हो रहे है या नहीं? दिनभर में हमारे कार्य का स्वरुप कैसा है इस पर भी बहुत सी बातें निर्भर करती है। आजकल लोग देरी से सोते है और देरी से जगते है। अच्छी नींद के लिए केवल 6-8 घंटे सोना ही पर्याप्त नहीं है, सही समय पर सोना एवं जगना भी आवश्यक है। दिनभर के कार्य की प्रकृति के अनुसार विश्राम भी जरुरी है। एक अनुभवी व्यक्ति के अनुसार जितना समय दिनभर में खाने में लगाते है, उतना न्यूनतम समय व्यायाम में अवश्य लगाना चाहिए। अनौपचारिक वार्तालाप, परिवार में संवाद आदि मानसिक स्वास्थ्य को पुष्ट करने के लिए आवश्यक है।
अंग्रेजी में कहावत है- ‘Health is Wealth’ अर्थात् स्वास्थ्य ही धन है। तुलसीदास जी ने इसे और सरल शब्दों में व्यक्त किया है – “बड़ भाग मानुष तन पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा।“ अर्थात् अर्थात् बड़े भाग से मनुष्य जीवन मिलता है, सभी ग्रंथ कहते हैं कि यह देवताओं को भी दुर्लभ है।
अर्थ अर्थात धन आजकल स्वास्थ्य से भी महत्वपूर्ण हो गया है। नई पीढ़ी अर्थ कमाने के चक्कर में स्वास्थ्य को एक किनारे रख रही है। भारतीय परम्परा में स्वास्थ्य का स्थान अर्थ से ऊपर है। मनुष्य के अस्तित्व के लिए अर्थ का होना आवश्यक है ऐसा मानना गलत नहीं है। परन्तु अर्थ किस लिए कमाया जाए और किस रूप में व किस भाव से खर्च किया जाए इसका विचार करना आवश्यक है। चार बातें ऐसी है जिसके आधार पर अर्थ प्रबंधन आवश्यक है। ये चार बातें है – मितव्ययता, बचत, अपरिग्रह और स्वदेशी।
कम से कम खर्च करके अच्छा करना मितव्ययता है। अपने अर्जित धन में से कुछ न कुछ बचाना बचत है और बचत इसलिए नहीं करना कि उसे अगले वर्ष खर्च करना है। बल्कि अपनी कमाई का 25% बचत करना ताकि अगली पीढ़ी के काम आ सके और यदि जीवन के अस्तित्व पर संकट आए तो जीवन चल सके। आजकल क्रेडिट कार्ड का जमाना है, पहले खर्च करो बाद में भुगतान करते रहो, यह बचत के एकदम विपरीत है। आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह न करना अपरिग्रह है। आजकल मनुष्य कपड़ों व जूतों पर सर्वाधिक खर्च करता है। नया कपड़ा लाए तो अलमारी में रखने के लिए जगह नहीं और अलमारी में देखों तो पहनने के लिए कपड़ा नहीं क्योंकि जो रखा है वह पहले पहन चुके है! अपरिग्रह भोजन की थाली से प्रारंभ होता है – ‘इतना ही लेना थाली में, फेंकना न पड़े नाली में।’ झूठन से जो अन्न खराब होता है उसे उत्पन्न करने में किसान को छह महीने लग जाते है। इससे आपका अन्न नहीं देश का अन्न ख़राब हो रहा है।
स्वदेशी से आत्मनिर्भरता का सम्बन्ध है। जो वस्तु घर में बन सकती है उसके लिए बाजार नहीं जाएँगे और जो वस्तु देश में बन सकती है उसे विदेश से नहीं लायेंगे। यह भाव एक परिवार से लेकर देश को आत्मनिर्भर बनाने के महत्वपूर्ण है और आज की आवश्यकता है।
उपरोक्त वर्णित छह बातें आहार, विहार, मितव्ययता, बचत, अपरिग्रह और स्वदेशी यह भारतीय जीवन दृष्टि के आधार पर भारतीय जीवन शैली में वर्षानुवर्ष से है। मनुष्य ने आधुनिकता के नाम पर इन्हें बदला है तो उसके जीवन का अस्तित्व संकट में आ गया है। आज आवश्यकता है इन्हें पुनः आत्मसात करने की, भारतीय जीवन शैली को अपनाने की और भारतीय परम्परा को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने की।
(लेखक विद्या भारती हरियाणा प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)
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