21वीं शताब्दी में मन की शिक्षा

– डॉ. किशनवीर सिंह शाक्य

पूर्व आचार्य, विद्या भारती

मन की शिक्षा का सामान्य अर्थ है कि शिक्षा में वे सभी आयाम हों जिससे विद्यार्थियों का मन ठीक हो, प्रसन्न हो। यह भाव जितना सरल है उतना ही कठिन है इन आयामों को समझना तथा शिक्षण में जोड़ना इस महत्वपूर्ण विषय पर विचारों का संकलन और संपादन करने से पूर्व शिक्षा की कुछ परिभाषाओं एवं मान्यताओं पर विचार करना श्रेयकर रहेगा –

  1. “Education is the most powerful weapon which you can use it to change the world.”
  2. “Education breeds confidence, confidence breeds hope, hope breeds peace and peace is education.” – Nelson Mendola
  3. “Some of the brightest mind in the country can be found on the last benches of the class.” – APJ Abdul Kalam
  4. “Live as if you were it die tomorrow, learn as if you were to live forever.” – MK Gandhi
  5. “What you think you become, what you feel you reflect. What you imagine you learn” -Lord Buddha

उक्त कतिपय शिक्षायें-परिभाषाएं हमें यह स्पष्ट संकेत देती हैं कि शिक्षा हमारे मन को स्वस्थ करती है जिसके कारण हम यह समझ पाते है कि सुख और दुःख हमारे मन की अवस्थायें हैं। हम जो सोचते हैं वैसा ही बनते हैं। बनने की समस्या नहीं है समस्या बड़ा सोचने की है। वर्तमान समय के विद्यार्थी अच्छा सोच नहीं पाते हैं, और अच्छे बनने से वंचित रह जाते हैं। विद्यार्थियों में तनाव है, संवेदना का अभाव है, सोशल मीडिया का प्रतिकूल प्रभाव है और वे अनेक व्यसनों के शिकार है। इन सभी विकृतियों के लिए उनका मन ही उत्तरदायी है। उनको यह समझना आवश्यक है, मन श्रेष्ठ है और यदि अश्रेष्ठ है तो उसे श्रेष्ठ किया जा सकता है। हमारी इन्द्रियां हमारे मन को अपने-अपने स्वभाव के अनुसार भटकाती रहती है और मन अश्रेष्ठ हो जाता है। हमारा मन हमारी इन्द्रियों का नियामक है किन्तु यदा कदा सहयोगी भी मिलकर अपने नियन्त्रक को नियन्त्रित कर लेते है। मन को अपनी बुद्धि से ठीक किया जा सकता है। अतः विवेकपूवर्ण जागरूकता से ही मन ठीक किया जा सकता है। भगवान बुद्ध ने धम्मपद में कहा है –

मनोपुब्बग्मा डग्.मा धम्मा, मनो सेट्ठा मनोमय

मनसा चे पसन्नेन भासति वा करोति वा

ततो नं सुखमन्वेति छायाव अनपायिनी।

Mind precedes all mental states, mind is their chief, they are all mind-wrought; if with a pure mind a person speaks or acts, happiness follows him like never departing shadow.

हमारा मन सभी कार्यों का अग्रगामी है, हमारा मन श्रेष्ठ है। जो भी व्यक्ति पवित्र मन से बोलता है ओर कार्य करता है तो सुख उसके साथ वैसे ही हो लेता है। जैसे उसकी छाया उसके पीछे-पीछे चलती है।

शिक्षा इस मन को सदैव श्रेष्ठ बनाने का कार्य करती है। शिक्षा हमारे मन को ‘असतो मा सद्गमय’ के मार्ग पर ले जाती है। अज्ञान से ज्ञान की ओर ले जाने का कार्य शिक्षा करती है। ज्ञान का मार्ग ही मन को ठीक करने का मार्ग हैं मन को प्रसन्न और श्रेष्ठ करने के लिए शिक्षण में इस प्रकार की गतिविधियों का नियोजन करना जिससे विद्यार्थी प्रेय मार्ग के स्थान पर श्रेय मार्ग का चयन करें।

न तं माता पिता कयिरा अञ्ञे वापि च ञातका।

सम्मापणिहितं चित्तं संय्यसो न ततो करे।।

Neither Mother, Father nor any other relation.

Can do one greater good than one’s own well directed mind.

भगवान ने हमें ब्रेन दिया है जिसे हम शिक्षा के माध्यम से माइंड में बदलते हैं। हमारा प्रशिक्षित मन सर्वोत्तम कार्य कर सकता है। मन से अच्छा कार्य हमारे माता-पिता और संबंधी भी नहीं कर सकते। भगवान बुद्ध के ये विचार भगवान कृष्ण की गीता से भी मेल खाते हैं। मन चंचल है किन्तु इसको अभ्यास और वैराग्य से ठीक किया जा सकता है।

“चंचलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलबद् दृढम्।

तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्।।”

यह मन बहुत चंचल है, प्रमादी है जिसको श्रेष्ठ बनाये रखना उतना ही कठिन है, जितना वायु को वश में करना है। भगवान बुद्ध और भगवान कृष्ण ने इस चित्त को श्रेष्ठ बनाने के लिए अभ्यास और ध्यान का मार्ग बताया है। अतः विद्यालयी शिक्षा में योग तथा ध्यान की शिक्षा को अनिवार्य बनाना चाहिए। इस ध्यान का मार्ग ही सरल है, जिसमें हमें अपने ही गुण-दोष देखने चाहिए, दूसरों के नहीं। हमारी अधिकांश समस्याएं ‘पर’ पर आधारित है इसलिए भगवान बुद्ध ने कहा है –

न परेसं विलोमानि, न परेसं कताकतं।

अत्तनो न अवेरव्यो कतानि अकतानि च।।

हमें दूसरों के गुण दोष नहीं देखने चाहिए अपितु अपने ही गुण-दोषों को देखना चाहिए। जब हम सतत अपनी समीक्षा करते हैं तो सदैव प्रगतिशील रहते हैं। सांसारिक जीवन में अधिकांश गतिविधियों दूसरों के जैसा बनने के लिए की जाती है जो कि अन्ततोगत्वा पूर्ण नहीं होती और हमें दुःख देकर चली जाती है। मन को ठीक रखने के लिए स्वयं में स्थित रहना चाहिए। यही है असली स्वास्थ्य की परिभाषा।

मन की शिक्षा का पाठ्यक्रम

मन की शिक्षा का पाठ्यक्रम पृथक बनाने की या देखने की आवश्यकता नहीं है। सभी विषयों के विदित पाठ्यक्रम में ही मन की शिक्षा का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में पंचकोशात्मक विकास की परिकल्पना की गयी है जिसमें मनोमयकोश तीसरे स्थान है अर्थात् सात्विक भोजन से अन्नमय कोश, सात्विक भोजन व सात्विक विचार से प्राणमय कोश का विकास करता है और दोनों कोशों के विकास के बाद मनोमय कोश का विकास होता है। सरल भाषा में कहा जाए तो सूचना शारीरिक तथा इन्द्रिय ज्ञान के कारण मन का विकास संभव है। अतः जब ज्ञानेन्द्रियां, कर्मेन्द्रियां हमें श्रेष्ठ मार्ग पर जाने से रोकती है तब सात्विक मन ही हमें सन्मार्ग पर ले जाता है। अर्थात् प्रत्येक विषय के प्रत्येक पाठ में विवेकपूर्ण मन की उपस्थिति और कृति ही मन की शिक्षा का पाठ्यक्रम होना चाहिए। इस पाठ्यक्रम के कुछ बिन्दु निम्नवत हो सकते हैं –

  • औपनिवेशिक मन:स्थिति से मुक्ति
  • श्रुत ज्ञान को अनुभवजन्य ज्ञान में बदलना
  • बुद्धि से प्रज्ञा तक जाने का मार्ग
  • इन्द्रिय निग्रह और आत्म नियन्त्रण
  • जीव भोगी के स्थान पर कर्मयोगी बने
  • प्रमाद को अप्रमाद से जीतने की कला
  • स्वस्थ – स्वस्थ का आनन्द
  • स्व-अध्ययन – स्वाध्याय का व्यवहार
  • सूचनात्मक ज्ञान में अपने मन के भाव

कबीर दास जी कहते हैं कि जो व्यक्ति इस चंचल मन पर सवार होकर उसे सम्यक दिशा में ले जाते है वहीं साधु है वहीं ज्ञानवान हैं।

मन के मते न चलिए, मन के मते अनेक।

जो मन पर असवार है, सो साधु कोई एक।।

अर्थात् मन का सही पाठ्यक्रम मन पर सवार होकर ही बनाया जा सकता और चलाया जा सकता है।

मन की शिक्षा

विद्यार्थियों के मन श्रेष्ठ रखने के प्रयोग

  1. सुनना, पांच सैकिण्ड समझना तब उत्तर देना – जब हम प्रश्न को समाप्त होने से पहले अथवा प्रश्न समाप्त होते ही उत्तर देते हैं तो मन खराब होता है, तुरन्त बोलना प्रतिक्रिया है, समझकर बोलना प्रक्रिया है, इस प्रक्रिया में बैर नहीं, प्रेम से बैर समाप्त होता है।
  2. Sense of achievement – Sense of Contentment
  3. Sense of detachment – सामान्य उपलब्धि से सामान्य सुख मिलता है।
  4. Our Role Model, Modals our role – जिन विद्यार्थियों का कोई आदर्श होता है तो वे अपने आदर्श के गुणों को स्वयं में लाते हैं। ऐसा करने से उनका मन श्रेष्ठ हो जाता है।
  5. The purpose of life is life of purpose – जो विद्यार्थी अपने जीवन का उद्देश्य स्पष्ट जानते हैं और उसी के अनुसार ही अपना व्यवहार करते हैं। उन विद्यार्थियों का मन ठीक रहता है। अर्थात् समुचित मार्गदर्शन करना।
  6. Jack of all master of one – सभी विद्यार्थियों को अपने पारिवारिक, सामाजिक दायित्वों से संबंधित सभी सामान्य गतिविधियों का ज्ञान होना चाहिए। उन्हें अपनी प्रतिभा के अनुसार किसी एक कौशल का तज्ञ होना चाहिए। 21वीं शाताब्दी के सभी कौशल विद्यार्थियों में आने से उनका मन प्रसन्न रहेगा।
  7. Healthy Food for Wealthy Mood – हमारे समाज में प्राचीन काल से ही एक कहावत है कि ‘जैसा खाओगे अन्न वैसा होगा मन’ अर्थात् बच्चों को जो भी खाद्यान्न प्रीतिकर लगते हैं वे अधिकांश अहितकर है। किशोरों को फास्ट फूड आकर्षित करता है। नमकीन अच्छा लगता है ये सभी मन को और तन को खराब करते हैं। विद्यार्थियों को देश और समयानुकूल भोजन करना चाहिए। क्या खायें, कितना खायें कैसे खायें, कब खायें आदि सभी बातों का ध्यान रखना चाहिए।
  8. व्यायाम और योग, दोनों का संयोग – प्रतिदिन कम से कम तीस मिनट का व्यायाम और तीस मिनट का योग सही प्रक्रिया से करना चाहिये। ऐसा करने से योग सही प्रक्रिया से करना चाहिए। ऐसा करने से तन और मन दोनों स्वस्थ रहेंगे। स्वस्थ मन से ही प्रभावी अध्ययन किया जा सकता है।
  9. भोजन और भजन – भोजन से पूर्व भजन की भारत में पुरानी परम्परा है सभी विद्यार्थियों के अच्छे भाव वाले गीतों का गायन अवश्य करना चाहिए। अच्छे वातावरण में अच्छे गीत गाने पर हमारे शरीर में उपयोगी रक्त कणिकाओं का निर्माण होता हैं और हम स्वस्थ रहते हैं।
  10. Service to man is service to God – मानव का प्रमुख धर्म किसी और की मन व कर्म से सेवा करना है। जब हम दूसरों के कष्टों को दूर करते हैं तो उनके आनन्द से ही हमारा मन प्रसन्न होता है। भारत में सेवा को ही धर्म माना है। सेवा भावी का कल्याण अवश्यंभावी है।
  11. Self-motivation & self-Appreciation – वर्तमान समय में माता-पिता, मित्र तथा अध्यापक छात्रों के उत्साहवर्धन के लिए उनकी प्रशंसा तथा प्रेरणा देने का कार्य प्रायः नहीं करते हैं। इस परिस्थिति में विद्यार्थी अपने अच्छे कार्यों के लिए स्वयं की प्रशंसा करें तथा आगामी अच्छे कार्य करने की योजना बनायें ऐसा करने से वे प्रसन्न मन से अनेक अच्छे कार्य करने में समर्थ होंगे।
  12. Intellectuality without spirituality is useless – भगवान कृष्ण ने कहा है कि बुद्धिमान लोग अपने सुकृत और दृष्कृत दोनों ईश्वर पर छोड़ते है। वे जानते हैं कि चेतना और शरीर दोनों ही ईश्वर के बताये हुए है अतः जो कुछ मैं करता हूँ वह प्रभु की कृपा है। ऐसा मानने वाला अपने जीवन में सदैव प्रसन्न रहता है।
  13. Change your nature in the lab of nature – विद्यार्थियों को मन और विचारों के परिमार्जन के लिए प्रकृति की गोद में जाना चाहिए। हमारा शरीर पांच तत्वों से बना है जो पांचों प्रकृति से लिये गये है। अतः वे प्रकृति को प्रेम करते हैं जिससे हमारा तन और मन प्रसन्न रहता हैं।
  14. Be yourself for yourself – विद्यार्थियों को सदैव अपनी प्रतिभा के अनुसार कार्य चुनना चाहिए। दूसरों की नकल नहीं। भगवान ने प्रत्येक व्यक्ति को विशेष प्रतिभा से युक्त बनाया है हमें उसी में आनन्द मिलेगा ऐसा मानकर सदैव कार्यरत रहने से मन प्रसन्न रहता है।

संक्षेप में कहा जाए तो मन को प्रसन्न रखने के लिए सायास और प्रयासपूर्वक अच्छे कार्य ही करने चाहिए। अच्छे कार्य करने से ही मन प्रसन्न रहता है और मन को सतत पवित्र रखना चाहिए। भगवान बुद्ध ने कहा है –

सब्ब पापस्स अकरणम्

कुशलस्स उपसम्पदा।

सचित्त परियोदपन्न

ऐतन् बुद्धान सासनम्।

सभी पाप कर्मों को नहीं करना चाहिए। कुशल कर्मों का संचय करना चाहिए। चित्त को सदैव पवित्र रखना चाहिए। यही है बुद्ध की शिक्षाएं। सदैव विवेकपूर्वक कार्य करने से मन प्रसन्न रहता है और मन के प्रसन्न रहने में ही सभी सफलताएं समाहित है। समय मिलने पर यह गीत भी गा सकते हैं-

मोरा मन दर्पण कहलाये……..

भले बुरे सारे कर्मों को देखे और दिखाये। मोरा मन………..

सुख की कलियां, दुख के कांटे मन सबका आधार।

मन से कोई बात छिपे ना, मन के नयन हजार।

जग से चाहे भाग ले प्राणी, मन से भाग न पाये। मोरा मन…………

और पढ़े : 21वीं शताब्दी के शिक्षक

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *