– नम्रता दत्त
नवजात शिशु बोल नहीं सकता। लेकिन किसी भी प्रकार का कष्ट अनुभव करने पर वह रोता है। जन्म के समय जब उसकी नाभि नाल को काटा जाता है तो वह कष्ट होने पर रोता है। उसका यह रोना ही डॉक्टर एवं परिवार को आश्वस्त करता है कि उसमें प्राण का संचार हो रहा है अर्थात् वह जीवित है। यदि जन्म के पश्चात वह रोता नहीं तो उसे कष्ट देकर रुलाने का प्रयास किया जाता है। रोने की यह आवाज ही उसके वाणी तंत्र एवं श्वास के संचालन को बताती है। जन्म के समय शिशु का रोना उसके स्वस्थ होने का संकेत माना जाता है।
जन्म से एक वर्ष के समय में शिशु को अपने को इस बाह्य वातावरण के अनुकूल बनाने में कई प्रकार के कष्टों को सहन करना पङता है। इन कष्टों से परेशान होने के कारण वह अपनी बात को रोकर बताने का प्रयास करता है। ऐसी स्थिति में शिशु जब रोता है तो कई बार माता-पिता/परिवार उसके रोने के कारण को समझ ही नहीं पाते और अपनी समझ से उपाय करते रहते हैं। वातावरण की अनुकूलता बनाने में शिशु के रोने के कुछ मुख्य कारण एवं उपायों की चर्चा यहां की जा रही है।
शिशु के रोने के कारण एवं उपाय
- भूख/प्यास लगने पर रोना
प्रारम्भ में शिशु दो-दो घंटे में दूध पीता है। भूख लगने के कारण वह अपने निश्चित समय पर रोता है। यह अनुभव माता कर लेती है। दूध/पानी मिलने पर वह रोना बन्द कर देता है।
- भय के कारण रोना
अकस्मात् होने वाली किसी तेज ध्वनि के कारण शिशु डर जाता है और रोने लगता है। जैसे- कुकर की सीटी, हवाई जहाज की आवाज, पटाखे की आवाज। अनजान व्यक्ति, भयानक चित्र एवं दृश्य को देखकर भी शिशु भयभीत हो जाता है। गहरे अंधेरे में भी वह स्वयं को असुरक्षित महसूस करता है और रोने लगता है। ऐसी स्थिति में माता अथवा परिवार के सदस्यों की गोद में वह सुरक्षित महसूस करता है और चुप हो जाता है।
- पेट में कीङे होने के कारण पेट दर्द होने पर रोना
छोटे शिशुओं के पेट में सामान्यतः छोटे छोटे कीङे (worm) हो जाते हैं। ये कीङे जब गुदा (anal) में काटते हैं तो शिशु को कष्ट होता है। कभी कभी इनके कारण उसके पेट में दर्द भी होता है। इसके कारण वह रोता है। ऐसे में पेट के कीङों का घरेलू उपचार करना चाहिए। गुदा की जांच करनी चाहिए। यदि वह स्थान लाल हो रहा है तो रूई में सरसों का तेल लगाकर उस स्थान पर लगाना चाहिए।
- कोई कीङा, खटमल या मच्छर आदि काटने पर रोना
सोता हुआ शिशु अचानक चिल्ला कर रोने लगता है क्योंकि बिस्तर में किसी कीङे, खटमल या मच्छर आदि ने उसे काटा है। ऐसे में साफ-सुथरे बिस्तर में मच्छरदानी लगाकर ही शिशु को सुलाएं। रोने पर बिस्तर की जांच तुरन्त करें।
- घर से बाहर जाने के लिए रोना
बार-बार बाहर ले जाने से शिशु की आदत खराब हो सकती है। अतः जब उसको खुली और ताजी हवा में ले जाना सम्भव हो, तब ही उसे ले जाना चाहिए। उसका ध्यान किसी अन्य बात अथवा खिलौने आदि में लगाकर बांटा जा सकता है।
- नींद आने पर अनुकूल वातावरण न मिलने पर रोना
जैसे शिशु का दूध पीने का समय निश्चित होता है ऐसे ही प्राय सोने का समय भी निश्चित होता है। अतः निश्चित समय पर सोने का अनुकूल वातावरण न मिलने पर वह रोता है। जैसे- माता की गोद, एकांत वातावरण, ऋतु अनुकूल वातावरण, आरामदायक बिस्तर/वस्त्र आदि। उसके सोने का समय नहीं है, परन्तु जबरदस्ती सुलाने का प्रयास करने पर भी वह रोता है।
- सायंकाल में अकारण रोना
यह प्राकृतिक प्रक्रिया है जो सामान्यतः सभी शिशुओं पर लागू होती है। अतः उसे प्रकृति के सान्निध्य में ले जाना चाहिए। पेङ-पौधे, पक्षी-जानवर आदि देखकर खुली हवा में वह प्रसन्नता का अनुभव करता है।
शिशु को भगवान स्वरूप माना जाता है और भगवान का चित्र सदैव प्रसन्न मुद्रा में दिखाई देता है। तब ही तो शिशु के आने पर परिवार में प्रसन्नता आ जाती है। सब प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। शिशु हंसता हुआ ही अच्छा लगता है। उसके रोने पर परिवार के सदस्य परेशान हो जाते हैं। यदि उसके रोने के कारण का निवारण न किया जाए तो बार बार रोने से वह चिढचिढा एवं अस्वस्थ हो सकता है। उसके वृद्धि एवं विकास के लिए उसका स्वस्थ रहना आवश्यक है। माता-पिता को उपरोक्त कारणों को ध्यान में रखते हुए उचित उपाय भी करने चाहिए। शिशु प्रसन्न तो परिवार भी प्रसन्न रहेगा।
(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती उत्तर क्षेत्र शिशुवाटिका विभाग की संयोजिका है।)
Explained in a detailed way. Thank you very much.