– नम्रता दत्त
शिशु का आहार एवं विहार
विद्यालय में बच्चों की शारीरिक जांच कराई गई। डॉक्टर्स कक्षाशः अपनी रिपोर्ट देकर चले गए। बच्चों की शारीरिक स्थिति को देखते हुए अभिभावकों से बात करने की योजना बनाई गई और एक सर्वेक्षण पत्र के माध्यम से बच्चों में भोजन के प्रति रूचि एवं अरूचि के विषय में जानकारी इकट्ठी की गई। अधिकांशतः बच्चों को सब्जी और रोटी के प्रति अरूचि थी। अभिभावकों से बातचीत करने पर ध्यान आया कि इसका कारण आहार-विहार के प्रति माता-पिता की अज्ञानता ही है। आहार-विहार का क्या महत्व है और इसका ध्यान कब, कहां से और कैसे रखना है तथा इसका ध्यान न रखने के क्या दुष्प्रभाव हो सकते हैं यह बात वह जानते ही नहीं।
माता-पिता को यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि बच्चे की आयु जितनी छोटी होगी अच्छे संस्कार उतनी ही आसानी से हो जाएंगे क्योंकि छोटी आयु में चित्त सक्रिय होता है और संस्कार चित्त पर ही होते हैं और यह आजीवन साथ रहते हैं। आयु के बढ़ने के साथ साथ बुद्धि की सक्रियता बढ़ने लगती है और बच्चा क्या, क्यों, कैसे के प्रश्न करने लगता है।
आहार
आहार की दृष्टि से जन्म से एक वर्ष की अवस्था में शिशु सामान्यतः दो अवस्थाओं से गुजरता है – 1. क्षीरादावस्था – अर्थात् दूध पीने की अवस्था (जन्म से छः महीने) 2. क्षीरान्नादावस्था – अर्थात् दूध और अन्न ग्रहण करने की अवस्था (छः महीने के पश्चात्) ।
जन्म के पश्चात् शिशु माता का दूध ही पीता है। माता के दूध में सभी पोषक तत्व होते हैं जो उसकी वृद्धि एवं विकास के लिए पर्याप्त होते हैं। इस बात की पुष्टि इस बात से की जा सकती है कि जब कोई किसी को चुनौती देकर ललकारता है तो कहता है कि – मां का दूध पिया है तो सामने आ।
बच्चे को दूध पिलाने के लिए माता को बहुत नियम, संयम एवं परहेज से रहना पङता है क्योंकि मां का दूध पोषण के साथ साथ संस्कार देने का कार्य भी करता है। शिशु के आहार-विहार के लिए माता को अपने आहार-विहार का विशेष ध्यान रखना चाहिए। इसलिए दूध पिलाने वाली माता को कुछ बातों का ध्यान रखना होता है –
- दूध पिलाने वाली माता को नित्य प्रति संतुलित एवं सात्विक भोजन का ही सेवन करना चाहिए। भोजन की पौष्टिकता के साथ यह ध्यान भी रखें कि भोजन शांत वातावरण में ईश्वर स्तुति में पकाया जाए और शांत वातावरण में ही ग्रहण किया जाए। बासी, तला-भुना मसालेयुक्त, वायुकारक और जंक फूड आदि का सेवन नहीं करना चाहिए। दूध और दूध से बने खाद्य पदार्थों का सेवन करना माता के लिए श्रेष्ठकर होता है।
- दूध पिलाते समय किसी भी प्रकार की चिन्ता अथवा क्रोध के भाव मन में न आएं। प्रेम, ममता, वात्सल्य से परिपूर्ण भावों के साथ दुग्धपान कराना चाहिए।
- छः महीने की आयु में शिशु का अन्नप्राशन संस्कार किया जाता है जिसमें छः रसों का स्वाद शिशु की स्वादेन्द्रिय को चखाया जाता है। अब शिशु दूध जैसा पतला अन्न खाने लगता है जैसे – सूजी की खीर, पतली खिचङी, दाल/ चावल का पानी, छाछ आदि। शिशु अभी स्वाद को नहीं जानता। अतः उसे जैसे भोजन की आदत डालेंगे वह वही भोजन खाने लगेगा। इसलिए यही उपयुक्त समय है खाने के सही संस्कार (घर में बने भोजन अर्थात् दाल चावल सब्जी आदि खिलाना) देने का।
- बच्चे को पहले माता-पिता/परिवार ही लाड प्यार में कोल्ड ड्रिंक, चाकलेट, बिस्किट, टॉफी, कुरकुरे, चिप्स आदि की आदत डाल देते हैं और बाद में उसकी इस आदत से परेशान भी होते हैं। यह सब स्वास्थ्य को बिगाङते हैं और परिणामस्वरूप शरीर को सही पोषण नहीं मिल पाता।
- बच्चे के पाचन तंत्र का ध्यान रखते हुए उसे हल्का भोजन ही खिलाना चाहिए। सामान्यतः उबला हुआ भोजन ही देना चाहिए।
- संस्कारित विधि से बैठकर, चबा चबाकर खाने की आदत इसी समय डालनी चाहिए। दिन में पानी पीने की आदत भी रहनी चाहिए।
धीरे धीरे पांच वर्ष की अवस्था तक दूध की मात्रा कम करते हुए भोजन की मात्रा बढ़ती जाएगी। शिशु अवस्था में दिए गए भोजन के यह संस्कार आजीवन के लिए स्थायी बन जाते हैं। अतः वह आजीवन स्वस्थ एवं निरोगी रहता है।
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विहार
शिशु का मन बहुत ही संवेदनशील होता है। इसीलिए शास्त्रों ने कहा है – लालयेत् पंचवर्षाणि अर्थात् पांच वर्ष की आयु तक शिशु का पालन लाड-प्यार (प्रेम ,स्नेह एवं सुरक्षा) से करना चाहिए। इस अवस्था में किसी भी प्रकार के भय एवं संवेदनाओं से उसे बचाकर रखना चाहिए। इसलिए शिशु को –
- बिल्ली, कुत्ता, पुलिस, डॉक्टर, भूत आदि का भय नहीं देना चाहिए।
- सोते हुए शिशु को शोर से दूर रखना चाहिए। उसे सुरक्षित स्थान पर सुलाएं जहां अधिक अंधेरा /प्रकाश न हो। सोते हुए शिशु को लांघ कर न जाएं।
- लङाई-झगङे, गाली-गलौच, दुःख-शोक, रोना-पीटना आदि के वातावरण से दूर ही रखना चाहिए।
- उसे जबरदस्ती किसी की गोद में न दें और न ही जबरदस्ती किसी की गोद से लें।
- अंधेरे से एकदम तेज रोशनी में न लाएं।
- तीन वर्ष तक बच्चे को तेज गर्मी एवं सर्दी में बाहर न ले जाएं। ऐसे ही वर्षा आदि के समय, जब बिजली चमकती हो तब उसे खुले में न ले जाएं।
- सुरक्षा की दृष्टि से उसे उबङ-खाबङ जगह पर न ले जाएं। पानी के हौज/नाले आदि के पास अकेला न छोङे।
- समय एवं आवश्यकतानुसार उसकी मालिश, स्नान, दूध/भोजन, स्वच्छता एवं नींद का ध्यान रखें।
- सुबह-शाम ताजी हवा में वह अपने हाथ पैरों को चला सके (यही उसका व्यायाम है) ऐसा वातावरण देना चाहिए।
गर्भ में शिशु ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान ले रहा था, परन्तु अब उसकी कर्मेन्द्रियां भी सक्रिय हो रही हैं। अतः ज्ञानेन्द्रियों के साथ साथ कर्मेन्द्रियों को भी संस्कारित करने की प्रारम्भिक अवस्था यही है। मनुष्य के जीवन जीने की कला का आधार यह शैशवास्था (प्रथम पांच वर्ष) ही है। संस्कारों से ही चरित्र निर्माण होता है और इसी अवस्था को संस्कारक्षम अवस्था अथवा जीवन की नींव कहा जाता है। अतः आहार और विहार तन और मन (बर्हिकरण एवं अन्तःकरण) दोनों को प्रभावित करता है। इसके लिए माता-पिता को अधिक सजग और सचेत रहने की आवश्यकता है। शिशु अनुकरण से सीखता है इसलिए परिवार में जैसा वातावरण वह देखेगा वैसा ही सीखेगा। अतः परिवार को भी अपने आचरण पर विशेष ध्यान रखने की आवश्यकता है।
(लेखिका शिशु शिक्षा विशेषज्ञ है और विद्या भारती उत्तर क्षेत्र शिशुवाटिका विभाग की संयोजिका है।)
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