– अवनीश भटनागर
प्रारम्भिक शिक्षा अति महत्वपूर्ण
उच्च शिक्षा संस्थान के दीक्षान्त भाषण में भी मालवीय जी देश में प्रारम्भिक तथा माध्यमिक शिक्षा की गुणवत्ता के प्रति चिन्ता व्यक्त करते हैं। वे मानते हैं कि माध्यमिक स्तर की शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार किए बिना उच्च शिक्षा की गुणवत्ता की उन्नति के बारे में सोचना व्यर्थ है। वे प्रारम्भिक शिक्षा की व्यवस्था ‘विस्तृत तथा प्रौढ़ आधार पर’ करने का सुझाव देते हैं। वे अपने देश की शिक्षा के स्तर को अन्य देशों की तुलना में अध्ययन करने की बात कहते हैं।
इंग्लैण्ड का उदाहरण देते हुए महामना कहते हैं कि सन् 1870 ई. में एलीमेन्टरी एजुकेशन एक्ट द्वारा प्रारम्भिक शिक्षा को 14 वर्ष तक के बालक-बालिकाओं के लिए अनिवार्य तथा 1891 ई. में इसे निःशुल्क कर दिया गया। इसको तीन भागों में बाँटा गया – (क) पाँच से आठ वर्ष तक के बच्चों के लिए इन्फैंट ग्रेड, (ख) आठ से ग्यारह वर्ष के लिए एलीमेन्टरी ग्रेड तथा (ग) ग्यारह से चैदह वर्ष के लिए हायर प्राइमरी ग्रेड या सेकण्डरी ग्रेड। यही सेकण्डरी ग्रेड बच्चों को मैट्रिकुलेशन के लिए तैयार करता है। ऐसे स्कूलों की संख्या एक हजार से अधिक है। विश्वयुद्ध के बाद ऐसे और स्कूल भी खोले गए हैं जो सेन्ट्रल स्कूल कहलाते हैं। ग्यारह वर्ष के बालकों को प्रवेश परीक्षा के आधार पर भर्ती करके उन्हें उद्योग-व्यवसाय तथा कला-कौशल की शिक्षा पाठ्यविषयों के साथ दी जाती है। महामना के शब्दों में, “इस बात पर ध्यान दिया जाता है कि प्रत्येक बालक वैसी ही शिक्षा प्राप्त कर सके जिसके योग्य परमात्मा ने उसे बनाया है। …. केवल विद्यार्थियों को स्कूल में पढ़ाकर उत्तीर्ण करा देने के बाद वे बालकों के प्रति अपने कर्तव्य से छुट्टी नहीं पा जाते।”
मालवीय जी 1921 ई. में प्रकाशित फ्रांस के विद्वान लेखक एफ. वुडसन की पुस्तक ‘इवोल्यूशन ऑफ इंडस्ट्रियल आर्गेनाइजेशन’ का अंश, अपने उद्बोधन में दोहराते हैं, “स्कूल केवल स्कूल के लिए नहीं, जीवन के लिए है। यह एक हास्यास्पद निर्दयता है कि तेरह वर्षीय बालकों को जीवन संग्राम में अचानक निराधार छोड़ दिया जाए।” इंग्लैण्ड के अलावा मालवीय जी आस्ट्रिया-वियेना, आयरलैण्ड, फ्रांस, बेल्जियम, जर्मनी और चिली आदि देशों में भी प्रचलित व्यावसायिक शिक्षा युक्त प्रारम्भिक शिक्षा का उदाहरणों सहित वर्णन करते हैं।
भारत में शिक्षा की स्थिति
मालवीय जी भारत की तत्कालीन शिक्षा की अवस्था पर क्षोभ व्यक्त करते हैं। वे कहते हैं, “कोई भी ऐसा देश नहीं जहाँ भारतवर्ष के समान विद्या का प्रेम पुरातन हो अथवा उसका इतना शक्तिशाली प्रभाव रहा हो। फिर भी, भारत अशिक्षा और अज्ञान के गर्त में पड़ा है।” 1921 ई. में संपन्न जनगणना के आँकड़े बताते हुए वे कहते हैं कि केवल 7.2 प्रतिशत जनसंख्या शिक्षित है। पुरुषों में 6.91 प्रतिशत तथा स्त्रियों में केवल 1.46 प्रतिशत संख्या स्कूलों में जाती है। जो बच्चे स्कूल जाते हैं उनमें अधिकांश प्रारम्भिक कक्षाओं से ही पढ़ाई छोड़ देते हैं। केवल 19 प्रतिशत ही बच्चे चौथी कक्षा तक पहुँचते हैं। माध्यमिक विद्यालयों की संख्या बहुत कम है और उनमें शिल्प और कला की शिक्षा नहीं दी जाती।
महामना सरकार की रिपोर्ट का उल्लेख करते हैं, “मैट्रिकुलेशन तथा विश्वविद्यालयों की परीक्षाओं में बहुसंख्यक असफलता परिश्रम की निरर्थकता सिद्ध करती है। व्यवसाय तथा शिल्प की शिक्षा देने की ओर जो कुछ भी प्रयास किए गए हैं उनका शिक्षा प्रणाली से कुछ भी सम्बन्ध नहीं है इसलिए वे अधिकतर निष्फल हो रहे हैं।”
मालवीय जी विश्वविद्यालयों की तुलना उन वृक्षों से करते हैं जिनकी जड़ें- प्रारम्भिक शिक्षा में स्थित हैं जिनसे वे अपना रस तथा जीवनशक्ति पाते हैं। वे कहते हैं कि शिल्प और शिक्षा का सम्बन्ध इन पाठशालाओं में है नहीं इसलिए सभी विद्यार्थियों को एक ही प्रकार के विषय बिना रुचि का ध्यान दिए पढ़ने पड़ते हैं जो उन्हें केवल अक्षर ज्ञान-अंक ज्ञान कराकर कर्मचारी बना सकते हैं। मालवीय जी उच्च शिक्षा की गुणवत्ता के लिए कहते हैं, “विश्वविद्यालयों में भर्ती, शिक्षा तथा परीक्षाओं में उच्च कोटि की श्रेष्ठता के निर्वाह के लिए राष्ट्रीय प्रणाली के आधार पर प्रारम्भिक तथा माध्यमिक विद्यालयों में सर्वसाधारण के लिए शिक्षा निःशुल्क और अनिवार्य की जाये, उनमें शिल्प कलाओं की शिक्षा दी जाए ताकि वे अपने जीवनयापन की व्यवस्था कर सकें। योग्यताहीन विद्यार्थियों को विश्वविद्यालय की शिक्षा देना व्यर्थ है।”
शिक्षा और रोजगार
मालवीय जी इस बात पर चिन्ता व्यक्त करते हैं कि उच्च शिक्षा प्राप्त करके भी युवा बेरोजगारी का शिकार हैं। इस समस्या के मूल में भी वे यही कारण मानते हैं कि रुचि और क्षमता के अनुरूप कला-कौशल की शिक्षा प्राप्त न होने के कारण डिग्रीधारी युवा केवल सरकारी नौकरी ही खोजते हैं, जबकि, “शिक्षित मनुष्यों की अगणित संख्या का निर्वाह राष्ट्रसेवा के किसी एक ही अंग में कभी नहीं हो सकता।”
शिक्षा का माध्यम
मालवीय जी के मत से भारतीय विद्यार्थियों के सामने सबसे बड़ी कठिनाई यह है कि उन्हें अपनी मातृभाषा को त्यागकर एक दुरूह विदेशी भाषा के माध्यम से अपनी शिक्षा पूर्ण करनी होती है, जैसा संसार के किसी अन्य देश में नहीं है। बचपन से उसका अधिक परिश्रम विषयों को समझने के बजाय भाषा और व्याकरण को समझने में लगता है और इससे बचने के लिए वह विषयों को समझने के बजाय उन्हें परीक्षा के लिए रटकर केवल पास हो जाता है। कोई भारतीय विद्वान यह दावा नहीं कर सकता कि वह अंग्रेजी उसी सरलता से लिख या बोल सकता है जैसा कि वह अपनी मातृभाषा में कर सकता है। वे अपना अनुभव कहते हैं, “मैंने सात वर्ष की अवस्था से अंग्रेजी पढ़ना प्रारम्भ किया और मुझे इसे प्रयोग करते हुए इकसठ वर्ष हो गए, परन्तु मैं यह स्पष्ट स्वीकार करता हूँ कि मैं जितनी सरलता से अपनी मातृभाषा का प्रयोग कर सकता हूँ, उसकी आधी भी मैं अंग्रेजी भाषा नहीं कर सकता।”
महामना अपनी पीड़ा इन शब्दों में वयक्त करते हैं, “हमारे स्कूलों और दफ्तरों में अंग्रेजी के प्रयोग से क्या लाभ? इससे देशवासियों के समय और शक्ति का कितना हृास होता है! इससे भी शोचनीय बात है कि भारतीय युवा जो ज्ञान प्राप्त कर पाता है वह निकृष्ट अथवा व्यवहार के लिए अपर्याप्त होता है। वह इतना हीन हो जाता है कि अंग्रेजी के माध्यम से पढ़े हुए विषयों का पूर्ण ज्ञान पाने में उसे बाधा आती है और जितना सीख पाता है, उसे अंग्रेजी में व्यक्त करना और कठिन होता है। इस प्रकार भारतीय युवक की सोचने तथा व्यक्त करने की, दोनों शक्तियों का ह्रास हुआ है।”
(लेखक विद्या भारती के अखिल भारतीय मंत्री और संस्कृति शिक्षा संस्थान कुरुक्षेत्र के सचिव है।)
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