महामना मदनमोहन मालवीय का दीक्षान्त भाषण – 14 दिसम्बर 1929 (भाग दो)

 – अवनीश भटनागर

बारह वर्षों की रिपोर्ट

श्रद्धेय मालवीय जी का यह दीक्षान्त उद्बोधन 14 दिसम्बर, 1929 को सम्पन्न हुआ था, अर्थात् काशी हिन्दू विश्वविद्यालय की स्थापना के प्रायः 12 वर्ष पूर्ण होने पर। उपस्थित समुदाय को मालवीय जी विश्वविद्यालय की इन 12 वर्षों की प्रगति आख्या से भी अवगत कराते हैं। बारह वर्षों की इस विकास यात्रा को आँकड़ों के रूप में हम भी देखें –

  • 32 शिक्षालय
  • 150 शिक्षक
  • 2600 विद्यार्थी, जिनमें 1600 छात्रावासी
  • 173 मकान शिक्षकों के आवास के लिए
  • 60000 पुस्तकों की उपलब्धता ग्रन्थालय में
  • 25 लाख रुपये की लागत से 12 प्रयोगशालाएँ
  • 380 छात्रवृत्तियाँ
  • 400 होनहार किन्तु अभावग्रस्त छात्रों को निःशुल्क शिक्षा
  • क्रिकेट, फूटबाल, हॉकी, टेनिस के मैदान
  • रंगशाला
  • 300 बन्दूकों से युक्त सैन्य शिक्षा शस्त्रागार
  • 100 रोगियों के रहने की व्यवस्था का अस्पताल
  • 2954 बी.ए.उपाधिधारी
  • 4 डॉक्टर ऑफ साइंस
  • 1763 कला विशारद
  • 740 विज्ञान विशारद
  • 262 कानून विशारद
  • 384 शिक्षा विशारद
  • 214 इंजीनियरिंग विशारद

सम्पूर्ण भारत की संस्था

मालवीय जी गौरवपूर्वक उल्लेख करते हैं कि भारत की सभी रियासतों तथा प्रान्तों की जनता से प्राप्त आर्थिक सहयोग से स्थापित इस विश्वविद्यालय में देश के सभी प्रान्तों के शिक्षक तथा विद्यार्थी हैं जिनमें असम, बंगाल, बिहार, ओडिशा, मध्य प्रान्त तथा राजपूताना की रियासतों के साथ-साथ म्याँमार, कनाडा, बलोचिस्तान तथा मोरिशस के भी निवासी हैं। विश्वविद्यालय के प्रारम्भिक कोष के रूप में एक करोड़ रुपये के संकलन का लक्ष्य रखा गया था जबकि एक करोड़ पचीस लाख का वास्तविक संग्रह हुआ। इस प्रकार यह विश्वविद्यालय सार्वजनिक सहयोग से निर्मित हुआ और वार्षिक आर्थिक सहायता के आधार पर निरन्तर प्रगति करता रहा है।

भारत में विश्वविद्यालयीन शिक्षा की उन्नति

1929 ई. में भारत में विश्वविद्यालयीन शिक्षा की स्थिति की समीक्षा करते हुए मालवीय जी 12 नये विश्वविद्यालयों की स्थापना, शिक्षकों की संख्या में वृद्धि तथा उच्च शिक्षा एवं अनुसंधान के क्षेत्र में हुई प्रगति पर संतोष व्यक्त करते हैं। महामना के शब्दों में, “यह उन व्यक्तियों के लिए बड़े संतोष की बात है जिन्हें भारतीयों को उच्च शिक्षा प्राप्त कराने से प्रेम है और जो भारतमाता को दिनों दिन उन्नतिशील और समृद्धिशाली होते देखना चाहते हैं। … आप सब लोग भगवान से प्रार्थना करें कि ये विद्या मंदिर और अधिक संख्या में भारतीय जनता को नवज्योति और नवजीवन संचार के साधन बनें तथा संसार के अन्य राष्ट्रों के सामने भारत के लुप्त गौरव का पुनरुत्थान करें।”

स्पष्ट है कि महामना केवल शिक्षा केन्द्र के रूप में विश्वविद्यालयों को नहीं देखते। वे इन्हें भारत के गौरव के पुनरुत्थान तथा विश्व के देशों में श्रेष्ठ देखने के लिए देश की युवाशक्ति को नियोजित करने के प्रेरणा केन्द्र के रूप में विकसित करना चाहते हैं। महामना की यह दृष्टि उन्हें एक शिक्षाविद् के साथ-साथ राष्ट्रनायक की भी भूमिका में प्रस्तुत करती है।

भारतीय विद्वता

अपने व्याख्यान में मालवीय जी भारतीयों की प्रतिभा और मेधा की भी प्रशंसा करते हैं। वे कहते हैं, “हमारे कुछ भारतीय भाइयों ने विद्या तथा अन्वेषण में विश्वप्रसिद्धि प्राप्त की है और अपने कार्यों से भारतमाता का मुख उज्ज्वल किया है।” वे डॉ० जगदीश चन्द्र बोस, सर चन्द्रशेखर वेंकटरमन्, डॉ॰ मेधनाद साहा के वैज्ञानिक अनुसंधानों का उल्लेख करते हुए विश्वास व्यक्त करते हैं, “वे अपने वैज्ञानिक अध्यवसाय तथा अन्वेषण के क्षेत्र में और भी नये सम्मान से सुशोभित किए जायेंगे, जिसमें वे असीम धैर्य तथा गंभीर उत्साह के साथ कार्य कर रहे हैं।”

उच्च शिक्षा की प्रगति से ही भारत की उन्नति

महामना का यह विचार मनन किए जाने योग्य है – “हमारे विश्वविद्यालय मानो दरिद्रता तथा आपदाओं से आक्रान्त भारतभूमि के अज्ञानरूपी अन्धकार के विनाशार्थ बिजलीघर हैं। ये विश्वविद्यालय जितनी अधिक संख्या में उच्च शिक्षा प्राप्त नवयुवकों को देशसेवा के लिए भेजेंगे, उतनी ही अधिक अविद्यारूपी शत्रु से संग्राम करने वाली राष्ट्रीय सेना की शक्ति बढ़ेगी और उतना ही देश में ज्ञानरूपी बाल रवि का प्रकाश फैलेगा।”

मालवीय जी के हृदय का यह उद्गार भारत में उच्च शिक्षा की प्रगति से भारत की उन्नति का मार्ग सुझाता है। वे पिछली शताब्दी के तीसरे दशक में भारत में उच्च शिक्षा की स्थिति की तुलना अन्य देशों से करते हुए कहते हैं कि भारत जैसे विशाल देश में, जिसका क्षेत्रफल रूस के अतिरिक्त पूरे यूरोप के बराबर है, केवल 18 विश्वविद्यालय होना अपर्याप्त है। इन विश्वविद्यालयों के स्तर की समालोचना करते हुए मालवीय जी कहते हैं कि इन पर होने वाले व्यय के अनुरूप प्रतिफल देश को प्राप्त नहीं हो पाता, ये यूरोप के विश्वविद्यालयों से स्तर में नीचे हैं और इनकी शैक्षिक गुणवत्ता उत्कृष्ट नहीं है, आदि आरोपों में आंशिक सत्यता है। वे कहते हैं, “देश की इस वर्तमान शोचनीय अवस्था में भारतीय बुद्धि अपनी शक्ति के अनुकूल फल नहीं दे पा रही, फिर भी भारतीय स्नातक यश के भागी हैं कि विपरीत परिस्थितियों में भी वे अपनी योग्यता का परिचय दे रहे हैं। विश्वविद्यालय में व्यय की गई पूँजी तथा परिश्रम का यदि हम समुचित फल प्राप्त करना चाहते हैं तो सम्पूर्ण शिक्षा पद्धति की पुनरालोचना की जाए और इसके सभी दोषों, अभावों तथा विश्वविद्यालय की शिक्षा के मार्ग की सभी बाधाओं को दूर करने के प्रयास किए जायें।”

(लेखक विद्या भारती के अखिल भारतीय मंत्री और संस्कृति शिक्षा संस्थान कुरुक्षेत्र के सचिव है।)

और पढ़ें : महामना मदनमोहन मालवीय का दीक्षान्त भाषण – 14 दिसम्बर 1929 (भाग एक)

 

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