भारतीय शिक्षा – ज्ञान की बात 70 (बालक शिक्षा और बालिका शिक्षा – भाग २)

 – वासुदेव प्रजापति

आज नारी स्वतंत्र अवश्य हुई है, परन्तु समान नहीं हुई है। उसे वही काम करने की चाह है, और उन्हीं कामों में उसे प्रतिष्ठा मिलती है जो काम पुरुषों के हैं। उसे पुरुष की बराबरी करनी है। अर्थात उसकी नजर में आज भी श्रेष्ठ पुरुष ही है, इसलिए स्त्री को श्रेष्ठ होना है तो उसे वे सारे काम करने होंगे जो पुरुष करता है। आज की उच्च शिक्षित नारी की यही मान्यता है।

बालक व बालिका शिक्षा की पार्श्वभूमि

आज की नारियों में एक और मिथ्या धारणा घर कर गई है कि स्त्री निम्न स्तर की है इसलिए उसके काम भी निम्न स्तर के हैं। पुरुष श्रेष्ठ है इसलिए उसके काम भी श्रेष्ठ हैं। स्त्रियों के विषय में जो यह हीनता का भाव है, वह अब इस रूप में प्रकट होता है कि उसे पुरुष का कोई भी काम करने से रोका न जाय। यही बात वेशभूषा में दिखाई देती है। स्त्री पुरुष का वेश पहनती है, किन्तु पुरुष कभी स्त्री का वेश नहीं पहनता। पुरुष स्त्री का वेश पहने यह स्त्री को भी स्वीकार नहीं है। वेशभूषा, खानपान, मनोरंजन, बोलचाल आदि दोनों पुरुषों का ही करते हैं। लोग अब पुत्र ही चाहिए, ऐसा तो नहीं कहते परन्तु अपनी पुत्री को पुत्र जैसे ही कपड़े पहनाते हैं, उसे वैसा ही बनाते हैं। अर्थात आज जिस प्रकार से स्त्रित्व को नकारा जा रहा है, वैसा तो इससे पूर्व कभी नहीं नकारा गया। स्त्रित्व को नकारना ही हमारे सांस्कृतिक संकट का मूल है। आज बालक व बालिका शिक्षा का जो विचार करना है, उसकी पार्श्वभूमि यही है।

भारतीय शिक्षा विचार

भारतीय चिन्तन मात्र स्त्री-पुरुष की शिक्षा का विचार नहीं करता अपितु समाज व संस्कृति की शिक्षा का विचार करता है। इसलिए आज हमारा पहला काम यह होना चाहिए कि स्त्री और पुरुष दोनों के मन से स्त्री की हीनता का जो भाव बैठ गया है, उसे निकालना होगा। अतः निम्नलिखित बिन्दुओं पर विचार कर शिक्षा योजना बनानी होगी –

  • आज स्त्री को स्त्री बनने और पुरुष को पुरुष बनने की आवश्यकता है। स्त्रियों को पुरुष नहीं बनना है। समाज को और सम्पूर्ण मानवता को स्त्री और पुरुष दोनों की आवश्यकता है, अकेले पुरुष की नहीं।
  • स्त्री को स्त्री और पुरुष को पुरुष बनाना बौद्धिक स्तर का विषय नहीं है। यह विषय मानसिक व शारीरिक स्तर का है। बौद्धिक व आध्यात्मिक स्तर पर तो दोनों समान ही हैं। व्यावहारिक स्तर पर ही दोनों को समान मानने की समस्या है, जिसका हमें शिक्षा के द्वारा समाधान निकालना है।
  • दोनों में समानता दिखाने के लिए वेश, वाणी, रूप, काम-कौशल आदि में परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं है। इन सभी बातों को भेदभाव का निमित्त नहीं बनने देना चाहिए। हमारे विचार करने के दृष्टिकोण को बदलना चाहिए। अच्छे और बुरे कामों का मापदंड स्त्रियों के करने वाले काम और पुरुषों के करने वाले कामों के आधार पर नहीं करना चाहिए। अपितु वे करणीय हैं अथवा नहीं, यही मापदंड अपनाना चाहिए।
  • स्त्री और पुरुष निरपेक्ष होकर विचार करने पर ध्यान में आयेगा कि कृषि, शिशु का पालना, भोजन बनाना और करवाना, जूते बनाना, बाबूगिरी करना, राज्य चलाना जैसे भिन्न-भिन्न कामों में उत्तम और प्रथम वरीयता के काम कौन-कौन से हैं? एक ही उत्तर आयेगा कि शिशु का पालन करना और भोजन बनाकर खिलाने का काम दफ्तर में बाबूगिरी करने व राज्य चलाने जैसे कामों से अच्छा है, क्योंकि शिशु का पालन व भोजन करवाने से राज्य चलाने वाले लोग निर्माण होते हैं। जबकि अन्य कामों से नई पीढ़ी का निर्माण नहीं होता।

इस प्रकार हमें सभी कामों को सांस्कृतिक मापदंड की कसौटी पर कसकर कौन से काम स्त्री अच्छी तरह कर सकती है और कौन से काम पुरुष अच्छी तरह कर सकता है, इसका विवेक कर दोनों में कामों का विभाजन करना चाहिए।

शील रक्षा शिक्षा का मुख्य काम है

स्त्री और पुरुष दोनों को जीवन में शील रक्षा का महत्व सिखलाना शिक्षा का मुख्य काम है। आज ऐसा माना जाता है कि स्त्री को ही पुरुष से खतरा है, शीलहरण केवल स्त्री का ही होता है और स्त्री कभी शीलहरण नहीं करती, यह सत्य नहीं है। शील दोनों का होता है और दोनों एक-दूसरे का शीलहरण कर सकते हैं। आज दोनों का शील खतरे में है, यह वास्तविक स्थिति है। अतः हमें निम्नलिखित प्रयत्न करने होंगे –

  • शील रक्षा की शिक्षा छह या सात वर्ष की आयु से ही देनी प्रारम्भ करनी चाहिए। इस दृष्टि से सहशिक्षा उचित नहीं है। बालक व बालिका की मित्रता यह अवास्तविक संकल्पना है। परन्तु आज यह बात सुनने को कोई तैयार नहीं है और बोलने वाले की बोलती बंद कर दी जाती है। यह स्थिति सांस्कृतिक दृष्टि से आत्मघात है।
  • सही कदम तो यह है कि बालक व बालिका के गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने तक अलग-अलग शिक्षा प्राप्त कर अपनी शारीरिक व मानसिक क्षमताओं का विकास करना चाहिए। गृहस्थाश्रम में प्रवेश से पूर्व ही परस्पर के रक्षण-संरक्षण और सहयोग से पराये स्त्री-पुरुषों के साथ भी स्वस्थ सम्बन्ध बनाने की शिक्षा प्रत्येक बालक व बालिका को प्राप्त होनी चाहिए। तभी बौद्धिक स्तर पर शास्त्रार्थ हो सकता है।
  • जैसे अच्छा गृहस्थाश्रम स्त्री-पुरुष दोनों के लिए आवश्यक है वैसे ही समाज और संस्कृति के लिए भी आवश्यक है। घर को घर बनाने के लिए बालक व बालिका की मनोवैज्ञानिक शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है। यदि दोनों का मानस ठीक हो जाता है तो अन्य बातें स्वतः ठीक हो जाती हैं।

घर सांस्कृतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण केन्द्र है

भारतीय मान्यता में गृहणी से ही घर बनता है, “गृहणी गृहं उच्यते”। अन्यथा पुरुष को तो घर में रहने वाला कहा गया है। गृहणी के बिना घर, घर नहीं होता। इसलिए स्त्री में घर चलाने की और पुरुष में घर में रहने की पात्रता निर्माण होने की शिक्षा दी जानी चाहिए। दोनों को यह शिक्षा भी मिलनी चाहिए कि वे मिलकर घर को अच्छा संस्कार केन्द्र बना सके।

घर को संस्कार केन्द्र बनाने की शिक्षा देना इसलिए आवश्यक है कि प्रत्येक बालिका को बड़ी होकर वह चाहे डाक्टर बने या इंजीनियर अथवा और कुछ भी बने या न बने परन्तु उसे एक अच्छी स्त्री, एक अच्छी पत्नी, एक अच्छी गृहणी व एक अच्छी माँ तो बनना ही है। इसी प्रकार एक बालक को बड़ा होकर अच्छा पुरुष, अच्छा पति, अच्छा गृहस्थ और अच्छा पिता तो बनना ही है। यह बात माता-पिता व शिक्षक को सदैव स्मरण रखना चाहिए। डाक्टर या इंजीनियर की शिक्षा से भी अधिक महत्वपूर्ण अच्छी माता व अच्छा पिता बनने की शिक्षा है। इसके अनुसार बालक व बालिका की शिक्षा व्यवस्था करनी चाहिए।

आज की शिक्षा व्यवस्था

आज पुरुष सापेक्ष शिक्षा व्यवस्था बनी हुई है अर्थात बालक को केन्द्र में रखकर ही सभी बातों का विचार होता है। इस व्यवस्था में बालिका को सभी अवसर उपलब्ध करवा देना, बालिका शिक्षा का आदर्श माना जाता है। यदि कहीं स्वतंत्र रूप से बालिका शिक्षा का विचार किया भी जाता है तो मात्र खाना बनाना, शिशु संगोपन करना, रंगोली, कढ़ाई-बुनाई व साज-सज्जा जैसी बातों का ही विचार किया जाता है। ये दोनों ही सम्यक विचार नहीं हैं, अतः दोनों ही त्याज्य हैं। केवल बालिका शिक्षा का या बालक शिक्षा की व्यवस्था नहीं अपितु सामाजिक व सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में दोनों की शिक्षा का विचार करने की आवश्यकता है।

यहाँ हमने छोटी-छोटी बातों का विचार न करते हुए इस प्रश्न के मूल मुद्दों पर ही विचार किया है। एक बार सही दिशा में कदम रख दिया तो अन्य बातें स्वतः ठीक हो जाती हैं। प्राचीन काल में जब शिक्षा का विचार सामाजिक व सांस्कृतिक आधार पर किया जाता था तो कैसे-कैसे प्रतिभावान नागरिक निर्माण होते थे, यह हमें याज्ञवल्क्य व गार्गी के जीवन चरित्र से पता चलता है।

जनक दरबार में शास्त्रार्थ

विदेहराज जनक ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया। इस यज्ञ में सम्पूर्ण देश में से अनेक विद्वान आए थे। राजा जनक विद्या व्यसनी तथा सत्संग प्रेमी थे। उनके मन में जिज्ञासा हुई कि यहाँ आए हुए विद्वानों में सबसे बढ़कर तात्त्विक विवेचन करने वाला विद्वान कौन है? इस परीक्षा हेतु उन्होंने अपनी गोशाला में एक हजार गाय रखवाकर प्रत्येक के सींगों में दस-दस पाद स्वर्ण जड़वा दिया। फिर राजा ने उन विद्वानों से कहा – “आप लोगों में से जो सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मवेत्ता हो, वह इन सभी गौओं को ले जाय।”

राजा जनक की यह घोषणा सुनकर किसी भी विद्वान में यह साहस नहीं हुआ कि उन गौओं को ले जाय। सबको अपने ब्रह्मवेत्तापन में संदेह था, शास्त्रार्थ में सबको जीत सकेंगे या नहीं, इस बात का विश्वास नहीं था। सब विद्वानों को चुपचाप बैठे देखकर याज्ञवल्क्य जी ने अपने ब्रह्मचारी से कहा – “सौम्य! तू इन सभी गौओं को हाँक ले चल।” सौम्य ने वैसा ही किया।

यह देखकर अन्य सभी विद्वान क्षुब्ध हो उठे। यज्ञ के होता अश्वल याज्ञवल्क्यजी से पूछ बैठा – “क्यों? तुम्हीं हम सबसे बढ़कर ब्रह्मवेत्ता हो?” उन्होंने नम्रतापूर्वक कहा – नहीं, ब्रह्मवेत्ताओं को तो हम नमस्कार करते हैं। हमें तो केवल गौओं की आवश्यकता है, अतः ले जाते हैं। फिर क्या था, शास्त्रार्थ आरम्भ हो गया। अब तो यज्ञ का प्रत्येक विद्वान याज्ञवल्क्यजी से प्रश्न करने लगा। याज्ञवल्क्यजी इससे तनिक भी विचलित नहीं हुए, अपितु धैर्यपूर्वक सबके प्रश्नों के उत्तर दिए। और सभी विद्वान उचित उत्तर पाकर मौन हो गए।

इस सभा में ब्रह्मवादिनी विदुषी गार्गी भी उपस्थित थीं। जब वायु, आकाश, अन्तरिक्ष, गन्धर्वलोक, आदित्यलोक, चन्द्रलोक, नक्षत्रलोक, देवलोक, इन्द्रलोक और प्रजापतिलोक के बारे में प्रश्नोत्तर हो जाने पर अब गार्गी ने प्रश्न पूछा – “ब्रह्मलोक किसमें ओतप्रोत है”? तब याज्ञवल्क्यजी ने कहा, यह तो अतिप्रश्न है, गार्गी! यह उत्तर की सीमा है। अब इसके आगे प्रश्न नहीं हो सकता। अब तू प्रश्न न कर, नहीं तो मेरा मस्तक गिर जाएगा। गार्गी विदुषी थीं, वे याज्ञवल्क्यजी के अभिप्राय को समझकर चुप हो गईं। तदनन्तर और कई विद्वानों ने प्रश्नोत्तर किए। फिर गार्गी ने दो प्रश्न और किए। इन प्रश्नों के उत्तर में उन्होंने अक्षरतत्त्व का, जिसे परब्रह्म परमात्मा कहते हैं, भाँति-भाँति से निरूपण किया।

अन्त में गार्गी ने भी याज्ञवल्क्यजी का लोहा मान लिया। और अपना निर्णय दिया कि “इस सभा में याज्ञवल्क्यजी से बढ़कर अन्य कोई ब्रह्मवेत्ता नहीं है, इन्हें कोई भी पराजित नहीं कर सकता। विद्वानों! याज्ञवल्क्यजी को पराजित करने का स्वप्न देखना व्यर्थ है। उन्हें नमस्कार करने मात्र से आप लोगों का छुटकारा हो रहा है, इसे ही बहुत समझें।

गार्गी के प्रश्नों को पढ़कर उनके गंभीर अध्ययन का पता चलता है। उनके मन में अपने पक्ष को अनुचित रूप से सिद्ध करने का दुराग्रह नहीं था। वे याज्ञवल्क्यजी के विद्वत्तापूर्ण उत्तर पाकर सन्तुष्ट हो गईं और उनकी विद्वत्ता की मुक्तकंठ से प्रशंसा की। उधर सर्वश्रेष्ठ ब्रह्मवेत्ता सिद्ध होकर भी अहंभाव से विमुख रहने वाले याज्ञवल्क्यजी ने “विद्या ददाति विनयम्” सूक्ति को चरितार्थ किया। जब बालक व बालिका दोनों की शिक्षा सांस्कृतिक अधिष्ठान पर देश व समाज के लिए दी जाती थी तब ऐसे ब्रह्मवेत्ता याज्ञवल्क्यजी एवं ब्रह्मवादिनी गार्गी निर्माण होते थे, जो आज भी हमारे आदर्श हैं। आज हमें भी ऐसी ही शिक्षा पुनः प्रतिष्ठित करनी है।

(लेखक शिक्षाविद् हैभारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

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