– वासुदेव प्रजापति
शिक्षा में स्वायत्तता और स्वतंत्रता की माँग अनेक शिक्षाविद और शैक्षिक संगठन समय-समय पर करते हुए सुनाई देते हैं, किन्तु स्वायत्तता प्राप्त नहीं हो रही है। कुछ संस्थाएँ ऐसी हैं, जिन्हें स्वायत्तता का दर्जा अवश्य मिला हुआ है, परन्तु स्वायत्तता नहीं मिली है। उन संस्थाओं की स्वायत्तता का वास्तविक स्वरूप क्या है, इसका विचार करना आवश्यक है। इसके साथ ही स्वायत्तता के साथ जुड़ी हुई स्वतंत्रता का सही स्वरूप क्या है, यह जानना भी आवश्यक है।
स्वायत्तता ओटोनोमी का अनुवाद है
आज जिसे हम स्वायत्तता कहते हैं, वह अंग्रेजी शब्द autonomy का अनुवाद है। स्वतंत्र भारत का संविधान अंग्रेजी में लिखा गया था। उसमें प्रयुक्त शब्दावली का भारतीय भाषाओं में रूपांतरण करने के लिए एक समिति का गठन किया गया था। उस समिति द्वारा autonomous का हिन्दी में रूपांतरण स्वायत्त किया गया है। आक्सफोर्ड एडवांस्ड लर्नर्स डिक्शनरी के अनुसार “autonomy is the right of self-government, personal freedom.” तथा “freedom of the will.” इसका अर्थ होता है, “स्वशासन का अधिकार, वैयक्तिक स्वतंत्रता और इच्छा व विचारों की स्वतंत्रता”। अन्य डिक्शनरियों के अनुसार स्वायत्त का अर्थ स्वतंत्र, स्वयं के अधीन, स्वयं शासित इकाई होता है और स्वयं शासित का अर्थ है, जो इकाई किसी भी वरीय सत्ता के अधीन न हो। इसे हम स्वयं के नियमन में काम करने वाली व्यवस्था भी कह सकते हैं।
स्वायत्तता के मूल में स्वतंत्रता
भारतीय साहित्य में स्वायत्तता स्वतंत्रता से जुड़ी हुई संज्ञा है। स्वतंत्रता आत्मा का स्वभाव है। आत्मा को वेदान्त में स्वतंत्र प्रकृति कहा गया है, और उसका लक्षण “कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं समर्थ:” बताया गया है। अर्थात करने, नहीं करने या किये हुए को बदलकर अन्य कुछ भी करने में समर्थ होना ही स्वतंत्रता है।
स्वतंत्र जीवात्मा देह, प्राण, मन, बुद्धि व चित्त रूपी आवरणों में बद्ध है। फिर भी वह मुक्ति के अनुकूल कर्मों की प्रेरणा इन सबको देती है। इन्द्रियों के दो प्रेरणास्थल हैं, एक बाह्य सृष्टि के संसर्ग से मिलने वाली प्रेरणा और दूसरी आत्मा की स्वतंत्र प्रेरणा। “खाओ पीओ और मौज करो” यह इन्द्रियों की प्रेरणा है, यह कर्मसृष्टि की प्रेरणा है। इसके स्थान पर “मोक्षानुकूल कर्म करो” यह आत्मा की प्रेरणा है, यह ब्रह्मसृष्टि की प्रेरणा है। कर्मसृष्टि की प्रेरणा बन्धन का कारण बनती है, जबकि स्वतंत्रता की प्रेरणा मुक्ति की प्रेरणा है। इसीलिए तुलसीदास जी ने मानस में लिखा है – “पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं।” अर्थात सुखी होने के लिए स्वतंत्र होना प्रथम अनिवार्यता है। अतः स्वतंत्रता की प्रेरणा आत्मप्रेरणा है। हमारे पूर्वजों ने इस तथ्य को स्वीकार करके व्यवहार में तदनुरूप जीवन रचना की है। हमारे यहाँ विकास की संकल्पना का आधार भी यह स्वतंत्र प्रेरणा ही है।
स्वतंत्रता की रक्षा हेतु स्वायत्तता आवश्यक
हमारे देश में स्वतंत्रता समाज रचना का मूल सिद्धान्त है, इसलिए हम स्वतंत्रता का इतना अधिक आदर करते हैं। व्यक्ति की स्वतंत्रता, राज्य की स्वतंत्रता, व्यवसायों की स्वतंत्रता और संस्थाओं की स्वतंत्रता हमारी समाज रचना का मूल सिद्धान्त है। एक साथ रहते हुए एक दूसरे की रक्षा करना, एक दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करना किसी भी सुसंस्कृत व सुविकसित समाज का लक्षण है। इसके विपरीत अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करना, परन्तु दूसरों की स्वतंत्रता को छीनने का प्रयास करना न तो धर्म है न संस्कृति है और न यह मनुष्य के मूल स्वभाव के अनुकूल है।
इस स्वतंत्रता की रक्षा करने के लिए स्वायत्त होना आवश्यक है। यह स्वायत्त होना क्या है? किसी भी एक इकाई के संचालन हेतु जितनी भी बातें आवश्यक होती हैं, वे सभी किसी अन्य का आलम्बन लिए बिना पूरी कर ली जाती है, ऐसा तंत्र या व्यवस्था स्वायत्त व्यवस्था कहलाती है। स्वायत्त होना अधिकार भी है और जिम्मेदारी भी है। हमारी समाज रचना के मूल में जाने पर ध्यान में आता है कि वह स्वतंत्रता और स्वायत्तता के सिद्धान्त को स्वीकार कर बनाई गई है।
सूतपुत्र
महाभारत की कथा में सूतपुत्र का उल्लेख होते ही कर्ण का चित्र हमारे मनश्चक्षुओं के सम्मुख उभर आता है। कर्ण कुन्ती पुत्र था, इसलिए महापराक्रमी, दानवीर व उच्च कोटि का धनुर्धर भी था। किन्तु माता कुन्ती ने जन्म से ही उसे छोड़ दिया था। तब उसका लालन-पालन राधा नामक सूत स्त्री ने किया था, इसलिए उसे राधेय नाम से पुकारते थे और उसे सूतपुत्र मानते थे।
कर्ण जन्म से क्षत्रिय होने के कारण उसके कर्म भी क्षत्रियोचित ही थे। वह कौरवों के संग रहता था। दुर्योधन ने उसे अंग देश का राजा बना दिया था, इसलिए वह भी दुर्योधन की प्रत्येक बात का समर्थन करता था और हर समय एक अंगरक्षक के समान दुर्योधन के साथ रहता था।
उन्हीं दिनों पांचाल नरेश ने अपनी पुत्री पांचाली का स्वयंवर आयोजित किया। सभी नरेशों को निमंत्रण भेजा गया। दुर्योधन ने भी उस स्वयंवर में भाग लिया और अपने साथ कर्ण को भी पांचाल देश ले गया। उस स्वयंवर की शर्त बहुत कठिन थी। जो कोई धनुर्धर नीचे जल में देखकर ऊपर एक चक्र में घूमती हुई मछली की आँख में तीर मारने में सफल होगा, वही स्वयंवर की शर्त पूरी कर विजेता बन जाएगा। और पांचाली उसी के गले में वरमाला पहनाएगी।
एक एक कर अनेक नरेशों ने उस घूमती हुई मछली की आँख बींधने का प्रयत्न किया, परन्तु कोई भी सफल नहीं हुआ। जब दुर्योधन भी असफल हो गया तब कर्ण आगे आया और ज्योंही स्वयंवर में भाग लेने के लिए तैयार हुआ त्योंही उसे भाग लेने से रोक दिया गया। रोकने का कारण पूछने पर बताया गया कि यह स्वयंवर क्षत्रियों के लिए है और तुम क्षत्रिय नहीं एक सुतपुत्र हो। इसलिए तुम स्वयंवर के अधिकारी नहीं हो। तब कर्ण ने जो उत्तर दिया, वह स्वायत्त शब्द को समझने योग्य है।
कर्ण ने कहा, “दैवायत्तं कुले जन्म मदायत्तं तु पौरुषम्।”
अर्थात किस कुल में जन्म होगा, यह तो देव के अधीन है, मेरे अधीन अर्थात मेरे हाथ में नहीं है। मेरे हाथ में तो पौरुष या पराक्रम करना है, जिससे मुझे रोका जा रहा है। यह तो न्याय नहीं है। अन्त में स्वयंवर का क्या हुआ? वह आगे की कथा हम जानते हैं। ब्राह्मण वेशधारी अर्जुन ने वह स्वयंवर जीता और पांचाली ने अर्जुन के गले में वरमाला डाली। इस कथा को हम हीं विराम देते हैं। और इस कथा से ही स्वायत्त शब्द का अर्थ समझते हैं।
शिक्षा में स्वायत्तता
कर्ण के वाक्य में प्रयुक्त शब्दों – ‘दैवायत्तं तथा मदायत्तं’ में मूल शब्द आयत्त है। इस आयत्त का अर्थ है, अधीन या हाथ में। दैवायत्तं अर्थात देव के अधीन या देव के हाथ में और मदायत्तं का अर्थ है मेरे अधीन या मेरे हाथ में। कर्ण के अधीन या कर्ण के हाथ में तो पौरुष करना या पराक्रम करना है। इसका सीधा सीधा अर्थ हुआ कि पराक्रम करने में कर्ण स्वायत्त है। पराक्रम करना कर्ण के स्वयं के हाथ में है।
हम समझ रहे हैं, शब्द ‘स्वायत्त’। स्व + आयत्त = स्वायत्त। अर्थात स्व के अधीन या स्वयं के हाथ में। जब हम कहते हैं कि शिक्षा स्वायत्त होनी चाहिए, तब यह भी स्पष्ट करना होगा कि यह ‘स्व’ कौन है? शिक्षा में स्वायत्तता का अर्थ किसकी स्वायत्तता से है? यह जानने के लिए शिक्षा का तादात्म्य किससे है, यह भी जानना होगा। शिक्षा तत्त्व रूप में ज्ञान है, क्रिया के रूप में विद्या है और प्रक्रिया के रूप में ज्ञानार्जन है। ये तीनों व्यक्ति का आलम्बन करके रहते हैं। इसलिए शिक्षा की स्वायत्तता की बात करते समय हमें सन्दर्भित व्यक्तियों की बात करनी होगी।
वर्तमान परिदृश्य में शिक्षा का सम्बन्ध – शासन, राजकीय विचारधारा, संचालक, शिक्षक, छात्र और अभिभावकों के साथ आता है। इन सबमें से शिक्षा किसके हाथ में होने पर स्वायत्त मानी जाएगी? इसका विचार करने पर ध्यान में आता है कि ज्ञान, ज्ञानार्जन व विद्या का सीधा सम्बन्ध दो ही व्यक्तियों से हैं, वे हैं – शिक्षक और छात्र। छात्र ज्ञानार्जन करता है तथा विद्या सीखता है। और शिक्षक इस सीखने की प्रक्रिया में छात्र की सहायता करता है।
विद्या प्राप्त करने की इस प्रक्रिया में द्वेत नहीं है। तैत्तिरीय उपनिषद के अधिविद्य प्रकरण में यह उल्लेख मिलता है –
“अथ अधिविद्यम्। आचार्य: पूर्वरूपम्। अन्तेवासी उत्तररूपम्। विद्या सन्धि:। प्रवचनं संधानम्।”
आचार्य का अध्यापन और छात्र का अध्ययन दोनों के मिलने पर ही विद्या प्रकट होती है। वास्तविकता में ज्ञानार्जन करने वाला छात्र है, किन्तु उसका नियोजन करने वाला आचार्य या शिक्षक है। अतः शिक्षा शिक्षक के अधीन होती है। इसलिए शिक्षा के स्वायत्त होने का तात्पर्य शिक्षक का स्वायत्त होना है। अर्थात शिक्षा न शासन के, न राजकीय विचारधारा के, न संचालकों के अधीन होनी चाहिए अपितु शिक्षा शिक्षक के अधीन ही होनी चाहिए।
शिक्षक की स्वायत्तता
व्यावहारिक सन्दर्भ में विचार करने पर एक जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि शिक्षक के कार्य का आरम्भ कैसे हुआ होगा? अनुमान यह लगता है कि किसी ज्ञानवान व्यक्ति को दूसरों का अज्ञान जनित दुख या कठिनाई में देखकर भावना जागृत हुई होगी कि मैं इसे ज्ञान देकर इसके दुख दूर करूँ। तब वह उसके पास गया होगा अथवा उसे अपने पास बुलाया होगा। इस प्रकार शिक्षक का कार्य आरम्भ हुआ होगा।
ज्ञान देते समय शिक्षक के मन का यह भाव होता है कि उसे अपने पूर्व गुरुओं से ज्ञान प्राप्त हुआ है। इस रूप में अपने पूर्व गुरुओं का ऋण मुझ पर है। मैं अपने गुरुओं को ज्ञान के बदले में और कुछ तो दे नहीं सकता, क्योंकि ज्ञान के समान मूल्यवान और कुछ है नहीं। अतः अन्य लोगों को ज्ञान देकर या उनके लिए अपने ज्ञान का विनियोग करके ही मैं अपने गुरुओं के ऋण से उऋण हो सकता हूँ। अतः ज्ञान, ज्ञानार्जन और विद्या इन तीनों पहलुओं में शिक्षा के साथ तादात्म्य शिक्षक का ही है।
शिक्षा के इस कार्य के लिए स्थान, धन और अन्य जो भी सामग्री चाहिए उसकी व्यवस्था शिक्षक स्वयं करता है। छात्र इस कार्य के अभिन्न अंग हैं, इसलिए वे शिक्षक के व्यक्तित्व के, शिक्षक के परिवार के और शिक्षक के दैनन्दिन जीवन के अंग होते हैं। अतः अन्न-वस्त्रादि के प्रबन्ध हेतु आवश्यकतानुसार सहभागी होते हैं। छात्रों के लिए यह गुरु गृहवास है, गुरु या आचार्य या शिक्षक छात्रों के मानस पिता हैं। छात्र उनकी मानस संतान हैं। इस प्रकार वे उस परिवार के सदस्य बन जाते हैं। गुरु के इस कार्य में आवश्यकतानुसार राजा और समाज शिक्षक को आर्थिक सहयोग करते हैं। और शिक्षा के पवित्र कार्य में सहायता देकर पुण्य प्राप्त करते हैं। यही शिक्षा तंत्र का मूल रूप है, यही शिक्षा तंत्र का भारतीय रूप है।
स्वायत्तता शिक्षा के शेष बिन्दु भाग २ में …
(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)
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