– रवि कुमार
“जैसा खाए अन्न वैसा हो जाए मन” ये कहावत हम सबने सुनी होगी। स्वास्थ्य के साथ-साथ अन्न अर्थात आहार का हमारे मन पर भी प्रभाव पड़ता है। आज की भागदौड़ की दुनिया में ऐसा लगता है कि सभी के पास समय कम है। इस ‘समय कम’ की मानसिकता के नाते स्वास्थ्य के लिए सबसे महत्वपूर्ण तत्त्व आहार के विषय में भी मनुष्य लापरवाह हो गया है। और इसलिए फ़ास्ट-फूड की आवश्यकता सभी को अनुभव होती है। भोजन बनाने का झंझट नहीं, भोजन के लिए सामग्री लाने व व्यवस्था निर्माण करने की भी आवश्यकता नहीं, आदेश करो और स्वादिष्ट भोजन का आनन्द लो! इस प्रकार के आहार में स्वाद तो रहता है, पेट भी भर जाता है परंतु पौष्टिकता नहीं होती। स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव का तो कहना ही क्या! फ़ास्ट-फूड या जंक-फूड (पिज्जा, बर्गर, मैगी, नूडल्स, चिप्स, चोकलेट, पेटीज, फ्रेंकी, कार्बोनेटेड शीतल पेय, चाऊमिन, डोनट्स आदि) जो भी इसे नाम दे, इसमें शक्कर, नमक व वसा की अत्यधिक मात्रा रहती है। इस पर निर्भर रहने वाले मनुष्य या इसका अधिक सेवन करने वाले मनुष्यों में आलस्य, चिड़चिड़ापन, मोटापा, डायबिटीज होना, हृदयघात का खतरा आदि अधिक मात्रा में होता है, ऐसा कई रिपोर्ट के आधार पर कहा जा सकता है।
भारत में फ़ास्ट-फूड का उपयोग गत अनेक वर्षों से लगातार बढ़ता जा रहा है। मैक्डोनाल्ड फ़ास्ट-फूड में दुनिया की सबसे बड़ी चेन है। 2018 के अनुसार 100 देशों में 37855 आउटलेट के साथ 69 मिलियन उपभोक्ता नियमित रूप से मैक्डोनाल्ड के फ़ास्ट-फूड के साथ जुड़े हैं। 1940 में केलिफोर्निया में अस्तित्व में आई यह कम्पनी 1996 में भारत मे प्रवेश करती है और इसके पीछे-पीछे पिज्जा-हट, डोमिनोज़, केएफसी, सब-वे जैसी फ़ास्ट-फूड कंपनियां भी भारत में आ जाती हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2019 की बजाय 2020 में इस व्यापार में 18% कई वृद्धि हुई है। शहरीकरण, परिवर्तन, अर्थव्यवस्था और बाजार की ताकतों के प्रभाव के कारण अभूतपूर्व वृद्धि के साथ आहार की आदतों में परिवर्तन हो रहा है जिसके परिणामस्वरूप फास्ट-फूड का सेवन बढ़ रहा है। ऐसे में स्वस्थ भारत और स्वस्थ पीढ़ी की कल्पना कैसे की जा सकती है?
महात्मा विदुर ने कहा है –
एकं विष रसो हन्ति, शस्त्रोणैकश्च वध्यते ।
सराष्ट्रं सप्रजं हन्ति, राजानं मंत्रा विप्लवः ।।
अर्थात् विष पिलाकर एक व्यक्ति को मारा जा सकता है। शस्त्रों के प्रयोग द्वारा भी एक और प्रजापालक मर सकता है। लेकिन बुद्धि भ्रम पैदा किया तो राष्ट्र, प्रजा और प्रजापालक सभी का नाश हो सकता है।
आहार के विषय में हमारी बुद्धि में भ्रम न रहे, इसके लिए हम भारतीयों को विचार करने की आवश्यकता है।
इसका विकल्प क्या है? जब यह विचार करते हैं तो ध्यान में आता है कि क्या भारतीय परंपरा में कम समय में भोजन की आपूर्ति स्वाद व पौष्टिकता के साथ हो इसका ध्यान नहीं रखा गया? इस विषय में हर घर-परिवार में सहजता से ध्यान रखा जाता रहा था और आज भी रखा जाता है। फ़ास्ट-फूड यानी कम समय में तुरंत बनने वाला स्वादयुक्त आहार। भारतीय परंपरा में स्वादयुक्त के साथ स्वास्थ्य के लिए हितकर रहते हुए पौष्टिकता का भी समावेश रखा गया है। मैं कुछ व्यंजनों के नाम यहाँ वर्णन कर रहा हूँ जिनके बारे में हम सब जानते हैं और अनेक अवसरों पर हमारे घरों में ये सब बनते भी रहते हैं –
हलुवा- आटे को घी में सेंककर उसमें पानी तथा गुड़ या शक्कर मिलाकर पकाया जाता है। सुखडी- आटे को घी में सेंककर उसमें गुड़ मिलाकर थाली में डालकर सुखडी तैयार हो जाती है। कुलेर- बाजरे अथवा चावल का आटा सेंककर अथवा बिना सेंके घी या गुड़ मिलाकर बनाया हुआ लड्डू कुलेर कहलाता है। बेसन के लड्डु- चने की दाल का आटा अर्थात बेसन के मोटे आटे को घी में सेंककर उसमें पीसी हुई शक्कर मिलाकर बनाया गया लड्डू अर्थात् बेसन का लड्डू। राब- घी में आटा सेंककर उसमें पानी और गुड़ मिलाकर उसे उबलने पर पीने जैसा जो तरल पदार्थ बना है, वह राब है। चीला- चावल अथवा बेसन के आटे को पानी में घोलकर उसमें नमक, हल्दी, मिर्च आदि मिलाकर तवे पर फैलाकर चीला बनाया जाता है। मालपुआ- गेहूँ के आटे को पानी में भिगोकर घोल तैयार करके उसमें गुड़ मिलाया जाता है और उसे चीले की तरह पकाया जाता है। पकोड़े- बेसन के आटे के घोल में आलू, प्याज, मिर्च, बैंगन, पालक, गोभी आदि सब्जियों के टुकड़े मिलाकर तेल में तलकर पकोड़े तैयार होते हैं। इस श्रेणी में उपमा, बड़ा, पोहे, खीच, मुरमुरे की चटपटी, पूरी, थेपला, खमण, थाली पीठ आदि व्यंजन भी आते हैं।
कुछ जंक-फूड यथा- रोटीचूरा, रोटी का लड्डू, खिचड़ी के पराठे-पकौड़े या बड़े, दालभात मिक्स, दाल पापड़ी, कटलेस, भेल, सखडी, रात की बची हुई रोटी आदि भारतीय परंपरा में प्रचलित हैं। ये सारे जंक फूड के नमूने हैं क्योंकि ये बासी या बचे हुए पदार्थों से बनते हैं। आयुर्वेद इन्हें खाने के लिए स्पष्ट मना करता है क्योंकि स्वास्थ्य कारक आहार की परिभाषा में इनका स्थान नहीं हैं।
सामान्यतः सभी मानते हैं कि फ़ास्ट-फूड का आविष्कार आज के जमाने में ही हुआ है। परंतु ऐसा नहीं है। तुरंत भोजन की आवश्यकता तो कभी भी और कहीं भी रह सकती है। इसलिए भारतीय गृहिणी भी इस कला में कुशल होगी ही। उपरोक्त सभी भारतीय फ़ास्ट-फूड मैक्डोनाल्ड आदि आने के वर्षों पूर्व से भारतीय परिवारों में बनते आए हैं। विकल्प हम सभी के सामने है। अब हमें इसमें से चुनना है कि आधुनिकीकरण के नाम पर पश्चिमीकरण के बहाव में बहकर अपने भविष्य को रोगों से युक्त करना है या भारतीय परम्परा को बनाए रखते हुए स्वस्थ भारत और स्वस्थ पीढ़ी का निर्माण करना है।
(लेखक विद्या भारती दिल्ली प्रान्त के संगठन मंत्री है और विद्या भारती प्रचार विभाग की केन्द्रीय टोली के सदस्य है।)
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