21वीं शताब्दी के शिक्षक

– दिलीप बेतकेकर

21st century teacher

इक्कीसवीं शताब्दी है यह! कैसी है ये नई शताब्दी? इस नई शताब्दी में कौन से परिवर्तन होंगे? क्या समस्याएं होंगी इसमें? भारत के क्या कार्यकलाप होंगे इस शताब्दी में? भारत की दृष्टि से इस इक्कीसवीं शताब्दी में सब सफलतापूर्वक होगा न?…

ऐसे कितने ही प्रश्न अनेक लोगों के मन में उभरते होंगे। सभाएं, बैठकें, सम्मेलन, भाषण, परिसंवाद आदि के माध्यम से इक्कीसवीं शताब्दी का उल्लेख हो रहा है। इसमें अजीब कुछ नहीं। भविष्य के प्रति प्रत्येक को ही उत्सुकता रहती है। भविष्य के आकलन की आवश्यकता समाज को भी होती है।

एक शिक्षक के नाते, इस इक्कीसवीं शताब्दी में, हम शिक्षकों के समक्ष कौन सी चुनौती होगी, कौन सी समस्याएं होंगी, कौन सी सुविधाएं प्राप्त हो सकती हैं, कौन से साधन होंगे, इन सब बातों का विचार करना आवश्यक है। इस शताब्दी के विद्यार्थियों के साथ व्यवहार हेतु शिक्षक को किन बातों का ध्यान रखना होगा, उनके प्रश्नों को किस कुशलता के साथ हल करना होगा, इसका विचार करना होगा।

इक्कीसवीं शताब्दी विज्ञान, तकनीक-तंत्रज्ञान की शताब्दी है, इसमें कोई भी आशंका किसी को नहीं है। विविध प्रकार के नये-नये साधन बच्चे उपयोग करने लगे हैं। नित्य नये साधन उपलब्ध हो रहे हैं। इसलिये शिक्षक को भी तकनीकी ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता है। बाजार में अनेक प्रकार के उपकरण उपलब्ध हैं। उत्तरोत्तर इन नये उपकरणों की संख्या में ही वृद्धि नहीं वरन् उनके गुणात्मक स्तरों में भी वृद्धि होगी। इन तकनीकी साधनों, उपकरणों का सही, सुयोग्य, परिणाम कारक उपयोग करने की योग्यता शिक्षक में होना आवश्यक है। केवल उपकरण को चालू करना और बंद करना आ गया तो उपकरण के बारे में सब जान लिया, ये पर्याप्त नहीं है वरना यह दूरदर्शन जैसी स्थिति होगी। उसे हम चालू या बंद कर लेते है किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उसका सुयोग्य, परिणामकारी उपयोग हो गया। दूरदर्शन एक प्रभावी साधन है। उसका शैक्षणिक कार्यों के लिये सुयोग्य उपयोग हो यह आवश्यक है।

21st century teacher

अन्य साधनों के बारे में भी यही स्थिति हो सकती है। साधन की उपलब्धता के साथ उसका प्रभावी उपयोग हो रहा है अथवा नहीं यह देखना आवश्यक है। उस साधन, उपकरण को उपयोग करने वाला शिक्षक तकनीकी दृष्टि से तज्ञ हो तभी उसका प्रभावी उपयोग हो रहा है माना जायेगा। शिक्षक का उत्साही, प्रयोगशील होना जरूरी है। इन साधनों, उपकरणों का सही अर्थ तब मिलेगा जब इनका प्रभावी उपयोग विद्यालय, महाविद्यालयों में शिक्षकों द्वारा किया जाये वरना बच्चे, शिक्षक, विद्यालय, अध्यापन इनमें बहुत अन्तर निर्मित होगा।

इस विज्ञान, तकनीक के उपयोग के साथ एक और नई समस्या उभरने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता। अभी ही उसके लक्षण दिखाई देने लगे हैं। बच्चों की प्रवृत्ति में परिवर्तन दिख रहा है। उनमें प्रेम, दया, सहानुभूति, करुणा आदि गुणों का अभाव नज़र आ रहा है। भाव-भावनाओं का विकास एक महत्वपूर्ण तथ्य है। केवल बुद्धि का विकास हो और भावनाओं को नजरअंदाज करें तो वह व्यक्तित्व एकांगी सिद्ध होगा। विज्ञान, तकनीकी शिक्षा तो आवश्यक है। किन्तु ‘मन’ भी उतना ही आवश्यक है। इस ‘मन’ का विकास विज्ञान, तंत्रज्ञान से होना संभव नहीं है। इसीलिये इस इक्कीसवीं शताब्दी में बच्चों की भाव-भावनाओं का विकास कैसे होगा, यह प्रश्न शिक्षकों के समक्ष मूलरूप से और महत्वपूर्ण रूप से रहेगा।

पिछली फरवरी के ‘इंडियन एक्सप्रेस’ समाचारपत्र में ‘कैनेडा की शालाओं पर बंदूक संस्कृति का आक्रमण’ शीर्षक के अंतर्गत एक समाचार पढ़ा। कैनेडा की शालाओं में हिंसा की घटनाएं बहुत ज्यादा हो रही हैं, ऐसी सूचनाएं वहां के शिक्षाधिकारियों से प्राप्त हो रही हैं। दस साल उम्र के बच्चे भी विद्यालय में शस्त्र लेकर आते हैं, ऐसा वॉल्टर फ्रिल नामक अधिकारी ने बताया। छोटे-छोटे बालक भी असहमति और नाराजगी दिखाते हुए तुरन्त आक्रामक हो जाते हैं, ऐसा टोरॅन्टो के एक विद्यालय सुपरिटेन्डेंन्ट रिक कॉलिन्स ने चिंता व्यक्त की है। 1986 से 1991 की अवधि में अठारह वर्ष से कम उम्र के बच्चे, जिन पर अपराध दर्ज हुए हैं उनकी संख्या 19000 है। इनमें लगभग बीस प्रतिशत लड़कियां हैं। इन की अपराध करने की आदतें उनके जीवनभर रह सकती हैं, ऐसी आशंका ओन्टेरिओ प्रोग्रेसिव कंजर्वेटिव पार्टी के डॉन न्यूमैन द्वारा व्यक्त की गई है। इटोबिकोक नामक एक ही राज्य से सितम्बर से दिसम्बर 2018 की अवधि में 259 बच्चों को विद्यालयों से निकाल देना पड़ा है।

यह सब तो पश्चिमी देशों में घटित हो रहा है, हम क्यों उसकी चिंता करें ऐसा कहना उचित नहीं होगा। जिन कारणों से पश्चिमी देशों में बाल अपराधों में वृद्धि हो रही है वही कारण, वही स्थिति, धीरे-धीरे अपने देश में भी निर्मित हो रही है। जैसे-जैसे विज्ञान, तकनीकी ज्ञान तीव्रगति से वृद्धिगत हो रहा है और तदनुसार जीवन पद्धति और विचारधारा बदलेगी, वैसे-वैसे ये प्रश्न हमारे समक्ष भी उपस्थित होने वाले हैं और ये प्रश्न केवल बच्चों तक सीमित रहने वाले न होकर संपूर्ण परिवार और फिर समाज के लिये भी उपस्थित होंगे। इसके लिये मूल कारण होंगे सुख लालसा, भोग लोलुपता।

इसलिये केवल गणित, विज्ञान, भाषा आदि विषयों की पढ़ाई कराना पर्याप्त नहीं है। अपनी संस्कृति से और अपनी मिट्टी से ये बच्चे विलग न हों ऐसी चिंता करने वाले ध्येयवादी शिक्षक ही ये कार्य संपादित कर सकेंगे। विद्यालय समाज का चेतना केन्द्र हो, यही समय की आवश्यकता है।

इस हेतु शिक्षक केवल अभ्यास पाठ्यक्रम के विषय पढ़ाने वाला हो ऐसा कहना उचित नहीं होगा। साधन, उपकरणों का केवल चालू-बंद करना जानना पर्याप्त नहीं है। ‘काउन्सलिंग’ की महत्वपूर्ण भूमिका शिक्षक को निभानी पड़ेगी। प्रत्येक व्यक्ति के प्रश्न भिन्न-भिन्न, प्रत्येक की समस्याएं अलग, ऐसी झमेलों वाली समस्याएं, जटिल समस्याएं सुलझाने हेतु शिक्षकों में संयम, निष्ठा, सहानुभूति के गुण होना आवश्यक है।

इक्कीसवीं शताब्दी विस्फोटक और चिंताजनक है। ऐसी स्थिति में शिक्षक का धैर्यवान, कुशल, सहनशील, निष्ठावान होना अति आवश्यक है।

और पढ़े : राष्ट्र निर्माण में शिक्षक की भूमिका

(लेखक शिक्षाविद, स्वतंत्र लेखक, चिन्तक व विचारक है।)

2 thoughts on “21वीं शताब्दी के शिक्षक

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *