✍ दिलीप बेतकेकर

शाला में एक खेल खेला जाता है रस्सा खींच। एक मजबूत रस्सी के दो सिरों की बाजू में दो समूह रस्सी को पकड़े खड़े हो जाते हैं। खेल शुरु होते ही दोनों समूह रस्सी को अपनी ओर खींचते हैं। (टग आफ वार)। जो समूह रस्सी को सामने वाले समूह समूह सहित अपनी ओर खींचने में सफल हो जाए वह विजयी होगा। यह खेल केवल मैदान में नहीं अपितु हमारे जीवन में भी चलता रहता है। परिस्थिति विरूद्ध मनःस्थिति ऐसा है यह हर पल जीवन में चलने वाला खेल! जिसकी मनः स्थिति प्रबल, मजबूत उसी की विजय! अपने पास कुछ धन, दौलत, साधन सामग्री का अभाव रहते हुए भी, बगैर किसी रोने-धोने, शिकायत के, संघर्ष रत रहते हुए, जिन्होंने अपनी शिक्षा पूर्ण की है ऐसे अनेक उदाहरण दिखाई देते हैं। पहले भी थे आज भी हैं- ऐसे प्रेरक उदाहरण!
एक बार एक व्यक्ति से पूछा- आपकी शिक्षा कहां और किस प्रकार हुई? उत्तर मिला- मेरी शिक्षा गरीबी की शाला में हुई। गरीबी एक श्राप, बाधा न मानकर उस पर जीत प्राप्त कर उत्तम प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने वाले आज भी हमारे आसपास ही दिखाई देते हैं।
किसी पत्थर को देखकर एक व्यक्ति कहता है कि यह एक रोड़ा है, बाधा है, तो दूसरे व्यक्ति की दृष्टि में वह एक ऊपर जाने वाली सीढ़ी है। (Stepping stone) फर्क है केवल दृष्टिकोण का!
प्रत्येक वर्ष दसवीं-बारहवीं की परीक्षा के पश्चात, परिणाम घोषित होने पर, कई विद्यार्थियों की यशो गाथाएं पढ़ने को मिलती हैं। ऐसे सभी उदाहरणों पर दृष्टि डालें तो हमें प्रेरणा मिलती है, स्फूर्ति मिलती है। किसी ने कठिन परिश्रम, मजदूरी करके अपनी शिक्षा ग्रहण की तो किसी ने दूसरों के घर रहकर तो किसी ने प्रतिदिन लंबी दूरी पैदल चलकर शिक्षा प्राप्त की है। किसी के पास परीक्षा फीस जमा करने के लिए पैसे न थे तो कोई भूखा पेट रहकर पढ़ाई कर पाया। ऐसे उदाहरण संकलित करने पर एक बड़ा सा ग्रंथ तैयार हो सकता है। सीखने की ललक हो, तीव्र इच्छा हो तो कोई भी उसे रोक नहीं सकता। परंतु मनःस्थिति कच्ची हो, दुर्बल हो तो कोई भी मदद नहीं कर सकता। उत्तम मनः स्थिति का अर्थ तीन बातों का मेल, त्रिवेणी संगम है।
१. सकारात्मक (Possitive), २. विजयी (Winning) ३. और कृतज्ञ (Gratitude) इन तीनों का मेलजोल, सहयोग आपस में रहा तो मनः स्थिति की डोर मजबूत होना निश्चित ही समझें!
१. सकारात्मकता : आज कुछ बाधा हो, कुछ समस्या हो, परन्तु उसका उत्तर भी उसी में छुपा है ऐसा दृढ़ विश्वास जिनका होता है वह उस समस्या से, बाधा से सुरक्षित बाहर निकलता ही है। मेघ कितना भी काला हो उसकी कहीं न कहीं चंदेरी किनार होती है। यह चंदेरी किनार जिसे दिखाई देती है, वह कभी निराश, हताश नहीं हो सकता।
एडिसन के कारखाने को आग लगी। वह आग देखकर एडिसन अपने लड़के को – चार्ल्स को बोला, जाओ अपनी माँ को बुला लाओ, ऐसी आग उसे पूरे जीवनकाल में देखने को नहीं मिलेगी। इतना ही नहीं, दूसरे दिन कारखाने की राख देखकर एडिसन स्वयं से कहने लगे, ऐसी बरबादी भी बहुत मूल्यवान होती है। अपनी गलतियां भी उसमें जलकर खाक हो जाती हैं। हे परमेश्वर, मुझे नए सिरे से कारखाना बनाने का अवसर दिया इसीलिए आपका आभारी हूँ।
प्रणाम है ऐसे धैर्यवान एडिसन को!
२. विजयी प्रवृति : अरुणिमा सिन्हा को बदमाशों ने चलती ट्रेन से बाहर फेंक दिया था, उसका एक पैर ट्रेन के नीचे दबने से चकनाचूर हो गया। कृत्रिम पैर लगने के बाद उसने एवरेस्ट शिखर पर जाने का निश्चय किया। इस अत्यंत साहसी कृत्य को न करने हेतु परा वृत्त करने का अनेक लोगों द्वारा प्रयास किया गया। परंतु वह अपने निश्चय से टस से मस नहीं हुई। मैं जीतकर ही चैन लूंगी। विजय पाकर ही रहूंगी, ऐसी जिद्द उसे एवरेस्ट शिखर पर ले गई। गोपाल नाम का एक विद्यार्थी, अत्यंत गरीब, पहनने के लिए ढंग के वस्त्र नहीं! एक ही कुर्ता, उसे रात्रि में धोकर, सुखाकर दूसरे दिन वहीं पहनता। यही गोपाल- अर्थात महाराष्ट्र के विख्यात समाज सुधारक गोपालराव आगरकर थे।
डॉ. अम्बेडकर की ज्ञान साधना कितनी अलौकिक थी! अस्पृश्यता की मार झेलते हुए, आर्थिक मार भी उन्होंने झेला, और कई पदवियां प्राप्त की। विदेश में रहते हुए वे पुस्तकालय में ही अधिक समय व्यतीत करते थे, अध्ययन करते। रात्रि भोजन के ऐवज में केवल काफी और एकाध टुकड़ा पाव खाकर अपनी भूख मिटाते। ‘विद्यातुराणाम न सुखम न निद्रा’ इसका साक्षात उदाहरण हैं डॉ. ए. पी. जे. कलाम। उनके पास कहां था अध्ययन के लिए पर्याप्त धन और साधन!
इसके विपरीत अपार धन और पर्याप्त साधन होते हुए भी अध्ययन के नाम से सारा गड़बड़ घोटाला ही, ऐसे उदाहरण भी दिखते हैं। अब अन्य की बातें छोड़ें! हम अपने बारे में सोचें। हम किस प्रकार का उदाहरण प्रस्तुत करेंगे?
जिनके हाथ में शून्य होते हुए भी सकारात्मक एवं विजय वृत्ति के बल पर जिन्होंने विजय पताका फहराई, अथवा ईश्वर, माता पिता ने सबकुछ देते हुए भी हाथ में कद्दू ही रहेगा? इसका चयन सब स्वयं ही करेंगे। चोइज़ इज योर्स! समर्थ रामदास स्वामी कहते थे कि “उत्कट भव्य वह लेवें, महत्वहीन को त्याग देवें!”
अब ‘उत्कट भव्य’ अपनाएं अथवा नहीं इसका निर्णय करें!
आप ही निर्णय अवश्य करें!
(लेखक शिक्षाविद, स्वतंत्र लेखक, चिन्तक व विचारक है।)
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