✍ दिलीप बेतकेकर
महाभारत युद्ध प्रारंभ होने के पूर्व अर्जुन और दुर्योधन भगवान श्री कृष्ण से सहायता मांगने हेतु एक ही समय पर पहुंचे। श्रीकृष्ण शैय्या पर सो रहे थे। दुर्योधन श्रीकृष्ण के सिरहाने पास जाकर बैठ गया जब कि अर्जुन श्रीकृष्ण के पैर के पास बैठे। दोनों ने ही श्रीकृष्ण के पास सहायता की मांग व्यक्त की। चतुर श्रीकृष्ण ने दो पर्याय रखे। एक के साथ सारा सैन्य और दूसरे के साथ अकेले श्रीकृष्ण रहेंगे, और वह भी शस्त्र विहीन श्रीकृष्ण! दुर्योधन ने समय न गवाते हुए तुरंत ही सैन्य मांग लिया। अर्जुन को तो श्रीकृष्ण ही चाहिए थे, अन्य कुछ नहीं! दुर्योधन खुश होकर चला गया। अर्जुन को श्रीकृष्ण ने हांस्य में कहा-
हार निश्चित है तेरी, हर दम रहेगा उदास। माखन दुर्योधन ले गया, छाछ बची तेरे पास।।
परन्तु अर्जुन भी इतना भोला न था। श्रीकृष्ण को लेकर उसने कोई भूल नहीं की थी।
उसने तुरंत उत्तर दिया-
हे प्रभु, जीत निश्चित है मेरी दास नहीं हो सकता उदास। माखन लेकर क्या करू, जब माखन चोर है मेरे पास।।
साधन, उपकरण आवश्यक होते हैं। इनके उपयोग से कार्य में सुगमता होती है इसे नकारा नहीं जा सकता। फिर भी साधनों की अपेक्षा साधना बेहतर होती है, श्रेष्ठ होती है। इसके उदाहरण पूर्व में भी थे और आज भी दिखाई देते हैं। साधन अधूरे रहने पर भी सभी प्रकार के पराक्रम किए ऐसा भी देखने में आया है।
It’s not the gun that fights, but the hand behind it. -And it’s not the hand that fights but the mind behind it.
इसका अनुभव अनेक बार आता है। वास्तव में युद्ध तो बंदूक अथवा बंदूक पकड़ा हुआ हाथ नहीं लड़ता है वरन हाथ के भी पीछे का दृढ़ता लिया हुआ मन लड़ता है। एक संस्कृत सुभाषित है- ‘क्रिया सिद्धिः सत्वे भवति महताम नोपकरणे’ उपकरण और साधनों की अपेक्षा क्रिया सिद्धि महत्त्वपूर्ण है।
जय कुमार वैद्य का उदाहरण अध्यतन है। कुर्ला (मुंबई) में दस आठ की छोटी सी कुठरिया में मां और दादी नानी के साथ रहने वाला युवक जयकुमार वैद्य आज अमेरिका के वर्जनिया विद्यापीठ में पी.एच.डी. हेतु अध्ययनरत है। माँ को पिता ने बाहर निकाल दिया था। उसकी माँ नौ साल से विवाह विच्छेद हेतु कोर्ट में मुकदमा लड़ रही थी, दादी नानी को संभालती और बालक जयकुमार की परवरिश करती थी। कई रातें उन माँ बेटे ने समोसा, वडा पाव और चाय पी कर गुजारी। लोगों द्वारा दिए गए वस्त्र पहने। जयकुमार अध्ययन के साथ मजदूरी भी करता था। आज जयकुमार इलेक्ट्रिकल एंड कम्प्यूटर साइंस इंजीनियरिंग विभाग में शोधकार्य कर रहा है। यह है साधना का उदाहरण!
संगीत के लिए रियाज़, खेलों के लिए अभ्यास, कलाकार का अभ्यास, अध्ययन में वाचन, मनन, चिंतन यह सब मिलजुल कर के साधना होती है। ना थकते, ना टालमटोल, ना आलस, अखंडता से किसी बात को एकाग्रता पूर्वक, भूख प्यास भूलते हुए, निरंतर परिश्रम करते हुए पूर्ण करना ही है साधना!
कुछ व्यक्ति अचानक ही दिमाग में कुछ सोचते हैं, संगीत, नृत्य, चित्रकला आदि की कक्षाओं की सदस्यता लेते हैं; हारमोनियम, तबला, व्यायाम की सामग्री आदि क्रय करते हैं, अनावश्यक खर्च करते हैं; चार-छह-दस दिन उत्साह दिखाते हैं, और फिर सारा ‘डप्प’! उत्साह समाप्त! यह ‘साधना’ नहीं कहलाती।
तितली एक फूल से दूसरे फूल पर, दूसरे से तीसरे पर जाती है। परन्तु सुतार पक्षी को देखें तो वह एक पेड़ पर छेद करने बैठ जाता है तो पूरा करके ही रुकता है।
अधूरे साधन-सामग्री, अभावग्रस्त रहते हुए भी कुछ लोग इतनी ऊंचाइयां प्राप्त करते हैं कि लोग अचंभित हो जाते हैं।
शिवाजी महाराज और औरंगजेब के पास के साधनों की तुलना करें तो क्या स्पष्ट दिखता है? संत ज्ञानेश्वर, स्वामी विवेकानंद आदि महापुरुषों के पास कौन से साधन थे?
डॉ. आंबेडकर, डॉ. कलाम जैसी विभूतियों के पास थी केवल ‘ज्ञान साधना’! अंडमान की अंधेरी कोठरी में बंदी सावरकर जी के पास कहां थे पेन और काग़ज़? फिर भी उन्होंने की काव्य रचना! इन व्यक्तियों द्वारा किए गए कार्य ही उनकी साधना की कृति है।
गुरु अपने शिष्य को उपदेश देते हैं, मंत्र देते हैं, साधना करने हेतु मार्गदर्शक बनते हैं, यह है ‘साधना’! इनका उपयोग करते हुए शिष्य को साधना करनी होती है। कोई एक शिष्य साधना करते हुए गुरु पद प्राप्त कर पाता है। साधन तो सभी शिष्यों को समान होते हैं। परन्तु सभी की प्रगति समान नहीं होती।
आध्यात्मिक क्षेत्र हो अथवा विज्ञान क्षेत्र, कला हो अथवा उद्योग हो, किसी भी क्षेत्र में प्रगति, सुयश प्राप्ति हेतु कठोर साधना महत्त्वपूर्ण है। केवल साधनों द्वारा यश के शिखर पर पहुंचना सम्भव नहीं होता।
निर्णायक तो ‘साधना’ ही है।
(लेखक शिक्षाविद, स्वतंत्र लेखक, चिन्तक व विचारक है।)
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