भारतीय ज्ञान का खजाना – 5 (भारत का उन्नत नौकायन शास्त्र – भाग एक)

–  प्रशांत पोळ

विश्व प्रसिद्ध पर्यटन स्थल थाईलैंड के बैंकाक हवाई अड्डे का नाम है – ‘सुवर्णभूमि विमानतल’। इस हवाई अड्डे में प्रवेश करते ही सबसे पहले जो बात सभी का ध्यान आकर्षित करती है, वह है एक विशालकाय कलाकृति। यह कलाकृति है भारतीय पुराणों में वर्णित ‘समुद्र मंथन’ की। इस कलाकृति के चारों तरफ सेल्फी लेने वाले पर्यटकों का झुण्ड सदैव उमड़ा हुआ रहता है। इसी सुवर्णभूमि विमानतल पर थोड़ा आगे बढ़ते ही एक बड़ा सा नक्शा लगा हुआ है। लगभग एक हजार-डेढ़ हजार वर्ष पूर्व के इस नक़्शे में ‘पुरुषपुर’ (पेशावर) से लेकर ‘पापुआ न्यू गिनी’ तक का भूभाग दर्शाया गया है, जिसके बीचों बीच बड़े और मोटे अक्षरों में लिखा है, ‘इण्डिया’। इसी नक़्शे में सयाम (थाईलैंड) को भी गाढ़े रंग से दर्शाया गया है। अर्थात् यह विशालकाय नक्शा ऊँचे स्वरों में दुनिया को बता रहा है कि – ‘किसी समय पर सयाम (अर्थात् थाईलैंड) समूचे विश्व में फैली हुई भारतीय संस्कृति का ही एक हिस्सा था, और हमें इस बात पर गर्व है।

दक्षिण-पूर्व एशिया के लगभग सभी देशों में यह भावना तीव्रता से प्रतिबिंबित होती दिखाई देती है। अपने राष्ट्र ध्वज में पूरे गर्व के साथ हिन्दू मंदिर का चिन्ह लगाने वाला, पूरे विश्व का एकमात्र देश हैं – कम्बोडिया। इस क्षेत्र में एक इस्लामिक देश है, ब्रुनेई दारुस्सलाम। इस देश की राजधानी का नाम है – बन्दर सेरी भगवान। यह नाम ‘बन्दर श्री भगवान’ नामक संस्कृत शब्द का ही अपभ्रंश है। परन्तु इस्लामिक राष्ट्र की राजधानी के नाम में ‘श्री भगवान’ शब्द इस देश के निवासियों को खटकना तो दूर, बल्कि उन्हें इस पर अभिमान है, गर्व हैं।

जावा, सुमात्रा, मलय, सिंहपुर, सयाम, यवद्वीप इत्यादि सभी तत्कालीन देश, जो वर्तमान में इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर, थाईलैंड, कम्बोडिया, विएतनाम वगैरह नामों से जाने जाते हैं, इन सभी देशों पर हिन्दू संस्कृति की जबरदस्त छाप आज भी मौजूद है। दो-ढाई हजार वर्ष पूर्व दक्षिण भारत के हिन्दू राजा इन प्रदेशों में गए थे। ऐसा कोई भी तथ्य नहीं मिलता कि भारत से गए राजाओं ने वहां भीषण युद्ध किया हो। इसकी बजाय शांतिपूर्ण तरीके से, अपनी समृद्ध संस्कृति के बल पर समूचा दक्षिण-पूर्व एशिया धीरे-धीरे हिन्दू विचारों को अपना मानने लगा था।

अब एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि जब बड़े पैमाने पर हिन्दू राजा आंध्र, तमिलनाडु इत्यादि राज्यों से दक्षिण-पूर्व एशिया के देशों में गए, तो वे कैसे गए होंगे? ज़ाहिर है कि समुद्री मार्ग से ही गए होंगे। अर्थात् उस कालखंड में भारत में नौकायन शास्त्र अत्यंत उन्नत स्थिति में मौजूद था। उस कालखंड की भारतीय नौकाओं एवं नाविकों के अनेक चित्र एवं मूर्तियाँ कम्बोडिया, जावा, सुमात्रा, बाली जैसे स्थानों पर दिखाई देती हैं। उस काल में भी कम से कम पांच सौ यात्रियों को ले जाने की क्षमता वाली नौकाओं का निर्माण भारत में होता था।

उस काल में समुद्री यात्राओं की स्थिति को देखते हुए, यह निश्चित कहा जा सकता है कि भारतीयों के पास उत्तम दिशा ज्ञान एवं समुद्री वातावरण की पूरी समझ थी, अन्यथा उस समय उफनते समुद्र में, आज जैसे आधुनिक मौसम यंत्र एवं यात्राओं संबंधी विभिन्न साधनों के नहीं होने के बावजूद, इतनी दूर के देशों तक पहुंचना, उन देशों से सम्बन्ध बनाना, वहां पर व्यापार करना, भारत जैसे देश के ‘एक्सटेंशन’ की तरह उन देशों से संपर्क लगातार बनाए रखना… इससे सिद्ध होता है कि भारतीयों का नौकायन शास्त्र उन दिनों अत्यधिक उन्नत रहा ही होगा।

1955 और 1961 में गुजरात के ‘लोथल’ में पुरातत्व विभाग द्वारा उत्खनन किया गया था। लोथल भले ही एकदम समुद्र के किनारे पर स्थित नहीं है, परन्तु समुद्र की एक छोटी पट्टी लोथल तक आई हुई है। पुरातत्व विभाग के उत्खनन में यह सामने आया कि लगभग साढ़े तीन हजार वर्ष पहले लोथल एक वैभवशाली बंदरगाह था। इस स्थान पर अत्यंत उन्नत एवं साफ़-सुथरी उत्तम नगर संरचना स्थित थी। परन्तु उत्खनन से प्राप्त अवशेषों में इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह निकलकर आई कि लोथल में जहाज़ों के निर्माण का कारखाना था। लोथल से अरब देशों एवं इजिप्त देश में बड़े पैमाने पर व्यापारिक गतिविधियों के भी प्रमाण मिले।

लगभग सन् 1955 तक लोथल अथवा पश्चिमी भारत के नौकायन शास्त्र सम्बन्धित अधिक तथ्य हमारे पास नहीं थे। परन्तु लोथल में किए उत्खनन के कारण इस ज्ञान के दरवाजे दुनिया के सामने खुल गए। इस खुदाई से पता चला कि समुद्र किनारे पर स्थित नहीं होने के बावजूद लोथल में नौकायन विज्ञान इतना समृद्ध था, और वहां नौकायन से सम्बन्धित इतनी गतिविधियां लगातार चलती रहती थीं, तो गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक और केरल जैसे दूसरे पश्चिमी राज्यों के समुद्र किनारों पर, इस बंदरगाह से भी अधिक कितनी ही सरस एवं समृद्ध संरचनाएं रही होंगी।

आज हम जिसे मुंबई में ‘नालासोपारा’ कहते हैं, वहां पर लगभग हजार/डेढ़ हजार वर्ष पहले ‘शुर्पारक’ नामक वैभवशाली बंदरगाह था। इस स्थान पर भारत के जहाज़ों के अलावा अनेक देशों के जहाज व्यापार करने आते थे। इसी प्रकार दाभोल इसी प्रकार सूरत, आगे चलकर विजयनगर साम्राज्य स्थापित होने के बाद उस राज्य ने दक्षिण भारत में अनेक विशाल और सुन्दर बंदरगाहों का निर्माण किया तथा पूर्व एवं पश्चिम दोनों ही दिशाओं में व्यापार आरम्भ किया।

मैक्सिको के उत्तर-पश्चिम किनारे पर, अर्थात् ‘दक्षिण अमेरिका’ के उत्तरी छोर पर जहां समुद्र आकर मिलता है, वहां पर मैक्सिको का युकातान नामक प्रांत है। इस राज्य में पुरातन ‘माया’ संस्कृति के अनेक अवशेष आज भी बड़े पैमाने पर संरक्षित करके रखे गए हैं। इसी युकातान प्रांत में जवाकेतू नामक स्थान पर एक अति-प्राचीन सूर्यमंदिर के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं। इस सूर्यमंदिर में संस्कृत में लिखा हुआ एक शिलालेख प्राप्त हुआ है, जिसमें शक संवत 885 में ‘भारतीय महानाविक’ वोसूलीन के आगमन की सूचना खुदी हुई है।

रॉबर्ट बेरोन वोन हेन गेल्डर्न (१८८५-१९६८), इस लंबे चौड़े नाम वाले एक जाने-माने ऑस्ट्रियन एंथ्रोपोलॉजिस्ट हुए हैं। इनकी शिक्षा-दीक्षा विएना विश्वविद्यालय में हुई। आगे चलकर 1910 में ये भारत और बर्मा देशों के दौरे पर आए। भारतीयों के उन्नत वैज्ञानिक ज्ञान के प्रति इनके मन में अत्यंत कौतूहल निर्माण हुआ और उन्होंने यहां पर अपना शोध आरम्भ किया। इस वैज्ञानिक ने दक्षिण-पूर्वी देशों में अच्छा-ख़ासा शोध कार्य किया। अपने शोध के अंत में रॉबर्ट ने मजबूती से इस बात को रेखांकित किया कि कोलंबस से कई वर्षों पूर्व बड़े-बड़े भारतीय जहाज मैक्सिको और पेरू देशों के दौरे किया करते थे। अब इससे अधिक और कौन सा सबूत चाहिए कि भारतीय नौकाओं / जहाज़ों का प्रवास पूरी दुनिया में सबसे पहले किया जाता रहा है। लेकिन फिर भी हमारे कथित बुद्धिजीवी कहते हैं कि अमेरिका की खोज कोलंबस ने और भारत की खोज(?) वास्को द गामा ने की!

वास्तविकता ये है कि मूलतः वास्को द गामा स्वयं ही भारतीय जहाज़ों की सहायता से भारत तक पहुंचा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाह सुरेश सोनी जी ने डॉक्टर वाकणकर का सन्दर्भ देते हुए बहुत ही सटीक वर्णन किया है। डॉक्टर हरिभाऊ (विष्णु श्रीधर) वाकणकर, उज्जैन के एक प्रसिद्ध पुरातत्व विद्वान थे। भारत की सबसे प्राचीन नागरिक बस्ती के सबूत के रूप में जिन ‘भीमबेटका’ गुफाओं का उल्लेख किया जाता है, उन गुफाओं की खोज वाकणकर जी ने ही की हैं। अपने शोध के सन्दर्भ में डॉक्टर वाकणकर इंग्लैण्ड गए हुए थे। वहां पर एक संग्रहालय में उन्हें वास्को द गामा की हस्तलिखित डायरी दिखाई दी। उन्होंने वह डायरी देखी और उसका अनुवाद पढ़ा। उसमें वास्को द गामा ने स्वयं वर्णन किया है कि वह भारत में कैसे-कैसे पहुँचा।

उस डायरी के अनुसार जब वास्को द गामा का जहाज अफ्रीका के जंजीबार में पहुंचा, तब उसने वहां अपने जहाज से तीन गुना बड़े जहाज़ों को देखा, जो भारतीय थे। एक अफ्रीकी दुभाषिये की मदद से वास्को द गामा इन भारतीय जहाज़ों के मालिक से भेंट करने गया। ‘चन्दन’ नामक वह भारतीय व्यापारी अत्यंत सादे कपड़ों में खटिया पर बैठा हुआ था। जब वास्को द गामा ने उससे आग्रह किया कि उसे भी भारत आने की इच्छा है। तब उस व्यापारी ने सहजता से उत्तर दिया कि, ‘मैं कल ही वापस भारत जाने वाला हूं, तुम अपना जहाज मेरे पीछे-पीछे लेकर चले आओ’। इस तरह वास्को द गामा भारत के समुद्र किनारे पर पहुंचा।

परन्तु दुर्भाग्य से आज भी स्कूलों में यही पढ़ाया जाता है कि वास्को द गामा ने भारत की खोज की!

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