हिन्दू नववर्ष की प्रासंगिकता

 ✍ वासुदेव प्रजापति

हिन्दू नववर्ष आदिकाल से मनाया जाने वाला सांस्कृतिक व ऐतिहासिक पर्व है। यह पर्व राष्ट्रीय बोध, हमारी प्राचीन वैज्ञानिकता एवं विश्व कल्याण का परिचायक है। इसका महत्त्व जितना पहले था, उससे भी अधिक आज है। राममन्दिर निर्माण के पश्चात तो इसकी प्रासंगिकता बहुत अधिक बढ़ गई है।

नववर्ष सम्पूर्ण देश का पर्व है

हिन्दू नववर्ष हमारे देश में युगों-युगों से मनाया जा रहा है। अंग्रेजी शासन में अवश्य इसकी उपेक्षा की गई। अंग्रेजों ने योजनाबद्ध ढंग से एक जनवरी को नया वर्ष मनाने का प्रचलन बढ़ाया और हिन्दू नववर्ष को भुला दिया। कुछ वर्षों से हिन्दू समाज में जागृति आई है, वह अपनी अस्मिता के विषयों को खुलकर बोलने लगा है, अपने पर्वों को आग्रहपूर्वक मनाने लगा है। एक जनवरी को अंग्रेजी नया वर्ष मनाने के स्थान पर चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को हिन्दू नववर्ष आग्रह पूर्वक मनाने लगा है।

अंग्रेजी शासन से पहले सम्पूर्ण देश हिन्दू नववर्ष ही मनाता था। भारत विविध रूपा संस्कृति का देश होने के कारण विभिन्न प्रदेशों में इस पर्व के अनेक नाम  हैं, पूरा देश इस पर्व को विभिन्न नामों से मनाता है। उत्तर भारत में नवसंवत्सर और नया वर्ष के नाम से, कश्मीर में नवरेह तो महाराष्ट्र में गुड़ीपड़वा, गोवा व कोंकण में संवत्सर पड़वो तो पंजाब में वैसाखी, सिन्ध में चेटीचंड नाम से और कर्नाटक में युगादि तो आन्ध्र व तेलंगाना में उगादि, तमिलनाडु में पुथंडु, उड़ीसा में पना संक्रान्ति, प. बंगाल में नवावर्षा, असम में बिहु व मणिपुर में सजिबु नोंगमा पानबा के नाम से यह पर्व सम्पूर्ण देश में मनाया जाता है। अर्थात नववर्ष सम्पूर्ण भारतवर्ष का पर्व है।

नववर्ष सृष्टि प्रारम्भ का पर्व है

इस पर्व का सबसे महत्त्वपूर्ण पक्ष यह है कि चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा तिथि के दिन पहले सूर्योदय के समय जगत पिता ब्रह्माजी ने इस सृष्टि की रचना की थी। यह श्लोक इसका प्रमाण है –

चैत्रे मासि जगद् ब्रह्मा ससर्ज प्रथमे अहनि।

शुक्ल  पक्षे  समग्रेतु  सदा  सूर्योदये   सति।।

अर्थात चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन ही ब्रह्माजी ने इस सृष्टि का निर्माण किया था। तब से यह नया वर्ष हमारे देश में मनाया जा रहा है। इस अर्थ में यह पर्व नव निर्माण का पर्व है। प्राणी जीवन इस सृष्टि पर ही निर्भर है। इसलिए यह पर्व सबके आश्रय का पर्व है, सबके भरण-पोषण का पर्व है और सबके संरक्षण का पर्व है। यह पर्व विश्व का प्राचीनतम पर्व है, जो हमें गौरव का बोध करवाता है।

नववर्ष शक्ति पूजा का पर्व है

हमारे सभी देवी-देवता शक्ति के आराधक हैं। सबने अपने हाथों में अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए हैं। समय-समय पर दुष्टों का संहार करने व सज्जन शक्ति का रक्षण करने हेतु इनका प्रयोग करते हैं। इसलिए सम्पूर्ण हिन्दू समाज भी शक्ति का उपासक है। प्रतिवर्ष नौ दिन तक शक्ति की देवी माँ दुर्गा की पूजा करता है। यह चैत्रीय नवरात्रि की पूजा कहलाती है। नववर्ष शक्ति पूजा का प्रथम दिन है। इस प्रथम दिवस चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को स्थापना भी कहते हैं। स्थापना से लेकर राम नवमीं तक यह शक्ति पूजा चलती है।

इस समय प्रकृति में संतुलन होता है, न अधिक शीत और न अधिक उष्ण, हर दृष्टि से मौसम सुहावना रहता है। वनस्पतियों में नये पत्ते व पुष्प आते हैं। धरती सरसों के पीले फूलों की चुनरी ओढ़ लेती है। ऐसा लगता है मानों प्रकृति ने नव यौवना का श्रृंगार कर लिया है। इसी समय खेतों में नई फसल आती है, चहूँ ओर नव उमंग व उल्लास का वातावरण होता है। इसलिए लोग इस पर्व पर नाचते-गाते और उत्सव मनाते हैं। यह पर्व हमें प्रकृति को माँ मानकर उसका संरक्षण करने का दायित्व भी सौंपता है।

नववर्ष सभी संवत्सरों का पर्व है

हमारे देश में जितने भी संवत्सर प्रारम्भ हुए, सभी चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (वर्षप्रतिपदा) के दिन ही प्रारम्भ हुए। वैसे तो हमारे देश में अनेक संवत्सर चले हैं, परन्तु उनमें से कुछ प्रमुख संवत्सरों की जानकारी यहाँ देना पर्याप्त है। सबसे पहले सृष्टि संवत् प्रारम्भ हुआ। फिर युग भेद से सत्ययुग में ब्रह्म संवत, त्रेता में वामन संवत, सहस्रार्जुन वध से परशुराम संवत, रावण वध से श्रीराम संवत, द्वापर में इसी दिन महाराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ, तब से युधिष्ठिर संवत भी प्रारम्भ हुआ था। महाभारत युद्ध के पश्चात अर्जुन के पौत्र परीक्षित का राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था। इसी दिन द्वापर युग समाप्त होकर कलियुग प्रारम्भ हुआ, इसलिए इस संवत को कलि संवत या युगाब्द भी कहते हैं। आज इस कलि संवत या युगाब्द को प्रारम्भ हुए ५१२५ वर्ष पूर्ण हुए हैं।

इस कलियुग का सबसे प्रमुख संवत विक्रमी संवत है। यह संवत महाराजा विक्रमादित्य ने अत्याचारी शकों को परास्त कर चलाया था। इस संवत को प्रारम्भ हुए २०८० वर्ष पूर्ण हुए हैं। इस चैत्र शुक्ल पतिपदा को विक्रमी संवत २०८१  प्रारम्भ होगा। एक और संवत हमारे देश में महाराजा शालिवाहन ने प्रारम्भ किया था, जो शक संवत के नाम से जाना जाता है। इस संवत को भारत सरकार ने राष्ट्रीय संवत माना है। इस राष्ट्रीय शक संवत को प्रारम्भ हुए १९४६ वर्ष हुए हैं। यहाँ यह ध्यान में रखने योग्य बात है कि विक्रम संवत् ईस्वी सन से 57 वर्ष पहले का है जबकि राष्ट्रीय शक संवत ईस्वी सन से 78 वर्ष बाद का है। इस अर्थ में नववर्ष का पर्व संवत्सरों के प्रारम्भ का प्रथम दिन है। यह पर्व हमें हमारे गौरवशाली अतीत का स्मरण करवाता है, हमारा स्वाभिमान जगाता है।

नववर्ष महापुरुषों की याद दिलाता है

चैत्रशुक्ल प्रतिपदा का यह पावन दिन हमें अनेक महापुरुषों का स्मरण करवाता है। भगवान विष्णु ने इसी दिन अपना पहला मत्स्यावतार लिया था। विशाल मत्स्य बनकर महाराज मनु की नौका को प्रलय से उबारा था। उन्हीं मनु ने धरती पर फिर से सृष्टि बसाई थी। इसीलिए हम मनु की सन्तान मनुष्य कहलाते हैं। राक्षसी संस्कृति के नायक रावण पर विजय प्राप्त कर मर्यादा पुरुषोत्तम राम अयोध्या लौटे और उनका राज्याभिषेक भी इसी दिन हुआ था। सिन्ध के लोगों को आततायियों से मुक्ति दिलाने वाले वरुणावतार संत झूलेलाल के अवतरण का दिन भी यही है। इसी दिन सिक्खों के दूसरे गुरु अंगददेव जी का जन्म हुआ था। न्यायशास्त्र के प्रणेता महर्षि गौतम की जयन्ती भी इसी दिन मनाई जाती है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आजादी के आन्दोलन में प्रमुख भूमिका निभाने वाले संगठन आर्य समाज की स्थापना इसी दिन की थी। ऐसा स्मरणीय दिन है, यह चैत्रशुक्ल प्रतिपदा।

नववर्ष प्राचीनतम काल गणना का पर्व है

हमारे नववर्ष की काल गणना विश्व में प्रचीनतम है। दूसरे किसी भी देश की काल गणना हमसे बहुत बाद की है। हमारा सृष्टि संवत १,९७,२९,४९,१२१ अर्थात एक अरब सत्तानवे करोड़ उन्तीस लाख उन्नचास हजार एक सौ इक्कीस वर्ष पुराना है। हमारा श्रीराम संवत ही १,२५,६९,१२५ अर्थात एक करोड़ पच्चीस लाख उन्नहत्तर हजार एक सौ पच्चीस वर्ष पुराना है। विश्व के केवल दो देशों खताई व चीन के सन ही श्रीराम संवत के समकक्ष हैं। शेष सभी तो बहुत बाद के हैं, मिश्र की काल गणना लगभग २७ लाख वर्ष पुरानी है। तुर्की की लगभग ६ लाख वर्ष पुरानी, यहूदी ५७८४ वर्ष, यूनानी ३५९६ वर्ष,  रोमन २७७५ वर्ष पुरानी है। जबकि ईस्वी सन मात्र २०२४ वर्ष पुराना है और हिजरी सन तो सबसे बाद का है, इसे तो मात्र १४४२ वर्ष ही हुए हैं। जबकि इन दोनों से तो हमारे बौद्ध संवत, महावीर संवत, शंकराचार्य संवत व विक्रम संवत भी पहले के हैं।

आज विश्व के अधिकांश देशों में ग्रेगेरियन केलेंडर से समय की गणना होती है, जो न तो शुद्ध है और न वैज्ञानिक ही है। जबकि भारतीय काल गणना प्राचीनतम, पूर्ण शुद्ध व वैज्ञानिक है। आज तो इसके ढ़ेरों प्रमाण हैं। चन्द्रग्रहण व सूर्यग्रहण हमेशा पूर्णिमा व अमावस्या को ही आते हैं, इनके ग्रहण काल में एक मिनट का भी अन्तर नहीं आता। हमारी काल गणना चन्द्र, सूर्य व नक्षत्र तीनों पर आधारित होने के कारण पूर्ण शुद्ध है। ग्रेगेरियन कलेण्डर की विसंगति 29 फरवरी का दिन चार वर्ष में एक बार ही आता है। हमारी काल गणना में ऐसी विसंगति नहीं है। इनके महीनों के नाम महापुरुषों पर या अन्य घटनाओं पर हैं जबकि हमारे यहाँ महीनों के नाम नक्षत्रों पर हैं, जैसे जिस पूर्णिमा को चित्रा नक्षत्र होता है उस महीने का नाम चैत्र है। जिस पूर्णिमा को विशाखा नक्षत्र होता है, वह महीना वैशाख है। शेष सभी महीनों के नाम इसी पद्धति से रखे गए हैं। ग्रेगेरियन कलैण्डर के महीनों के नामों का सम्बन्ध उनके क्रमांक से मेल नहीं खाता। उनके महीनों के नाम सितम्बर, अक्टूबर, नवम्बर व दिसम्बर क्रमशः सातवाँ, आठवाँ, नवमाँ व दसमाँ महीना होना चाहिए, परन्तु हैं नौवां, दसमाँ, ग्यारहवाँ व बारहवाँ। इस विसंगति का कारण भी बड़ा विचित्र है, इनके केलेंडर में पहले दस महीने ही होते थे। इस कमी को दूर करने के लिए उन्होंने दो नये जोड़े। जुलियस सीजर के नाम पर जुलाई और ऑगस्टस के नाम पर अगस्त। इन दो महीनों के जुड़ने से सितम्बर नौवाँ महीना हो गया, अक्टूबर दसवाँ, नवम्बर ग्यारहवाँ और दिसम्बर बारहवाँ हो गया। इसलिए हमारी काल गणना हर दृष्टि से पाश्चात्य काल गणना से पूर्ण शुद्ध व श्रेष्ठ है, जो हमारे लिए गौरव की बात है।

संघ स्वयंसेवक इसे श्रद्धा से मनाते हैं

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक वर्ष प्रतिपदा को विशेष महत्त्व का पर्व मानते हैं। इस दिन ही संघ के संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार का जन्म हुआ था। नववर्ष के दिन सभी स्वयंसेवक डॉक्टरजी को शाखा से पूर्व प्रणाम करते हैं और उनके जैसा बनने का संकल्प लेते हैं –

हम सभी का जन्म तव प्रतिबिम्ब सा बन जाय।

और अधूरी साधना चिर पूर्ण बस हो जाय।

सन १९२५ में प्रारम्भ हुआ संघ आज देश में सबसे बड़ा स्वयंसेवी सगठन है। हिन्दू समाज का संगठन करना इसका उद्देश्य है। संघ का मानना है कि यहाँ का पुत्र रूप हिन्दू समाज ही इस देश का राष्ट्रीय है। हिन्दू का उत्थान ही राष्ट्र का उत्थान है। संघ इस हिन्दू राष्ट्र को परम वैभव पर पहुँचाना चाहता है। संघ के कारण ही आज देश का सोया हिन्दू जागा है। जिस देश में हिन्दू का नाम लेने मात्र से लोग डरते थे, उसी देश में अब हिन्दू उद्घोष करता है, ‘कहो गर्व से हम हिन्दू हैं, हिन्दुस्थान हमारा है।’ संघ के मार्गदर्शन में ही देश ने राम मन्दिर बनाकर उसमें रामलला की प्राण प्रतिष्ठा सम्पन्न की है। राष्ट्रसेवा में तत्पर ऐसे संगठन के स्वयंसेवक नववर्ष के इस पावन दिवस पर आद्य संघ संस्थापक परम पूजनीय डॉक्टरजी को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं –

लो श्रद्धांजलि राष्ट्र पुरुष हे शतकोटि हृदय के कंज खिले हैं।

आज  तुम्हारी  पूजा   करने  सेतु  हिमाचल  संग  मिले  हैं।।

हम सभी भारतवासियों को चाहिए कि हम अंग्रेजों की मानसिक गुलामी को त्यागकर, हीनता बोध से ऊपर उठ कर इस हिन्दू राष्ट्र के गौरवपूर्ण नववर्ष को प्रतिवर्ष बड़े उत्साह से मनाएँ और इस राष्ट्र को फिर से जगत का सिरमौर बनाएँ।

भारत माता की जय!!!

(लेखक शिक्षाविद् है, भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के सह संपादक है और विद्या भारती संस्कृति शिक्षा संस्थान के सचिव है।)

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